जैन साहित्य(jain sahity)

कर्मकाण्डो से परे ,जाति वर्ण भेद से परे सबको मुक्ति का अधिकार प्राप्त करने का सन्देश जैन धर्म देता है। उत्तर भारत मे जैन धर्म के अनुयायी सर्वत्र ही है किन्तु 8वीं से 13वीं शती तक गुजरात मे जैन धर्म का व्यापक प्रभाव था।

जैन सबसे ज्यादा :– गुजरात और राजस्थान में

• इनकी रचना की भाषा :- प्राकृत, अपभ्रंश,हिन्दी एवं राजस्थानी

जैन साहित्य ‘फागु’और ‘चरित काव्य’शैली के लिए प्रसिद्ध है।

• जैन साहित्य की ‘रास परम्परा’ का प्रथम ग्रंथ ‘भरतेश्वर बाहुबली रास ’है।

• अपभ्रंश का वाल्मीकि:- स्वयंभू (इसलिए कहा गया की पउम चरिउ के अन्तर्गत रामकथा लिखने के कारण)

• अपभ्रंश का वेदव्यास:- पुष्पदन्त( इसलिए कहा गया की महापुराणा के अन्तर्गत कृष्ण कथा लिखने के कारण)

• ग्रन्थों के प्रकारः-
(¡) प्रचार – उपदेशात्मक ग्रन्थ
(¡¡) रास – क्रिडा गायन नृत्य
(¡¡¡)फागुयाचरित – जीवनपरक ग्रन्थ(प्रबन्ध काव्य)

जैन साहित्य अपभ्रंश एवं देशभाषा दोनों में प्राप्त होता है।देशभाषा को अवहट्ट या पुरानी हिन्दी भी कह सकते है।

जैन साहित्य में प्रबन्ध एवं मुक्तक दोनो काव्य मे प्राप्त होता है।

प्रबन्ध काव्य:- जिन रचनाओं के मध्य छन्दों का पूर्व अपर (बाद) का संबंध हो पूर्व पद अपर से जुड़ा हुआ होता है।

• मुक्तक काव्य:- जिस रचना का छन्द स्वतंत्र अर्थ देता है।

• जैन प्रबन्ध काव्य दो प्रकार के होते है:-
(¡)पौराणिक प्रबन्ध काव्य
(¡¡)जैन साधनों की प्रेरक जीवनी/चरितकाव्य

चरित काव्य:- रास काव्य शैली में लिखे जाते थे।

• जैन प्रबन्ध काव्य में रास काव्य शैली अत्यन्त लोकप्रिय रही।

• जैन मुक्तक काव्य में फागु शैली अत्यन्त लोकप्रिय रही।

अपभ्रंश भाषा के प्रथम कवि माने जाते हैः स्वयंभू(अपभ्रंश का वाल्मीकी)

जैन साहित्य की रास परम्परा का प्रथम ग्रन्थ – भरतेश्वर बाहुबली रास,1184(शालिभद्र सुरि कृति)

• जैन साहित्य फागु और चरित काव्य शैली के लिए प्रसिद्ध है।

• जैन साहित्यकार:-

1. हेमचंद्र का परिचय
हेमचंद्र के का जन्म काल :- 1088- 1097( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार )

• गुजरात के एक प्रख्यात आचार्य।

चालुक्य वंश के प्रसिद्ध गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह के दरबार में बड़ा सम्मान था।

हेमचंद्र का जन्म:- गुजरात के अहमदाबाद से 7 मील दक्षिण पश्चिम में स्थित धुन्धुक्कपुर नगर में कार्तिक पूर्णिमा को रात्रि में विक्रम संवत 1145 में (प्रभावक चरित के अनुसार)

* प्रभावकचरित (वि.स.1334)के लेखक :- प्रभाचन्द्र सुरि

• हेमचंद्र के माता-पिता मोठ वंश के वैश्य थे।(प्रबन्ध कोश के अनुसार)
* प्रबन्ध कोश (वि.स. 1405) लेखक :- राजशेखर सुरि)

• पिता का नाम :- चाचिग

• माता का नाम :- पाहिणी देवी(प्रबंध चिंतामणि के अनुसार)
* प्रबंध चिंतामणि ( वि.स. 1361) :- मेरुतुगं
इसका संपादक – जिन विजय मुनि
अनुवादक – हजारी प्रसाद द्विवेदी
इसमें कुल 5 प्रकाश है
चतुर्थ प्रकाश में हेमचंद्र का वर्णन है।

