💐💐 आषाढ़ का एक दिन 💐💐
◆ नाटककार :- मोहन राकेश
◆ लिखा गया :- 3 मार्च से 21 अप्रैल 1958 ई. के बीच
◆ प्रकाशन :- जून 1958 ई.
◆ अंक :- तीन अंक
◆ दृश्य :- एक (मल्लिका के घर का )
◆ आषाढ़ का एक दिन मोहन राकेश का पहला नाटक है।
◆ आषाढ़ का एक दिन नाटक को आधुनिक युग का प्रथम नाटक भी कहा जाता है।
◆ आषाढ़ का एक दिन महाकवि कालिदास के निजी जीवन पर आधारित है।
◆ आषाढ़ का एक दिन का परिवेश ऐतिहासिक है, परंतु उसमें आज की आधुनिक समस्याओं को प्रस्तुत किया गया है।
◆ नाटक के पात्र :-
★ पुरुष मात्र :-
1. कालिदास (कवि, नायक)
2. दन्तुल (राजपुरुष)
3. मातुल (कवि-मातुल)
4. निक्षेप ( ग्राम पुरुष)
5. विलोम (ग्राम पुरुष, कालिदास के बचपन का मित्र ,खलनायक)
6. अनुस्वार (अधिकारी)
7. अनुनासिक (अधिकारी)
★ स्त्री पात्र :-
1. अम्बिका (ग्राम की एक वृद्धा,मल्लिका की माँ)
2. मल्लिका (अम्बिका की पुत्री , कालिदास की प्रेयसी, नायिका)
3. रंगिरणी (नागरी)
4. संगिनी (नागरी)
5. प्रियंगुमंजरी ( राजकन्या – कवि पत्नी,कालिदास की पत्नी,सहनायिका)
◆ नाटक में प्रतीक योजना :-
★ कालिदास :- सृजनात्मक शक्तियों का प्रतीक
★ मल्लिका :- कालिदास की आस्था का प्रतीक है।
★ घायल हरिशावक :- कालिदास की कोमल भावना और संवेदनशीलता का प्रतीक
◆ दृश्य योजना :-
★ आषाढ़ का एक दिन नाटक में एक ही दृश्य है और वह मल्लिका के घर का है।
★ दूसरे और तीसरे अंक में दृश्य योजना में सिर्फ इतना परिवर्तन हुआ है कि पलंग पर बिछी चादर कुछ ज्यादा फट गई है और दो दीपकों के स्थान पर एक दीपक रह गया है।
★ दृश्य विधान बेहद सरल है जिसे आयोजित करने में निर्देशक को कोई समस्या नहीं होती।
◆ आषाढ़ का एक दिन का मंचन :-
1. अनामिका, कलकता 【निर्देशक – श्यामानंद जालान ,1959ई.】
2. राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, नई दिल्ली【 निदेशक – इब्राहीम अल काफी ,1962 ई.】
3. थिएटर युनिट ,बंबई【 निर्देशक- सत्यदेव दुबे 1964 ई.】
4. प्रयाग रंगमंच, इलाहाबाद 【 निर्देशक – सत्यव्रत सिन्ध 1965 ई.】
5. रंगवाणी, कानपुर 【निर्देशक – असित डेनियल्स ,1967 ई.】
6. दिशांतर, नयी दिल्ली【 निर्देशक – ओम शिवपुरी 1973 ई.】
7. रूपांतर, गोरखपुर 【निर्देशक – गिरिश रस्तोगी 1974 ई.】
◆ नाटक का सारांश :-
★ कथा का आरंभ आषाढ़ की मूसलधार वर्षा से प्रकृति के सुन्दर वातावरण में होता है।
★ इस नाटक की नायिका गाँव की बाला मल्लिका वर्षा में खूब भीगकर और प्रेम से पुलकित होकर अपने घर आती है।
★ मल्लिका की विधवा माँ अम्बिका अपनी पुत्री को भीगकर आते देखकर उसके प्रति अधिक अनुराग होने के कारण क्रोधित होती है।
★ कालिदास इस नाटक का नायक है वह अपने मामाजी मातुल के यहाँ रहता है। वह भावना सम्पन्न एवं प्रकृति प्रेमी है।
★ कालिदास और मल्लिका एक दूसरे से प्रेम से अनुरक्त होते हैं ।
★ मल्लिका का कालिदास के साथ पर्वतमालाओं में घूमना अम्बिका को अच्छा लगता नहीं है । क्योंकि अम्बिका अपनी बेटी की लोक-निंदा का कारण कालिदास को मानती है अतः वह उसे पसन्द भी करती नहीं है।
★ अम्बिका अपनी पुत्री का विवाह कहीं दूसरी ओर करवाना चाहती है लेकिन माँ के विवाह संबंधी विचारों से मल्लिका सहमत नहीं होती है। क्योंकि वह कालिदास से प्रेम करती है साथ ही वह स्वतन्त्रता प्रेमी थी ।
★ माँ के समान मल्लिका के मन में कालिदास के प्रेम को लेकर बदनामी का कोई भय नहीं होता है ।
★ वह अपनी माँ के वचनों की भी कोई चिंता नहीं करती है। मल्लिका अपनी माँ की भावनाओं को समझती है।
★ कालिदास एक दिन उज्जैन के पर्वत शिखरों की मनोहारिणी छटा को निहार कर मुग्ध हो गए थे।
