अंधायुग नाटक (Andhayug Natak)

  ?? अंधायुग नाटक ??

◆ नाटककार :- धर्मवीर भारती

◆ प्रकाशन :-  1955 ई.

◆  गीति नाट्य / काव्य नाटक

◆ अंक :- 5 अंक 

◆ नाटक 8 भागों में विभक्त

√ स्थापना

√ प्रथम अंक :-  कौरवी नगरी

√  दूसरा अंक  :- पशु का उदय

√  तृतीय अंक :-  अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य

√ अन्तराल :- पंख, पहिये और पट्टियाँ

√  चतुर्थ अंक :-  गांधारी का शाप

√  पाँचवा अंक :-  विजय एक क्रमिक आत्महत्या

√   समापन  :- प्रभु की मृत्यु

◆ आरम्भ के तीन अंक महाभारत के अठारहवें दिन के युद्ध के वर्णन से संबंधित हैं।

◆  चौथे अंक में आकर वह एकदम स्पष्ट कर देता है कि किस प्रकार हर आदमी के अंदर अंधी गुफाएँ होती हैं, जिसमें उस आदमी का आदिम बर्बर पशु रूप छिपकर बैठा रहता है और किसी ऐसे कमजोर क्षण का इंतजार कर रहा होता है जब वह पूरी ताकत से उसपर हमला करके उसके भीतर की अच्छाई को समाप्त कर डालता है।

◆ पाँचवे अंक में विजय की व्यर्थता, उसका गहरा होता हुआ आभास उभरता है कि अगर महाभारत का युद्ध धर्म के लिए या न्याय के लिए लड़ा गया सही कर्म था तो उसका फल शुभ अनुभव क्यों नहीं हो रहा है। शुभ का परिणाम तो मंगल, प्रशस्त उल्लसित, विकासमान और आत्मा को शुद्ध करने वाला होना चाहिए, फिर यह ग्लानि क्यों।

◆ छठा और अंतिम अंक प्रभु श्री कृष्ण की मृत्यु से संबंधित है।

◆ नाटक के  पात्र :-

★ पुरुष पात्र  :-

1. अश्वत्थामा
2. धृतराष्ट्र
3.  कृतवर्मा
4.  संजय
5. वृद्ध याचक
6.  विदुर
7.  युधिष्ठिर
8.  कृपाचार्य
9.  युयुत्सु
10. गूँगा भिखारी
11. व्यास
12. बलराम
13.  प्रहरी 01
14. प्रहरी 02

★  एकमात्र स्त्री पात्र :- गान्धारी

◆ अंधायुग नाटक का संदेश :- वर्तमान युग के अंधे होने, मनुष्य में मनुष्यता के लोप हो जाने की कथा के माध्यम से भविष्य के आसन्न संकट से सावधान रहने का संदेश।

◆ अंधायुग नाटक की समस्या :- द्वितीय विश्वयुद्ध के भयंकर विनाश के उपरांत आम आदमी में व्याप्त कुंठा, भय, संशय, सामूहिक मृत्यु भय, निराशा, निरर्थकता इत्यादि की समस्या ।

◆  अंधायुग नाटक का विषय : – महाभारत के अंतिम दिन(18 वे दिन) के युद्ध का वर्णन और  युद्ध के बाद की घटनाओं और परिणामों का चित्रण।

◆  अंधायुग नाटक का मंचन : –

★ नाटककार धर्मवीर भारती ने 1972 में ‘इनैक्ट’ पत्रिका में अपने पत्र में यह स्पष्ट स्वीकार किया था कि ‘अंधायुग’ की रचना उन्होंने वस्तुतः मंचीय प्रस्तुति के लिए रामलीला के अनुकरण पर की थी।

★ ‘अंधायुग’ का प्रथम मंचन 1962 के दिसंबर में सत्यदेव दुबे के निर्देशन में खुले आंगन में हुआ।

★  सत्यदेव दुबे के निर्देशन में ही थियेटर युनिट द्वारा बंबई में (1964 ई.) अंधायुग नाटक की प्रस्तुति हुई।