हेमचंद्र के कुलदेवी :- चामुंड

• हेमचंद्र के कुलयक्ष:- गोनस

• हेमचंद्र के मूल नाम :- चाड़्गदेव/ चांगदेव

• हेमचंद्र ने देवचंद्र सूरी से दीक्षा ग्रहण की।

• हेमचंद्र के गुरू :– देवचंद्र सूरी

• हेमचंद्र के शिष्य :- कुमार पाल

कुमारपाल अपने आरंभिक जीवन में शैव धर्म का अनुयायी था। अंत में कुमार पाल ने जैन धर्म की दीक्षा ली थी।

• हेमचंद्र की रचनाएं :-
1. शब्दानुशासन (संस्कृत – प्राकृत दोनों भाषाओं में के लिए उपयोगी प्रमाणित व्याकरण ग्रंथ माना जाता है।
2. देशी नाममाला
3. कुमार पाल चरित

• हेमचंद्र प्राकृत के पाणिनि थे।(डॉ.बच्चन सिंह अनुसार)

शब्दानुशासन
सिद्धराज के आग्रह पर हेमचंद्र ने प्राकृत – अपभ्रंश का व्याकरण ग्रंथ “सिद्ध हेम शब्दानुशासन” लिखा।
सिद्ध हेम शब्दानुशासन के बारे डॉक्टर बच्चन सिंह का कथन “एक चोटी का वैयाकरण और इस कोटि का सहृदय इसे मधुकोश में जैनियों के नैतिक उपदेश भी है और रीतिकालीन नायिकाओं के पूर्ण रूप भी,वीर दर्पोक्तियाँ भी है और सौंदर्य और प्रेम की ‰सहज काव्योक्तियाँ भी। इनमें से कुछ दोहे तो इतने अछूते और टटके है कि मानो विभिन्न ग्रामांचलो की मधुमंध भीगी मिट्टी से उठा लिये गये है। संभवतः यह दोहे तत्कालीन आभीरो और गुर्जरों के उन्मुक्त जीवन से रचे बसे रहे हो। पर उस में भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह दोहे लोककाव्य हैं। इन्हें कवियों ने अपनी अनुभूति और कल्पना द्वारा समुचित शब्दों में विन्यस्त किया है ।”

• सिद्ध हेम शब्दानुशासन की पंक्ति –
” सिरि जरखंडी लोअडी गलि मणियडा न बसी।
तो वि गोट्ठडा कराविआ मुध्दहे उट्ठ बईस।।”
अर्थात् नायिका के सिर पर फटा पुराना वस्त्र है गले में दस- बीस गुरियों की माला भी नहीं है। फिर भी मुग्धा नायिका का अप्रतिम सौंदर्य गोष्ठ के रसिकों को उठक – बैठक कराता रहता है इसी को कहते हैं “अनलंकृति पुनः क्वापि”( इसका अर्थ ऐसी रचना जिसमें स्फूट रूप से अलंकार ने वर्तमान हो फिर भी वह अदोष एवं सगुण होने से काव्यत्व की सीमा में आ जाती है )
* मम्मट का काव्य लक्षण की परिभाषा- ” तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि”

[ ] शब्दानुशासन में कुल 9 अध्याय है –
1. प्रथम अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम तीन पादों में सन्धियों की चर्चा।
√ चतुर्थ पाद में शब्दों रूपों का विवेचन।

2. दूसरा अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम पाद में :-व्यंजनान्त शब्दों का अनुशासन लिखा गया है और इसमें सहायक तद्धित, कृदन्त सूत्र भी।
√ द्वितीय पाद में :- कारक प्रकरण
√ तृतीय पाद में :- सत्व,षत्व और णत्व विधियों का प्रतिपादन
√ चतुर्थ पाद में:- स्त्री प्रत्यय प्रकरण

3. तीसरा अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम पाद :- धातु के पूर्व उत्तर के उपसर्ग के निरूपण
√ द्वितीय पाद में :- समाज की परिचर्चा
√ तृतीय पाद में :- क्रिया प्रकरण से संबंधित
√ चतुर्थ पाद में :- प्रत्यक्ष विशिष्ट धातुओं का विवरण।

4. चौथा अध्याय में :- तुलनात्मक समीक्षा

5. पाचवां अध्याय में :- तृतीय पाद
प्रथम पाद में :- कृदंत प्रत्यय का वर्णन
√ द्वितीय एवं तृतीय पादों में :- प्रत्यय का विवेचना