★ वह ग्रामीण बालक अपने शैशवकाल की चिरसंगिनी मल्लिका के साथ उस सुहावनी ऋतु की शोभा देखकर प्रकृति प्रेम के कारण तन्मय हो रहा था।
★ समीपवर्ती प्रदेश में सहसा एक मृग-शावक को किसी वधिक ने बाणों से विद्ध कर दिया।
★ मृग-शावक की दयनीय दशा देखकर कालिदास का करुणामय हृदय द्रवित हो उठा और उस आहत मृग-शावक को अपने पुष्ट कंधों पर रखकर वे अपनी चिरपरिचित ग्रामीण बालिका मल्लिका के घर ले गए।
★ दोनों उपचार कर ही रहे थे कि राज्याधिकारी वधिक ने वहां आकर इन दोनों की भर्त्सना करनी प्रारम्भ कर दी ।
★ जब राजकर्मचारी दन्तुल ने मल्लिका और कालिदास को अपनी तीखी तलवार से भयभीत करते हुए मृग-शावक की प्राप्ति के लिए दुराग्रह किया तो मल्लिका ने उत्तर दिया: “ठहरो राजपुरुष ! तुम्हारे लिए प्रश्न अधिकार का है, उनके लिए संवेदना का। कालिदास निःशस्त्र होते हुए भी तुम्हारे शस्त्र की चिन्ता नहीं करेगे।”
★ यह स्थिति बड़ी नाटकीय है। वास्तव में उज्जयिनी के महाराज ने दन्तुल को दूत – रूप से इसलिए भेजा था कि वह कवि कालिदास को राजसभा में अपने साथ ले आए ।
★ दन्तुल मल्लिका की इस वाणी से हतप्रभ रह गया। उसने प्रार्थना की कि कालिदाम के काव्य ‘ऋतुसंहार’ की ख्याति महाराज के कानों तक पहुंच चुकी है।
★ अतः उन्होंने इस कवि को राजसभा में आमंत्रित किया है।
★ मल्लिका और उसकी वृद्धा माता अम्बिका को आनन्द के साथ परम विस्मय भी हुआ।
★ कालिदास अपनी प्रिय ग्राम्यभूमि और चिरसंगिनी मल्लिका का त्याग नही करना चाहते थे, पर मल्लिका की प्रेरणा से उन्होंने उज्जयिनी जाना स्वीकार कर लिया।
★ नाट्यकार ने बड़े कौशल से इस स्थल पर कालिदास के बाल्यकाल की विषम परिस्थितियों की ओर संकेत किया है।
★ मल्लिका कहती है “तुम जानती हो कि उनका जीवन परिस्थितियों की कैसी विडम्बना में बीता है। मातुल (कवि-मातुल) के घर में उनकी क्या दशा रही है ? उस साधनहीन और अभावग्रस्त जीवन में विवाह की कल्पना ही क्योंकर की जा सकती थी ?”
★ यही मल्लिका की माता अम्बिका एक प्रकार से भविष्यवाणी करती है “किसी सम्बन्ध से बचने के लिए अभाव जितना बड़ा कारण होता अभाव की पूर्ति उससे बड़ा कारण बन जाती है।”
★ इस निमंत्रण का प्रभाव कवि कालिदास पर विलक्षण ही पड़ा।
★ वे तो काली मन्दिरों में उपासना-मग्न हो गए।
★ राजसम्मान की उन्हें लेशमात्र भी अभिलाषा न थी ।
★ वे अपने ग्रामीण जीवन के सुखमय साहचर्य से वंचित नहीं होना चाहते थे । किन्तु मल्लिका की प्रेरणा से उन्होंने राजसम्मान को स्वीकार कर उज्जयिनी को प्रस्थान किया।
★ मल्लिका से परिणय की आशा लगानेवाला विलोम कालिदास की विदा पर माता अम्बिका से वार्तालाप करता है।
★वह कालिदास के साथ वार्तालाप करके यह स्पष्ट करा लेना चाहता है कि कालिदास का अकेले ही उज्जयिनी जाना कहां तक उचित है।
★ इस अवसर पर मल्लिका और विलोम के वार्तालाप से यह संकेत मिलने लगता है कि माता अम्बिका के ही प्रोत्साहन से विलोम मल्लिका के साथ प्रणय सूत्र में बंधने की आशा कर रहा था, किन्तु मल्लिका उसे एक अनचाहे अतिथि के रूप में ही स्वीकार करना चाहती थी।
★ कालिदास उज्जयिनी को प्रस्थान करते हैं किन्तु उनका हृदय जैसे बोझिल हो जाता है। उस समय उनके हृदय-भार को हल्का करते हुए मल्लिका कहती है “विश्वास करो, तुम यहां से जाकर भी यहां से विच्छिन्न नहीं होओगे। यहां की वायु, यहां के मेघ और यहां के हरिण, इन सबको तुम साथ ले जाओगे। और मैं भी तुमसे दूर नहीं रहूंगी। जब भी मैं तुम्हारे निकट होना चाहूंगी, पर्वत शिखर पर चली जाऊंगी और उड़करते हुए मेघों में घिर जाया करूंगी।”