★ कलकत्ता की नाट्य संस्था ‘अनामिका’ ने 25 दिसंबर 1964 को सत्यदेव दुबे के निर्देशन में ही अंधायुग नाटक को प्रस्तुत किया।

★ पहले 1963 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला के खंडहर में इब्राहिम अल्काज़ी द्वारा भी अंधायुग नाटक को प्रस्तुत किया गया।

★  इसके बाद दिल्ली में ही 18 मई 1967 को तालकटोरा गार्डन और 28 अप्रैल से 5 मई 1974 के बीच पुराने किले में भी इसके कई प्रदर्शन हुए।

★ मॉरीशस में ‘अंधायुग’ को प्रस्तुत करते हुए निर्देशक मोहन महर्षि ने भी कुछ ऐसे ही छोटे-मोटे प्रयोग किए ।

★ ‘अंधायुग’  नाटक को प्रतिष्ठित रंग निर्देशकों ने खेला है जिनमें इब्राहिम अलकाजी, सत्यदेव दुबे, मोहन महर्षि, रवि वासवानी आदि उल्लेखनीय हैं।

◆ महत्त्वपूर्ण कथन  :-

(1.) “होगी, अवश्य होगी जय पर जीतेगा दुर्योधन जीतेगा।”  (गांधारी, प्रथम अंक)

(2.) “मैं वह भविष्य हूँ, जो झूठा सिद्ध हुआ।” (आज कौरव की नगरी में याचक)

(3.) “मैं हूँ परात्पर, जो कहता हूँ करो सत्य जीतेगा, मुझसे लो सत्य मत डरो। (धृतराष्ट्र याचक से, प्रथम अंक में )

(4.) “आज जब मैंने दुर्योधन को देखा निःशस्त्र, दीन आँखों में आँसू भरे मैंने मरोड़ दिया इस धनुष को कुचले हुए सॉप-सा भयावह किन्तु शक्तिहीन मेरा धनुष।” (यह अश्वत्थामा का कथन कृपाचार्य और कृतवर्मा के प्रति, द्वितीय अंक)

(5.) “तटस्थ? मातुल मैं योद्धा नहीं हूँ। बर्बर पशु हूँ। यह तटस्थ शब्द है मेरे लिए अर्थहीन।”
(अश्वत्थामा कृपाचार्य से,द्वितीय अंक)

(6.) “मैंने नहीं मारा उसे मैं तो चाहता था वध करना भविष्य का पता नहीं कैसे वह बूढ़ा मरा पाया गया।” (अश्वत्थामा का कथन कृपाचार्य के प्रति अभिमन्यु के संदर्भ में। )

(7.) “मैंने छू-छूकर अंग- भंग सैनिकों को देखने की कोशिश की। बाद के पास से हाथ जब कट जाता है। लगता है वैसा जैसे मेरे सिंहासन का हत्था है।” (धृतराष्ट्र ,द्वितीय अंक)

(8.) “कौरव-पुत्रों की इस कलुषित कथा में एक तुम हो केवल जिसका माथा गर्वोन्नत है।”(विदुर युयुत्सु से,तृतीय अंक)

(9.) “मातुल सुनो! मरे गये राजा दुर्योधन अधर्म से।” (अश्वत्थामा कृपाचार्य से ,तृतीय अंक)

(10.) “जाओ हस्तिनापुर समझाओ गांधारी को अपने शिविरों को जो जाते पांडवगण वे भी निश्चय मारे जायेंगे से।”(बलराम कृष्ण से ,तृतीय अंक)

(11.)’ संजय तुम जाओ मेरा यह अभिशाप है।” (धृतराष्ट्र)

(12.) गूँगों के सिवा आज और कौन बोलेगा मेरी जय।”(धृतराष्ट्र)

(13.) “इस अभिशाप भूमि पर एक कदम भी रखा तो बचकर लौटना असंभव है।”( द्रोणाचार्य)

(14.) “मैं अश्वत्थामा उन नीचों को मारूँगा। अश्वत्थामा, पाण्डवों के लिए इस विजय का कोई अर्थ नहीं ।”(युधिष्ठिर)

