🌺केदारनाथ सिंह का जीवन परिचय🌺
◆ जन्म :7 जुलाई 1934 चकिया गाँव ,बलिया, उत्तर प्रदेश
◆ निधन :19 मार्च 2018 , नई दिल्ली, दिल्ली
◆ उन्होंने अपना शोध ग्रंथ ‘आधुनिक हिंदी कविता में बिंब विधान’ आचार्य हज़ारी प्रसाद द्विवेदी के मार्गदर्शन में पूरा किया। उन्हीं की प्रेरणा से उन्होंने बांग्ला सीखी और रवींद्रनाथ टैगोर के बांग्ला साहित्य को पढ़ने का प्रयास किया। वह तब ब्रिटिश कवि डाइलेन टामस, अमरीकी कवि वालेस स्टीवेंस और फ़्रेंच कवि रेने शा के प्रशंसक भी रहे थे और उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद किया था।
◆ केदारनाथ सिंह की कविता यात्रा का आरंभ एक गीतकार के रूप में हुआ।
◆ वह अज्ञेय के संपादन में प्रकाशित ‘तीसरा सप्तक’ (1959) के सात कवियों में से एक थे।
◆ पहला कविता संग्रह :- अभी, बिल्कुल अभी’ (1960 )
◆ दूसरा कविता संग्रह :- ‘ज़मीन पक रही है’ (1980)
◆ इनकी कविताओं का रोमानी ‘अपनापन’ उन्हें वृहत कविता पाठकों से जोड़ता है।
◆ अन्य काव्य संग्रह :-
1. यहाँ से देखो (1983)
2.अकाल में सारस (1988) 【साहित्य अकादमी पुरस्कार -1989】
3. उत्तर कबीर और अन्य कविताएँ (1995)
4. बाघ (1996)
5. तालस्ताय और साइकिल (2005)
6. सृष्टि पर पहरा (2014)
◆ गद्य रचनाएं :-
1. कल्पना और छायावाद
2. आधुनिक हिंदी कविता में बिंब-विधान
3.मेरे समय के शब्द
4. क़ब्रिस्तान में पंचायत
◆ ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित (2014 में)
◆ इनकी प्रमुख पंक्तियां :-
1. नाम कमाने की धुन में
जब यहाँ तक आया
तो अचानक पाया
कि हर नाम एक घोंसला है
जिसमें कोई चिड़िया
अंडा नहीं देती।
– आँसू का वज़न कविता से
2.जब वर्षा शुरू होती है
तब कहीं कुछ नहीं होता
सिवा वर्षा के
आदमी और पेड़
जहाँ पर खड़े थे वहीं खड़े रहते हैं
सिर्फ पृथ्वी घूम जाती है उस आशय की ओर
जिधर पानी के गिरने की क्रिया का रुख होता है।
3. “वह रोटी में नमक की तरह प्रवेश करता है”
4. झरने लगे नीम के पत्ते बढ़ने लगी उदासी मन की,
उड़ने लगी बुझे खेतों से
झुर-झुर सरसों की रंगीनी,
धूसर धूप हुई मन पर ज्यों-
सुधियों की चादर अनबीनी। – दुपहरिया
5. अंत में मित्रों,
इतना ही कहूंगा
कि अंत महज एक मुहावरा है
जिसे शब्द हमेशा
अपने विस्फोट से उड़ा देते हैं
और बचा रहता है हर बार
वही एक कच्चा-सा
आदिम मिट्टी जैसा ताजा आरंभ
जहां से हर चीज
फिर से शुरू हो सकती है। –
(अंत महज एक मुहावरा है)
6.हजारों घर, हजारों चेहरों-भरा सुनसान
बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान
सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप
तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ
शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस कदर खामोश हैं चलते हुए वे लोग
पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छाँह में सिमटी खड़ी है गाय
पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबूत-ऐसा कहाँ है वह – कौन?
सिर्फ कौआ एक मँडराता हुआ-सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ –
(छोटे शहर की एक दोपहर)
7.खोल दूं यह आज का दिन
जिसे-
मेरी देहरी के पास कोई रख गया है,
एक हल्दी-रंगे
ताजे
दूर देशी पत्र-सा।
थरथराती रोशनी में,
हर संदेशे की तरह
यह एक भटका संदेश भी
अनपढा ही रह न जाए-
सोचता हूँ
खोल दूं।
इस सम्पुटित दिन के सुनहले पत्र-को
जो द्वार पर गुमसुम पडा है,
खोल दूं। – खोल दूं यह आज का दिन
8.”मैं मन को बराबर खुला रखने की कोशिश करता हूँ, ताकि वह आस-पास के जीवन की हल्की से हल्की आवाज़ को भी प्रतिध्वनित कर सके” – केदारनाथ सिंह
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