★ कालिदास की प्रस्थान-वेला में मल्लिका के नेत्रों से अश्रुधारा उमड़ने लगती है तो मां की गोद में मुंह ढक वह बैठ जाती है।
★ यहीं प्रथम अंक समाप्त कालिदास उज्जयिनी की राजसभा में सम्मानित होकर काव्य-रचना में व्यस्त जाता है। रहने लगे।
★ उनकी काव्य-प्रतिभा पर रीझकर राजा ने अपनी कन्या प्रियंगुमंजरी से विवाह कर दिया और उन्हें काश्मीर का शासक नियुक्त किया।
★ कालिदास के साथ राजवैभव चला। मार्ग में प्रियंगुमंजरी कालिदास के ग्राम का दर्शन करते हुए गई ।
★ उसने मल्लिका के उस जर्जर गृह की यात्रा की और उसे नवीन रूप देने का प्रयास किया, किन्तु मल्लिका ने यह सब स्वीकार नहीं किया।
★ प्रियंगु और मल्लिका का इस अवसर पर वार्तालाप बड़ा ही प्रभावोत्पादक है।
★ प्रयंगु मल्लिका से कहती ” मैं उनसे जान चुकी हूं कि तुम शैशव से उनकी संगिनी रही हो । उनकी रचनाओं से तुम्हारा मोह स्वाभाविक है।”
★ प्रियंगु मल्लिका को अपने साथ काश्मीर चलने के लिए बाध्य करना चाहती है किन्तु मल्लिका किसी प्रकार साथ जाने को तैयार नहीं होती।
★ नवीन भवन बनाने के आग्रह को भी यह कहकर टाल देती है “ऐसा मत कीजिए। इस घर को गिराने का आदेश मत दीजिए ।”
★ ग्रामीण युवक विलोम के मनोभावों के द्वारा नाट्यकार ग्रामीण जनता की मनोवृत्ति को अभिव्यंजित करता है।
★ विलोम नगरवासियों का परिहास भी करता है और उनके वैभव पर चकित भी होता है।
★ वह मल्लिका के घर में बैठकर राजपुरुषों को समीप से देखना चाहता है।
★ उसे आशा है कि काश्मीर के मनोनीत शासक उसके पुराने सखा राजकवि कालिदास आज मल्लिका के आवास पर अवश्य पधारेंगे।
★ मल्लिका बार-बार विलोम को चले जाने का आदेश देती है, किन्तु वह अपने संकल्प पर दृढ़ रहता है। पर कालिदास नहीं आते।
★ माता अम्बिका मल्लिका को समझाती है कि कालिदास का इस जर्जर घर में आना आश्चर्यजनक घटना होगी।
★ उसके न आने में आश्चर्य कहां ! वह कहती है “अब भी रोती हो ? उसके लिए ? उस व्यक्ति के लिए जिसने…?” मल्लिका उसके सम्बन्ध में कुछ मत कहो मां, कुछ मत कहो। (सिसकती रहती है ) नाटक का द्वितीय अंक यहीं समाप्त हो जाता है।
★ कई वर्ष व्यतीत हो जाते है और काश्मीर में विद्रोह शुरू होती है ।
★ शत्रुओं से घायल एक सैनिक, मल्लिका ग्राम स्थित कवि मातुल को सूचना देता है कि कालिदास ने संन्यास ले लिया।
★ मल्लिका इसे स्वीकार नहीं करती और कालिदास के ग्रन्थों का स्वाध्याय करती रहती है।
★ उज्जयिनी के व्यवसायियों के माध्यम से वह कालिदास के सभी ग्रंथों को मंगाकर पढ़ती रहती है।
★ उज्जयिनी के व्यवसायियों ने मल्लिका को यह भी बताया कि कालिदास पर वारांगना-प्रेम का अपवाद लगा है।(वारांगना का अर्थ :- वेश्या)
★ आषाढ़ के वे ही दिन थे। रिमझिम वर्षा हो रही थी, उसी प्रकार मेघ गरज रहे थे, बिजली चमक रही थी।
★ इसी समय राजकीय वस्त्रों में परन्तु क्षत-विक्षत से कालिदास मल्लिका के गृह में प्रविष्ट होते हैं। मल्लिका चकित रह जाती है।
★ इस स्थल पर दोनों का वार्तालाप कवि कालिदास के वास्तविक रूप को इस प्रकार प्रकट करता है:
√ मल्लिका : आर्य मातुल ने आज ही बताया था कि तुमने काश्मीर छोड़ दिया है ।
√ कालिदास : हां, क्योंकि सत्ता और प्रभुता का मोह छूट गया है। आज मैं उस सबसे मुक्त हूं जो वर्षों से मुझे कसता रहा है। काश्मीर में लोग समझते है कि मैंने संन्यास ले लिया। परन्तु मैंने संन्यास नहीं लिया। यहां की एक-एक वस्तु में जो श्रात्मीयता थी वह यहां से जाकर मुझे कहीं नहीं मिली। मुझे यहां की एक-एक वस्तु के रूप और आकार का स्मरण है ।