(15.)” माता मत कहो मुझे तुम जिसको कहते हो प्रभु वह भी मुझे माता ही कहता है।”(गांधारी विदुर से)

◆ नाटक के प्रारंभ में उद्घोषणा और मंगलाचरण :-

★  उद्घोषणा  :-

नारायणम् नमस्कृत्य नरम् चैव नरोत्तमम् ।
देवीम् सरस्वतीम् व्यासम् ततो जयमुदीयरेत्

★ मंगलाचरण :-

उद्घोषणा जिस युग का वर्णन इस कृति में है उसके विषय में विष्णु पुराण में कहा है:-

√ ‘ततश्चानुदिनमल्पाल्प हास
व्यवच्छेद्वाद्धर्मार्थयोजगतस्संक्षयो भविष्यति।’

® उस भविष्य में
धर्म-अर्थ हामोन्मुख होंगे
क्षय होगा धीरे-धीरे सारी धरती का।

√ ‘ततश्चार्थ एवाभिजन हेतु।’

® सत्ता होगी उनकी ।
जिनकी पूंजी होगी।

√’कपटवोष धारणमेव महत्व हेतु’

® जिनके नकली चेहरे होंगे
केवल उन्हें महत्व मिलेगा।

√’एवम् चति लुब्धक राजा सहाशैलानामन्तरदोणी: प्रजा संश्रियष्यवन्ति ।।

® राजशक्तियाँ लोलुप होंगी,
जनता उनसे पीड़ित होकर गहन गुफाओं में छिप-छिप कर दिन काटेगी।

◆ नाटक का सारांश :-

★ पहला अंक :- कौरव नगरी

√ इस अंक के आरंभ में ‘कथा गायन’ के रूप में महाभारत के युध्द में कौरवों और द्वारा किए गए अमर्यादित आचरण का उल्लेख किया है।

√  महाभारत के युद्ध के अंतिम दिन की संध्या का समय है। कौरवों के महलों में घूमते हुए दो प्रहरियों के बातचीत हो रही है जिससे कौरवों के राज्य-नाश एवं कुल-नाश का वर्णन होता है।

√ अचानक उन्हें कुरुक्षेत्र की दिशा में असंख्य गिद्धों का उड़ता हुआ समूह दिखाई पड़ता है जो उन्हें अपशकुन का सूचक प्रतीत होता है। उसी वक्त विदुर का प्रवेश होता है।

√ जो घटनाओं की जानकारी के लिए संजय की प्रतीक्षा करते हैं।

√ विदुर अंतःपुर में गांधारी और धतराष्ट्र के पास पहुँचता है। वहाँ पहुँचकर धृतराष्ट्र का ध्यान कौरवों के द्वारा किए गए मर्यादाहीन और अनैतिक आचरण की ओर वे आकृष्ट करते है। तब धृतराष्ट्र जीवन में पहली बार यह स्वीकार करते है कि जन्मांध होने के कारण वे मर्यादाओं के पालन में असफल रहे है।

√ विदुर उन्हें समझाते है कि यदि उनका ज्ञान ध्यान व्यक्तिनिष्ठ न होकर भगवान कृष्ण के प्रति अर्पित होता तो किसी भी प्रकार की आशंका न रहती ।

√ विदुर की यह बात सुनकर गांधारी आवेश में आकर कृष्ण को वंचक और मर्यादा का हत्यारा घोषित करती है और नैतिकता, मर्यादा, अनासक्ति आदि आदर्शों को पाखंड बताती है।

√  उसी वक्त जयकार करता हुआ एक वृद्ध याचक प्रवेश करता है यह वृद्ध वही ज्योतिषी है जिसने कौरव दल की विजय की बहुत पहले भविष्यवाणी की थी।

√ भविष्यवाणी गलत होने के कारण वह कृष्ण को मानता है, जिन्होंने अपने अनासक्त कर्म से नक्षत्रों की गति को मोड़ दिया।

√ इस अंक के अंत में दोनों प्रहरी कथागायन’ में कौरव  नगरी के सूनेपन को दर्शाया गया है।

