अजपाजप(ajapa japa) शब्द का अर्थ और विवेचन

             💐अजपा जप💐 

” आध्यात्मिक मार्ग में ईश्वर के किसी भी नाम का ध्यानपूर्वक निरंतर रटन करना ” जप या जाप ” कहलाता है

जाप तीन प्रकार के होते है

1 – वाचिक जाप ( बोल कर जपना जिसे दूसरे लोग भी सुन सकते है

2 – उपांशु जाप ( होठ हिले पर दूसरे लोग नही सुन सके , धीमी आवाज में )

3 – मानस जाप ( कंठ जीभ और होठ न हिले , मन ही मन जपना )

मानस जाप इन सबमें सर्वश्रेष्ठ हे , इसे जपो का राजा कहा जाता है
परंतु जब साधक निरंतर साधना के द्वारा इन सबसे ऊपर की अवस्था में चौथी अवस्था में पहुंचता है उसे ” अजपा जप ” कहते है ।

जैसा कि इसके नाम से स्पष्ट है की इसमें कुछ जपने का प्रयास नही किया जाता बल्कि सहज ही श्वासो की लय के साथ नस नाडियो में नाम चलता रहता है

निष्कर्ष रूप में कह सकते हे की ” जाप ” ओर अजपा जाप दोनो में शब्द की समानता भले ही हो पर दोनो में कोई सीधा संबंध नही है

एक भक्ति की शुरुआत है और दूसरा भक्ति की उच्चतम अवस्था ।

” अनुराग सागर नामक ग्रंथ में इससे संबंधित एक पंक्ति भी आई है – “
जाप अजपा हो सहज ध्वनि ,
परखी गुरुगम धारिए
होत जप रसना विना
करमाल बिंदु निर्वारीय “

 

       💐 अजपा जाप शब्द का अर्थ 💐

★ कबीर का कहना है-‘मेरा मन जब राम का स्मरण करता है तब वह राममय हो जाता है इस प्रकार जब मन राम ही हो गया तो फिर मैं किसके सामने अपना शिर झुकाऊं?”

★  सुमिरन तीन प्रकार का होता है:-

1.   ‘जाप’ :- जो कि बाह्य क्रिया होती है।
2.   ‘अजपा जाप’ :- जिसके अनुसार साधक बाहरी जीवन का परित्याग कर आभ्यंतरिक जीवन में प्रवेश करता है।
3.  ‘अनाहत’ :- जिसके द्वारा साधक अपनी आत्मा के गूढ़तम अंश में प्रवेश करता है जहाँ पर अपने आप की पहचान के सहारे वह सभी स्थितियों को पार कर अंत में कारणातीत हो जाता है।

★ इन क्रमों की ओर कबीर ने इस प्रकार संकेत किया है-‘जाप मर जाता है अजपा- जाप भी नष्ट हो जाता है और अनाहत भी नहीं रह जाता, जब सुरति शब्द में लीन हो जाती है तब उसका जन्म व मरण के चक्कर का भय – छूट जाता है।

मेरा मन सुमिरे राम को, मेरा मन रामहि पाहि ।
जब मन रामै है रहा, सीस नवावों काहि ॥

जाप मरे अजपा मरे, अनहद हू मरि जाइ ।
सुरत समानी शब्द में, ताहि काल नहिं खाइ ।।

            💐 अजपा जाप 💐

•  यह जाप का ही एक स्वरूप है ।

•  कभी कभी इसे सहज जाप भी कह दिया जाता है।

•  इसमें न तो नाम का उच्चारण किया जाता है और
   न होठ हिलते हैं।

• इसमें न अँगुलियां हिलती है और न माला पर
   उपयोग ही होता है।

• केवल अन्तक्रिया होती रहती है।

• बौद्ध सिद्धा की साधना पद्धति में श्वासों का निरोध
  करके चडाग्नि प्रज्वलित की जाती थी।

• ‘एव’ बीजाक्षर को ध्यान में लाकर इस प्रकार
    साधना की जाती थी।

• जिससे यह शब्द प्रत्येक श्वास-प्रश्वास में स्वत
  निकलने लग जाय। इसे अजपा जाप का नाम दिया जाता था।

• इसमें तांत्रिक बीजार्थ तथा हठयोग दोनों का समन्वय हो जाता था और नाम-स्मरण का परम्परागत विधान भी आ जाता था ।

• कहा जाता है कि नाथपंथ में इसी साधना के पीछे अजपा जाप का नाम प्राप्त किया।

• इसमें मन को शून्य में  निहित कर दिया जाता है और ‘एव’ वे स्थान पर ‘सोऽहम्’ का ध्यान किया जाता है।

•  इसी ‘सोऽहम्’ शब्द-ज्योति प्रकट होती है और अन्तर एवं बाहर प्रकाश हो जाता है।

• कबीर ने ‘सोऽहम्’ का परित्याग तो नही किया किन्तु उनके ध्यान का केन्द्र बिन्दु प्राय ‘राम हो रहा है।

•  कबीर के ‘अजपा जाप’ की चरम परिणति ‘आपा माह आप’ में हाती है।

•’अजपाजप’ ध्यान-रूप है।

•   ध्यान को नाम में लगा देना ‘अजपा जाप’ की वह स्थिति है जो ‘सुरति’ की समकक्ष है।

• उसकी एक स्थिति यह है जिसमें ध्यान, ध्यय और ध्याता निरालब दशा में विलीन हो जाते हैं।

• अजपाजप अभ्यास से बनता है और आत्मस्वरूप में डूब जाता है। यही सहज जाप भी है।

( कबीर एक विवेचन,डा० सरनामसिंह शर्मा)

 

           💐 अजपाजाप 💐 

• नाम स्मरण की एक पद्धति है।

•  इसमें जप के बाह्य साधनों, जैसे भाला फेरना, उँगलियों पर गिनते हुए उच्चारण करना आदि को त्यागकर श्वास-प्रश्वास की अंतःक्रिया के द्वारा जप किया जाता है।

• इसी को सिद्धों ने ‘वज्रजाप’ और नाथयोगियों ने ‘अजपाजाप’ नाम दिया है।

• सिद्धों की साधना में चंडाग्नि’ प्रज्वलित करके ‘एवम् बीजाक्षर का जाप किया जाता था।

•  नाथपंथियों में यह एवम्’ के स्थान पर सोहम्’ के रूप में प्रचलित हुआ।

• उनके अनुसार इस प्रकार के जाप के द्वारा इंद्रियों का निग्रह संभव है।

• सिद्धों के अनुसार इस जाप के द्वारा ‘णिरक्खर’ (निरक्षर) या शून्यावस्था की भी सिद्धि होती है।

• कबीर तथा अन्य संत भी इस जप की मूल भावना को स्वीकार करते हैं। इसे ‘सहज जप’ भी कहा गया है, यद्यपि इसकी साधना सरल नहीं है।

• वस्तुतः अजपाजाप का लक्ष्य चित्तवृत्ति का निरोध करते हुए तन्मय भाव से सहज जप है।

• यह एक प्रकार से साधक और साध्य की एकता का मार्ग है।

•  जब साधक का ध्यान शब्दों को दुहराने या अन्य वाह्य क्रियाओं से हटकर इतना सहज हो जाता है कि श्वास क्रिया के साथ वह स्वतः एकाकार हो जाता है तो अजपाजाप की स्थिति होती है।

•  इसमें अपने इष्ट या साध्य के सानिध्य की अनुभूति निरन्तर होती रहती है।

(कबीर , विश्वनाथ प्रसाद तिवारी)

 

One comment

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