★ कवि यहां अपनी काव्य प्रेरणा का स्रोत बताते हुए कहता है: “मैं जानता हूं कि मैंने वहां रहकर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है वह यहां के जीवन का ही संचय था।”
★ ‘कुमारसम्भव’ की पृष्ठभूमि यह हिमालय है और तपस्विनी उमा तुम हो ।
★ ‘मेघदूत’ के यक्ष की पीड़ा मेरी पीड़ा है और विरह-विर्मादता यक्षिणी तुम हो ।
★ ‘अभिज्ञान शाकुन्तल’ में शकुन्तला के रूप में तुम्हीं मेरे सामने थीं ।
★ ‘रघुवंश’ में अज का विलाप भी मेरी ही वेदना की अभिव्यक्ति थी ।”
★ वार्तालाप करते-करते मल्लिका सिले हुए पत्रों को भेंट के रूप में प्रदान करते हुए कहती है ये पत्र मैंने अपने हाथों से बनाकर सिये थे। सोचा था तुम राजधानी से आओगे तो मैं तुम्हें भेंट दूगी। कहूंगी कि इन पृष्ठों पर अपने सबसे बड़े महाकाव्य की रचना करना । परन्तु उस बार तुम आकर भी नहीं आए और यह भेंट यही पड़ी रही।
★ कालिदास पन्ना उलटते हुए उन पर अश्रुबिन्दुओं के चिह्न, स्वेदकरणों का प्रमाण,
फूलों की सूखी पत्तियों के रंग देखकर कहते है :
“ये पृष्ठ अब कोरे कहां है मल्लिका ? इनपर एक महाकाव्य की रचना हो चुकी है’ ‘अनन्त सर्गों के एक महाकाव्य की। इन पृष्ठों पर अब नया कुछ क्या लिखा जा सकता है। परन्तु इससे आगे भी तो जीवन शेष है। हम फिर अथ से प्रारम्भ करते हैं । “
★ इतने ही में विलोम का प्रवेश होता है । ऐसा प्रतीत होता है कि माता अम्बिका के आग्रह से विलोम के साथ मल्लिका का परिणग्रहरण हो जाता है और उनके गृह में एक शिशु का क्रीड़ा-कोलाहल सुनाई पड़ता है।
★ अन्त में कालिदास प्रस्थान करता है और मल्लिका अपने नवजात शिशु को गोद में लेकर चूमने लगती है ! यहीं नाटक समाप्त होता है ।
◆ नाटक के महत्वपूर्ण कथन :-
(1.) “आषाढ़ का पहला दिन और ऐसी वर्षा माँ !…ऐसी धारासार वर्षा । दूर-दूर तक की उपत्यकाएँ भीग गयीं ।… और मैं भी तो ! देखो न माँ, कैसी भीग गयी हूँ ।”( मल्लिका अपनी माँ अम्बिका से कहती है)
(2.) “वह तुम्हें तुम्हारी भावना का मूल्य देना चाहता है, तो क्यों नहीं स्वीकार कर लेती ? घर की भित्तियों का परिसंस्कार हो जाएगा और तुम उनके यहाँ परिचारिका बनकर रह सकोगी । इससे बड़ा और क्या सौभाग्य तुम्हें चाहिए ?”(अम्बिका का कथन)
(3.)”मैंने भावना में एक भावना का वरण किया है ।मेरे लिए वह सम्बन्ध और सब सम्बन्धों से बड़ा है । मैं वास्तव में अपनी भावना से प्रेम करती हूँ जो पवित्र है, कोमल है, अनश्वर है….।”( मल्लिका अपनी माँ अम्बिका से कहती है)
(4.) “जिसे तुम भावना कहती हो वह केवल छलना और आत्मप्रवंचना है। उससे जीवन की आवश्यकताएँ किस तरह पूरी होती है।” (अम्बिका का कथन)
(5.) “मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ ।” (कालिदास का कथन)
(6.)”विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास और कालिदास ? एक सफल विलोम।”(विलोम से मल्लिका कहता है।)
(7.) “नहीं ! बिदा तुम्हें नहीं दूंगी ! जा रहे हो, इसलिए केवल प्रार्थना करूंगी कि तुम्हारा पथ प्रशस्त हो ।” (मल्लिका कालिदास से कहती है)
(8.) “शब्द और अर्थ राजपुरुषों की सम्पत्ति है, जानकर आश्चर्य हुआ।” (दन्तुल का कथन कालिदास के संबंध में)
(9.) “वह व्यक्ति आत्म-सीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है। जहाँ तक मल्लिका से उसके प्रेमाकर्षण या मोह का प्रश्न है।”(अम्बिका का कथन कालिदास के प्रति)
(10.) “तुम्हारे साथ उनका इतना ही सम्बन्ध है कि तुम एक उपादान हो जिसके आश्रय वह अपने से प्रेम कर सकता है, अपने पर गर्व कर सकता है।”(अम्बिका मल्लिका से कहती है)