★ दूसरा अंक :- पशु का उदय

√  संजय कृतवर्मा को अर्जुन द्वारा  कौरव दल के विनाश का समाचार सुनाता है कि स्वयं संजय के वध के लिए भी सात्यकि ने शस्त्र उठाया था, किन्तु व्यास उसे अवध्य बताकर मुक्त करा दिया।

√ संजय कृतवर्मा को भीम के साथ हुए गदा युद्ध में दुर्योधन के घायल होने की सूचना देता है तभी टूटे हुए धनुष को लेकर अश्वत्थामा प्रवेश करता है।

√  वह पांडवों द्वारा छलपूर्वक किए गए पिता द्रोणाचार्य के वध से विक्षुब्ध होने के कारण पांडवों के वध की प्रतिज्ञा करता है।

√  तभी वन मार्ग से आता हुआ संजय उसे दिखाई पड़ता है और वह उसका गला दबोच लेता है। तभी कृपाचार्य और कृतवर्मा लपककर संजय को अश्वत्थामा से मुक्त कराते हैं।

√ इसी समय अश्वत्थामा को कौरव नगरी से लौटता हुआ भविष्यवक्ता याचक दिखाई पड़ता है जिसका अश्वत्थामा तत्काल वध कर देता है।

√  अश्वत्थामा और कृतवर्मा को सोने का आदेश देकर कृपाचार्य स्वयं पहरा देने लगते हैं।

★ तीसरा अंक :-  अश्वत्थामा का अर्द्धसत्य

√ इस अंक के आरंभ में कथागायन के द्वारा युद्ध क्षेत्र से लौट रही  कौरव सेना का वर्णन किया गया है।

√ जिसमें केवल बूढ़े, घायल और बौने ही शेष रह गए थे।

√  हारी हुई घायल सेना के साथ आए हुए युयुत्सु को देखकर नगरवासी भयभीत हो उठते हैं।

√ युयुत्सु पांडवपाश की ओर से लड़ने ग्लानि से ग्रस्त दिखाई पड़ता है।

√  गांधारी युयुत्सु पर कठोर  व्यंग्य करती है तभी संजय गदा युद्ध में दुर्योधन की पराजय का समाचार लाते हैं।

√ अश्वत्थामा कृपाचार्य को बताता है कि भीम ने गदा युद्ध में अधर्मपूर्वक दुर्योधन की जंघाओं पर प्रहार किया जो गदा युद्ध के नियमों के विरुद्ध है।

√ वह आवेश में आकर पांडवों के वध की प्रतिज्ञा करता कृपाचार्य अश्वत्थामा को कौरव दल के सेनापति पद पर नियुक्त करते कृतवर्मा और कृपाचार्य को सोने का आदेश देकर सेनापति अश्वत्थामा स्वयं पहरा देने लगता है।

√ तभीं रात्रि के सन्नाटे में उसे एक वृक्ष पर एक उल्लू दिखाई पड़ता है जो सोये हुए कौवे पर आक्रमण करता है और उसका वध करके नाचने लगता है।

√ इससे यह स्पष्ट होता है कि, अश्वत्थामा पांडवों के वध की योजना मन में लेकर पांडव-शिविर की ओर प्रस्थान करता है।

★ अंतराल :- पंख, पहिये और पट्टियाँ

√ इसमें अश्वत्थामा द्वारा मारे गए वृद्ध याचक की प्रेतात्मा प्रवेश करती है।

√ युयुत्सु संजय, विदुर आदि पात्र प्रेतात्मा के पीछे खड़े होकर अपनी – अपनी आंतरिक असंगति से उत्पन्न पीड़ा को व्यक्त करने लगते हैं।

√ पांडव शिविर के द्वारा  पर एक विशालकाय दानव पुरुष के रूप में महादेव शिव अश्वत्थामा को शिविर में प्रवेश करने से रोकते दिखलाई पड़ते हैं।

★ चौथा अंक :-  गांधारी का शाप

√ इस अंक में आशुतोष महादेव अश्वत्थामा की स्तुति से प्रसन्न होकर उसे पांडव शिविर में प्रवेश करने की अनुमति देते है।

√ अश्वत्थामा धृतराष्ट्र शतानीक और शिखंडी की हत्या करता है।

√ जान बचाकर भागने की चेष्टा करते हुए शेष पांडव योद्धाओं को द्वारा पर स्थित कृतवर्मा और कृपाचार्य घाट उतार देते हैं।

√ कृपाचार्य के मुख से अश्वत्थामा द्वारा की पांडवों की विनाश लीला का वर्णन सुनकर गांधारी प्रसन्न होती है, किन्तु इसी बीच दुर्योधन की मृत्यु हो जाती है जिसका समाचार सुनकर यह मूर्छित हो जाती है।

√ इस अंक के मध्य दिए गए कथागायन में कौरव-वीरों के तर्पण के लिए युद्ध-भूमि की ओर प्रस्थान करते हुए युयुत्सु धृतराष्ट्र आदि का उल्लेख किया गया है।

√ अर्जुन के बाणों से घायल अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करता है।

√ कृष्ण के कहने पर अर्जुन अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र को काटने के लिए अपने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग करते है, किन्तु व्यास के कहने पर वे उसे वापिस लौटा लेते हैं।

√ अश्वत्थामा का ब्रह्मास्त्र उत्तरा के गर्भ पर गिरता है, किन्तु कृष्ण मृत शिशु को जीवित करने का आश्वासन देते है तथा अश्वत्थामा को शाप देते हैं कि वह पीप घावों से युक्त शरीरवाले दुर्गम स्थानों पर भटकता रहेगा।

√  उधर गांधारी युद्ध भूमि में दुर्योधन के अस्थिपंजर को देखकर कृष्ण को शाप देती है- ‘तुम स्वयं अपने वंश का विनाश करके किसी साधारण व्याध के हाथों मारे जाओगे।’

★ पाँचवाँ अंक :-  विजय – एक क्रमिक हत्या

√ इस अंक के आरंभ में कथागायन में पांडव राज्य की स्थापना का वर्णन किया गया।

√ कौरव-नगरी में युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हो जाता है।

√ भीम की कटुक्तियों से मर्माहत होकर धृतराष्ट्र तथा गांधारी वन चले जाते हैं।

√ युयुत्सु अपमानित होकर भाले से आत्महत्या का प्रयास करता है किन्तु सफल नहीं होता।

√ कुंती, गांधारी, धृतराष्ट्र एक भीषण दावाग्नि में भस्म हो जाते हैं।

★ समापन :- प्रभु की मृत्यु

√ झाडी के पीछे से निकलकर ‘जरा’ नामक व्याध कृष्ण के बाएँ पैर को मृग-मुख समझकर बाण चलाता है।

√ अश्वत्थामा प्रभु के शरीर से बहते हुए पीप भरे नीले रक्त को देखकर प्रसन्न होता है। उसे लगता है कि जैसे प्रभु ने अपने रक्त से उसकी पीड़ा को व्यक्त किया हो। उसके मन में प्रभु के प्रति आस्था का उदय होता है।

√ व्याध के कथन से स्पष्ट होता है कि प्रभु ने अपनी इच्छा से ही मृत्यु को वरण किया है व्याध द्वारा दुहराए गए प्रभु के शब्दों से ज्ञात होता है कि अंधे युग में प्रभु का अंश निष्क्रिय (संजय), आत्मघाती (युयुत्सु) और विगलित रहेगा तथा उनका दूसरा अंश मानव मन के उस मंगलकारी वृत्त निवास करेगा।

√ जो ध्वंसों पर नूतन निर्माण करेगा। नूतन सृजन निर्भयता में , साहस और मर्यादायुक्त आचरण में प्रभु बार-बार जीवित हो उठेंगे ।

√  लेखक ने कथा संवाद में अनेक पध्दतियों का सहारा लिया है, जिनके कारण कथा के गठन में अद्भुत आकर्षण उत्पन्न हो गया है।

 

◆ महत्वपूर्ण बिन्दु :-

★ नाटक की कथा :-  पौराणिक कथानक पर आधारित

★ महाभारत के कथानक पर आधारित नाटककार के आधुनिकताबोध एवं वैचारिकता से संपन्न एक श्रेष्ठ कृति है।