(11.) “मैं यहाँ से क्यों नहीं जाना चाहता था? एक कारण यह भी था कि मुझे अपने पर विश्वास नहीं था। मैं नहीं जानता था कि अभाव और भर्त्सना का जीवन व्यतीत करने के बाद प्रतिष्ठा और सम्मान के वातावरण में जाकर मैं कैसा अनुभव करूँगा।” (कालिदास मल्लिका से कहता है)
(12.) “तुम्हें बहुत आश्चर्य हुआ था कि मैं कश्मीर का शासन सम्भालने जा रहा हूँ? परन्तु मुझे इसमें कुछ भी अस्वाभाविक प्रतीत नहीं होता, अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी सम्भवतःनहीं होता, अभावपूर्ण जीवन की वह एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया थी। सम्भवतः उसमें कहीं उन सबसे प्रतिशोध लेने की भावना भी थी जिन्होंने जब-तब मेरी भर्त्सना की थी, मेरा उपहास उड़ाया था। “
(कालिदास अपने कश्मीर जाने के प्रसंग में मल्लिका से कहता है)
(13.)“इस प्रदेश में हरिणों का आखेट नहीं होता राजपुरुष ! तुम बाहर से आये हो, इसलिए इतना ही पर्याप्त है कि हम इसके लिए तुम्हें अपराधी न माने ।”(कालिदास दन्तुल से कहता है)
(14.) “वह व्यक्ति आत्म-सीमित है। संसार में अपने सिवा उसे और किसी से मोह नहीं है।” (अम्बिका दन्तुल से कह रही है कालिदास के प्रति)
(15.) “जीवन की स्थूल आवश्यकताएँ ही तो सब कुछ नहीं हैं। उनके अतिरिक्त भी तो बहुत कुछ है।” (मल्लिका का कथन)
(16.)” क्या अधिकार है उन्हें कुछ भी कहने का ? मल्लिका का जीवन उसकी अपनी संपत्ति है। वह उसे नष्ट करना चाहती है तो किसी को उस पर आलोचना करने का क्या अधिकार है ?”
(मल्लिका का कथन)
(17.) “मैं यद्यपि तुम्हारे जीवन में नहीं रही परंतु तुम मेरे जीवन में सदा बने रहे हो। मैंने कभी तुम्हें अपने से दूरे नहीं होने दिया। तुम रचना करते रहे और मैं समझती रही कि मैं सार्थक हूँ, मेरे जीवन की भी कुछ उपलब्धि है ” (मल्लिका कालिदास से कहती है)
(18.) “जानती हूँ कि कोई भी रेखा तुम्हें घेर ले, तो तुम घिर जाओगे। मैं तुम्हें घेरना नहीं चाहती” (मल्लिका कालिदास से कहती है)
(19.) “मैंने बार- बार अपने को विश्वास दिलाना चाहा कि कमी उस वातावरण में नहीं, मुझमें है। मैं अपने को बदल लूँ तो सुखी हो सकता हूँ। परंतु ऐसा नहीं हुआ। न तो मैं बदल सका, न सुखी हो सका। और एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। ” (कालिदास का कथन)
(20.) “ मैं अपने को आश्वासन देता रहा कि आज नहीं तो कल मैं परिस्थितियों पर वश पा लूंगा और समान रूप से दोनों क्षेत्रों में अपने को बाँट दूंगा। परन्तु मैं स्वयं ही परिस्थितियों के हाथों बनता और चालित होता रहा।… और एक दिन… एक दिन मैंने पाया कि मैं सर्वथा टूट गया हूँ। मैं वह व्यक्ति नहीं हूँ जिसका उस विशाल के साथ कुछ भी संबंध था। “(कालिदास का कथन)
(21.)“मैं जानता हूँ मैंने वहाँ रहकर कुछ नहीं लिखा। जो कुछ लिखा है, वह यहाँ के जीवन का ही संचय है… मेघदूत के यक्ष की पीड़ा मेरी ही पीड़ा है और विरह विमर्दित यक्षिणी तुम हो।” (कालिदास मल्लिका से कह रहा है )
(22.)“यह वास्तव में प्रसन्नता का विषय है कालिदास कि हम दोनों एक-दूसरे को इतनी अच्छी तरह समझते हैं। हम दोनों एक-दूसरे के बहुत निकट हैं।” (विलोम का कथन)
(23.) “मैं अनुभव करता हूँ कि यह ग्राम प्रान्तर मेरी वास्तविक भूमि है। मैं कई सूत्रों से इस भूमि से जुड़ा हूँ। उन सूत्रों में तुम हो, यह आकाश और ये मेघ हैं, यहाँ की हरियाली है, हरिणों के बच्चे हैं, पशुपाल हैं। यहाँ से जाकर मैं अपनी भूमि से उखड़ जाऊँगा।”(कालिदास का कथन)
(24.) ” मैं यहाँ का कुछ वातावरण साथ ले जाना चाहती हूँ… कुछ हरिणशावक जाएंगे जिनका हम अपने उद्यान में पालन करेंगे। यहाँ की औषधियाँ उद्यान के क्रीड़ा शैल पर तथा आसपास के प्रदेश में लगवा दी जाएंगी।” ( प्रियंगुमंजरी का कथन)
(25.) “मेरी समझ में नहीं आता कि इसमें क्रय-विक्रय की क्या बात है । सम्मान मिलता है ग्रहण करो । नहीं कविता का मूल्य ही क्या है ? उसकी भौतिक दृष्टि कविता को, कवि को महत्व नहीं देती,महत्व देती है — सत्ता को, राज्य को, राजकीय सम्मान को।”( कालिदास द्वारा राजकीय सम्मान को स्वीकार न करने की बात सुनकर मातुल कहता है।)
◆ महत्वपूर्ण बिन्दु :-
★ कालिदास की प्रसिद्ध रचना मेघदूत में एक प्रसिद्ध कथन के रूप में ‘आषाढस्ये प्रथम दिवसे’ का प्रयोग हुआ है और उसी नाम से मोहन राकेश ने शीर्षक दिया है।
★आषाढ़ का एक दिन अस्तित्ववादी दृष्टिकोण पर आधारित नाटक है ।
★ यह नाटक अनेक गुणों से आधुनिक नाट्य-साहित्य में अपनी विशेषता रखता है ।
★ यह नाटक तीन काल संदर्भों को परस्पर जोड़ता है । पहला काल खण्ड कालिदास के समय का है, दूसरा इसके रचनाकाल अर्थात् 1958 ई. का है और तीसरा आज का है।
★ यह नाटक अस्तित्ववाद और आधुनिक भावबोध के नजरिये से प्रेरित होकर लिखा गया है।
★ नाटक में व्यक्त मूल समस्या :- व्यक्तित्व के विखण्डन,आत्मनिर्वासन और विसंगतिपूर्ण जीवन की है।
★ मल्लिका उस विलोम की ‘पत्नी’ बनने को बाध्य होती है जिसे कभी वह ‘अयाचित अतिथि’ मानती आई थी और अब जिसके साथ अपने सम्बन्ध को लेकर वह अपने को वारांगना कहती है। मल्लिका बाहर से टूटकर भी अन्दर से कालिदास से जुड़ी रहती है।
★ नाटक में आषाढ़ का महत्व तब समझ आता है जब कालिदास गाँव में लौटकर ग्रामीण जीवन के प्रति अपनी सम्बद्धता को आषाढ़ के माध्यम से ही व्यक्त करता है।
★ आषाढ़ का एक दिन’ का बीज वाक्य :- ‘विलोम क्या है? एक असफल कालिदास! और कालिदास ? एक सफल विलोम “है।
इस कथन के माध्यम से मोहन राकेश ने संकेत किया है कि किसी भी मनुष्य की पहचान जिन गुणों व अवगुणों से होती है, वे उसकी निजी संपत्ति न होकर उसकी सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों के उपोत्पाद होते हैं।
★ नाटक का आरंभ जिस प्रकार की आषाढ़ की वर्षा में हुआ था उसी प्रकार अंत भी वर्षा में होता है।
★’आषाढ़ का एक दिन’ नाटक को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार से सम्मानित (1959 ई.) किया गया था।
★ ‘आषाढ़ का एक दिन’ नाटक पर निर्देशक मणि कौल ने 1971 में फिल्म बनाई । इस फिल्म को फिल्मफेयर पुरस्कार से नवाजा गया।
★ दन्तकथाओं के आधार पर कवि कालिदास का विवाह राजकुमारी विद्योत्तमा से हुआ था।
★ इसमें महाकवि कालिदास की प्रसिद्धि से पूर्व की प्रेमिका मल्लिका के निर्व्याज(छल कपट से रहित) प्रेम, आत्मसमर्पण एवं करुण अवसाद का मार्मिक चित्रण हुआ हैं।
★ मोहन राकेश ने स्त्री पुरुष के रिश्तों की विडम्बना, प्रेम प्रसंग की असफलता, तनाव और अन्तर्विरोधो को आधुनिकता की दृष्टि से रेखांकित किया है।
★ मोहन राकेश ने नाटक में प्रियंगुमंजरी की कल्पना विद्योत्त्मा से की है. नाटक में अनेक ऐसे संदर्भ हैं जो कालिदास के कुमारसंभवम्, मेघदूत, अभिज्ञान शाकुंतलम् और ऋतुसंहार के दृश्य संदर्भों को उजागर करते हैं।
★ मोहन राकेश ने एक जगह लिखा कि मेघदूत पढ़ते हुए मुझे लगा करता था कि वह कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है, जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित उस कवि की, जिसने अपनी ही एक अपराध अनुभूति को इस परिकल्पना में ढाल दिया है।
★ मोहन राकेश ने विश्व विख्यात कवि कालिदास को कल्पना और मिथक की सहायता से विकसित किया है जो सृजन शक्तियों का प्रतीक है।