★ इसमें नाटककार ने महाभारत के 18 वें दिन की संध्या से प्रभासतीर्थ के कृष्ण के मृत्यु के क्षण तक की कथा को आधार बनाकर धर्म-अधर्म, पाप-पुण्य, सत्य-असत्य पर आधुनिक दृष्टिबोध से विचार किया है।

★ महाभारत के 18 वें दिन की संध्या से लेकर प्रभास-तीर्थ में कृष्ण की मृत्यु के क्षण तक।

★ अंधायुग नाटक की रचना धर्मवीर भारती ने रंगमंच पर प्रस्तुति के लिए ही की थी।

★ अंधायुग नाटक के लिखे जाने के उपरान्त सुमित्रानन्दन पंत की सलाह पर इसका रेडियो रूपान्तर प्रस्तुत किया गया जिसने इसके मंचन हेतु अपेक्षित आधार तैयार करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

★ अंधायुग का कथानक तो महाभारत की कथा से ही संबद्ध है पर इसका उददेश्य महाभारत की कथा की पुनरावृत्ति नहीं है। इसे आधुनिक परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत किया गया है।

★ अंधायुग की कथा का संबंध :-  महाभारत युद्ध की अठारहवें दिन की घटनाओं से है।

★  महाभारत का यह प्रसंग आत्मनिरीक्षण पर बल देता हुआ हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट कराता चलता है कि आज की स्थितियाँ महाभारत से कम विस्फोटक या विध्वंसक नहीं हैं।

★ अंधायुग नाटक में महाभारत की पृष्ठभूमि तो अवश्य है पर वह केवल अपना आभास मात्र कराने के लिए ही है। इस कलात्मक रचना में इसकी पृष्ठभूमि के माध्यम से कुछ गंभीर सवाल उठाए गये हैं जिनका उत्तर हमें पूरी ईमानदारी से जुटाने होंगे। महाभारत का यह प्रसंग आत्मनिरीक्षण पर बल देता हुआ हमारा ध्यान इस ओर आकृष्ट कराता चलता है कि आज की स्थितियाँ महाभारत से कम विस्फोटक या विध्वंसक नहीं हैं।

★ द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद के विश्व को एक दृष्टांत के बहाने दी गई चेतावनी यह है कि तीसरे विश्वयुद्ध के बाद शायद महाभारत के पुनरख्यान को दुहरानेवाला या यों कहें तो उसे सुनने सुनाने वाला शायद ही कोई बचेगा।

★ अंधायुग’ के संरचनात्मक स्वरूप को लेकर साहित्य के विद्वानों के बीच कुछ मतभेद है और काव्य नाटक की जगह नाट्यकाव्य, गीतिनाट्य, पद्य नाटक आदि नाम भी सुझाए गए हैं।

◆   धर्मवीर भारती ने ‘अंधायुग’ रचना की भूमिका में नाटक के रचनात्मक स्वरूप के विषय में पाँच बातें कही :-

1. सर्वप्रथम इन्होंने इसे ‘दृश्यकाव्य’ कहा ‘इस दृश्यकाव्य में जिन समस्याओं को उठाया गया।

2. आगे उन्होंने इसे छन्द बदलने वाला लंबा ‘नाटक’ बताया : ‘इस लंबे नाटक में छंद बदलते रहना आवश्यक प्रतीत हुआ ।’ यहाँ ‘दृश्यकाव्य’ की जगह ‘नाटक’ शब्द ने ले ली।

3. पुनः वे इसे गीतिनाट्य बताते हैं : ‘वह न केवल इन गीतिनाट्यों वरन् समस्त नयी कविता…..

4. आगे वे इसे ‘काव्य’ कहते हैं : ‘मूलतः यह काव्य रंगमंच को दृष्टि में रखकर लिखा गया… .

5. अंत में वे इसे लोकनाट्य भी बताते हैं, ‘मंच विधान को थोड़ा बदलकर यह खुले मंच वाले लोकनाट्य में भी परिवर्तित किया जा सकता है।

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3 comments

  1. Suresh Kumar Prajapati

    उत्कृष्ट संकलन!

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