★ मोहन राकेश ने मेघदूत नाटक संबंध में लिखा “मेघदूत को पढ़ते हुए मुझे लगा करता था कि वह कहानी निर्वासित यक्ष की उतनी नहीं है जितनी स्वयं अपनी आत्मा से निर्वासित कवि की।”
★ मोहन राकेश ने कहा है कि “मेरे लिए कालिदास एक व्यक्ति नहीं, हमारी सर्जनात्मक शक्तियों का प्रतीक है ।नाटक में वह प्रतीक उस अंतद्वन्द को संकेतित करने के लिए हैं जो किसी भी काल में सृजनशील प्रतिभा को आन्दोलित करता है । व्यक्ति कालिदास को उस अन्तर्द्वन्द में से गुजरना पड़ा या नहीं, यह बात गौण है । मुख्य बात यह है कि हर काल में बहुतों को उसमें से गुजरना पड़ा है, हम भी आज उसनें से गुजर रहे हैं।”
★ “एक लेखक राज्य द्वारा दी गयी सुविधाओं का उपभोग करता हुआ अपने व्यक्तित्व और विचारों की स्वतन्त्रता को बनाये रख सके, और उस पर कोई ऐसा दायित्व न पड़ता हो जिसने लेखक के रूप में उसकी आवाज कमजोर होने लगे तो उसे स्वीकार करने में कोई बाधा नही होनी चाहिए, लेकिन चूँकि ऐसा हो नहीं पाता इसलिए निश्चित रूप से सारी प्राप्त सुविधाओं की तुलना में लेखक का व्यक्तित्व ही अधिक महत्त्वपूर्ण है।”(कालिदास कथन- “मैं राजकीय मुद्राओं से क्रीत होने के लिए नहीं हूँ ” इस कथन के संबंध में मोहन राकेश का मत)
★ “कुछ लोगों की जिंदगी में बिखराव बहुत होता है। मैं अपने को ऐसे ही लोगों में पाता हूँ। बिखरना और बिखेरना मेरे लिए जितना स्वाभाविक है, संभालना और समेटना उतना ही अस्वाभाविक। स्वाभाविक प्रक्रिया में जहाँ सब कुछ अनायास होता है, वहाँ अस्वाभाविक प्रक्रिया बहुत धैर्य और आयास की माँग करती है।” ( मोहन राकेश का आत्मकथन )
★ प्रगतिवादी कवि नागार्जुन ने भी मेघदूत को पढ़ने पर यही महसूस किया कि यह पीड़ा यक्ष की स्वयं नहीं कालिदास की है। वे लिखते
“अमल-धवल गिरि के शिखरों पर,
प्रियवर तुम कब तक सोये थे।
रोया यक्ष कि तुम रोये थे,
कालिदास सच-सच बतलाना। “
★ “नाट्य रूप की दृष्टि से ‘आषाढ़ का एक दिन’ संगठित यथार्थवादी नाटक है जिसमें बाह्य ब्योरे की बातों से अधिक परिस्थिति के काव्य को अभिव्यक्त करने का प्रयास है। इस दृष्टि से शायद हिन्दी का यह पहला यथार्थवादी नाटक है जो बाह्य और आंतरिक यथार्थ को उनकी समन्विति में उनके अंतर्द्वन्द्र में देखता और प्रस्तुत करता है। (नेमिचन्द्र जैन का कथन)
★ “अंततः नाटक में उद्घाटित उसका व्यक्तित्व न तो किसी मूल्यवान और सार्थक स्तर पर स्थापित ही हो पाता है न इतिहास प्रसिद्ध कवि कालिदास को, और इस प्रकार उस माध्यम से समस्त भारतीय सर्जनात्मक प्रतिभा को कोई गहरा विश्वसनीय आयाम ही दे पाता है।”
(कालिदास के चरित्र के सम्बन्ध में नेमिचन्द्र जैन का मत)
★ “आषाढ़ का एक दिन नाटक में आषाढ के झरने मेघ सुखाने के लिए फैलाय हुए कपड़े अम्बिका को ठोस और मल्लिका को सरल भाव मुद्राएँ अनुस्वार और अनुनासिक का बनावटी ग्रामवासियों का भोला देहान्ती जीवन राजपुरुषों के दर्पपूर्ण चेहरे और अंत दीपक को ले में डुब । सब चेहरा में मल्लिका का एक चेहरा ऐसे दृश्य बिम्ब प्रस्तुत करता है । जो रंगमंच का कविता रचना है।”(डॉ. गोविन्द चातक का कथन)
★ गोविंद चातक के मतानुसार विलोम की विसंगति भी कालिदास से कम नहीं वह मल्लिका के साथ घर ज़रूर बसा लेता है, पर जब देखो द्वार बन्द ! कालिदास के लिए ये द्वार खुले होने पर भी हमेशा के लिए बन्द हो जाते हैं और विलोम के लिए बन्द रहने पर भी खुले हैं। सारा नाटक इसी विडम्बना पर टिका है :-
किवाड़ बंद मिले शहर के मकानों के,
कयाम भी मुयस्सर न हुआ, सफ़र भी गया।”
★ “आषाढ़ का एक दिन’ नाटक का सारा महत्व उसके विविध पात्रीय होने में, विविध अर्थ संदर्भ देने में है। इस नाटक का बहु पक्षीय महत्व होने में कोई सन्देह नहीं है। इसी अर्थ में यह पूर्ण यथार्थवादी नाटक लगता है।” (गिरिश रस्तोगी का कथन)
★ कालिदास का अंतर्द्वन्द्व और टूटन आज के साहित्यकार का द्वन्द्व और पीड़ा है । इस संदर्भ में राकेश का एक लेख ‘साहित्यकार की समस्याएँ’ ध्यान में आ जाता है जो एक साहित्यिक गोष्ठी (चंडीगढ़) में पढ़ा गया था और जिसमें उन्होंने बड़ी संजीदगी से विचार किया था कि ‘एक साहित्यकार की मूल समस्या है साहित्य कार के रूप में अपना व्यक्तित्व बनाये रखने की। साहित्यकार की आर्थिक स्वतन्त्रता और विचारों एवं मान्यताओं की दृष्टि से उसकी स्वतंत्रता एक अहम सवाल है । अगर यह स्वतंत्रता नहीं है तो लेखक का व्यक्तित्व कुंठित होता है क्योंकि ‘समझौते अनिवार्य रूप से उसके व्यक्तित्व को तोड़ते हैं।’ (गिरिश रस्तोगी की पुस्तक ‘मोहन राकेश और उनके नाटक’ में)
★ यह कालिदास और मल्लिका का नाटक है लेकिन वस्तुतः यह आधुनिक में मानव की विवशता, उसके अंतर्द्वन्द्व का, उसकी जटिलता का नाटक है। (गिरिश रस्तोगी का मत )
★ “विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास। और कालिदास ? एक सफल विलोम” इस कथन के संबंध में गिरिश रस्तोगी के
विचार :-
√ स्थूल स्तर पर यह टकराहट मल्लिका और अम्बिका में है ।
√ सूक्ष्म स्तर पर यह टकराहट कालिदास और विलोम में है।
√ विलोम की दृष्टि अधिक व्यावहारिक है, भावनाएं उसे प्रभावित नहीं करती लेकिन व्यावहारिक जीवन में वह बड़ा चतुर है और बड़ा संयमित।
√ कालिदास बराबर टकराने वाला और अपने ‘अनधिकार प्रवेश को हमेशा सही सिद्ध करने वाला कालिदास अन्तर्मुख है अपने ही द्वन्द्व से पीड़ित और भावनाओं से उद्वेलित, विलोम समय की रंग को पकड़कर बड़ी कुशलता से अपने अस्तित्व को बनाये रखने वाला व्यक्ति है।
√ कालिदास, मलिका, अम्बिका जब-जब भावना और द्वन्द्व की चरम सीमा पर है तब-तब वह उन्हें छेड़ता है, अपनी उपस्थिति का पूरा एहसास कराता है और अवसर का पूरा फायदा उठाता है – यही आज की व्यावहारिक और यथार्थ दृष्टि है।
√ नाटक के प्रथम अंक में ही राकेश ने विलोम ने कहलाया है, विलोम क्या है ? एक असफल कालिदास । और कालिदास ? एक सफल विलोम ।
√ हम कहीं एक दूसरे के बहुत निकट पड़ते हैं। नतीजा यह है कि बहुतों को विलोम सामान्य खलनायक जैसा लगता है जबकि न कालिदास आम नायक है न विलोम।
√ रूप में देखने में विलोम कालिदास के व्यक्तित्व का ही एक अंश है।
√ देखने की बात है कि जो कालिदास पाना चाहता है वह विलोम को मिलता है और जो विलोम नहीं प्राप्त कर पाया वह कालिदास प्राप्त करता है इसलिए विलोम जैसे पात्र की गढ़न की सार्थकता कालिदास के द्वन्द्व और व्यक्तित्व को अभिव्यक्ति करने में है न कि खलनायक बनाने में राकेश की सूक्ष्म दृष्टि और सांकेतिकता ही नाटक को अधिक सारगर्भित और सूक्ष्मस्तरीय बनाती है।
√ निस्सन्देह इस माने में विलोम का चित्रण कालिदास से कहीं अधिक सफल स्वाभाविक और आज की अनुभूति के निकट पड़ता है।
√ विलोम की चतुरता, वाक्पटुता और व्यावहारिकता के आगे कालिदास कभी-कभी बहुत फीका लगता है, खासतौर से अन्तिम अंक में।
√ ऐसे भी स्थल आते हैं जहाँ विलोम नायक की तरह उभरने लगता है, और कालिदास एक खलनायक जैसी स्थिति में खड़ा दिखाई देता है
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बहुत बढियाँ… आज मैं पहली बार इस वेबसाइट पर आया…. अब नियमित इस पर हिंदी के सभी मैटर पढूंगा….
बहुत बहुत धन्यवाद पढ़ना जारी रखने के लिए
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