6. छठवां अध्याय में :- चार पाद व्याकरण की परंपरा
√ प्रथम पाद
7. सातवा़ं अध्याय में :- चार पादों में विश्लेषण

8. आठवां अध्याय में :- चार पादों  

9. नवां अध्याय में :- चार पाद – भाषा विज्ञान के सिद्धान्त

2. मेरुतुंग का परिचय

• नागेंद्र गच्छ के आचार्य

• गुरु का नाम चंद्रप्रभ सुरी

• प्रधान शिष्य – गुणचंद्र

• अन्य प्रमुख ग्रंथ – महापुरुष चरित (इस ग्रंथ में ऋषभदेव,शांतिनाथ,नेमिनाथ,पार्श्वनाथ और महावीर इस प्रकार पांच तीर्थंकरों का संक्षिप्त चरित वर्णन है।)

प्रबंध चिंतामणि

• 1304ई. में संस्कृत भाषा में जैन आचार्य मेरुतुंग द्वारा रचित है।(डॉ . बच्चन सिंह के अनुसार)

• इसमें अनेक ऐतिहासिक कथा प्रबंध है ।

• इसमें बहुत पुराने राजाओं के आख्यान संग्रहीत किये गए है।

• प्रबंध चिंतामणि नामक संस्कृत ग्रंथ भोज प्रबंध के ढंग से बनाया।

• इसमें सिद्धराज जयसिंह कुमार पाल आदि के वृतांत प्रस्तुत किए गए हैं।

“हिंदू व्यक्तियों की अपेक्षा जैन कवि इतिहास रक्षा के प्रति अधिक सचेत हैं ।”(चन्द्रधर शर्मा ‘गुलेरी’ के अनुसार)

प्रबंध चिंतामणि में अपभ्रंश के जो दोहे उद्धत किये गये है वे दूसरों के बनाये हुए हैं।इनमें मुंज के दोहों का साहित्यिक महत्व सबसे अधिक है।

• प्रबंध चिंतामणि का हिंदी में अनुवाद 1932ई. आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने किया था।

प्रबंध चिंतामणि ग्रंथ के संस्कृत मूल प्रथम प्रकाशन– गुजरात के शास्त्री रामचंद्र दीनानाथ नामक विद्वान संवत्1944 में बम्बई से किया था। उन्होंने इसका गुजराती भाषा में अनुवाद भी छपा कर प्रकाशित किया था ।

मेरुतुंग ने इस ग्रंथ को पूर्ण किया वि.स. 1361 में काडियावाड़ के बढवान शहर में।

• मेरुतुंग ने प्रबंध चिन्तामणि ग्रंथ की रचना करने दो कारण बताएं-
1. मेरुतुंग कहते है – “बार-बार सुनी जाने के कारण पुरानी कथाएं बुद्धिमानों के मन को वैसा प्रसन्न नहीं कर पाती। इसलिए मैं सपुरुषों को वृतांतों से इस प्रबंध चिंतामणि ग्रंथ की रचना कर रहा हूं ।”
2. मेरुतुंग कहते है – ” बहुश्रुत और गुणवान् ऐसे वृद्धजनों की प्राप्तः दुर्लभ हो रही है और शिष्यों में भी प्रतिभा का वैसा योग न होने से शास्त्र प्रायः नष्ट हो रहे हैं। इस कारण से तथा भाषा बुद्धिमानों को उपकार हो ऐसी इच्छा से सुधा के जैसा, सपुरुषों प्रबंधों का संघटन रूप यह ग्रंथ मैंने बनाया है।”

• सबसे पहले श्री एलेक्जेंडर किन्लॉक फॉर्ब्स को इस ग्रंथ का परिचय हुआ और उन्होंने गुजरात की इतिहास विषय में अपनी प्रसिद्ध पुस्तक ‘रास माला’ में उसका सर्वप्रथम उपयोग किया।

3. सोमप्रभ सूरि

• यह जैन पंडित थे।
• ग्रंन्थ :- कुमारपालप्रतिबोध ( गद्य – पद्यमय संस्कृत प्राकृत भाषा में लिखा काव्य)

4. पुष्पदंत
• समय :- 10 वीं शताब्दी (बच्चन के अनुसार)

बरार के आसपास रहने वाले थे बाद में राष्ट्रकूटों की राजधानी मान्यखेट(मलखेड) चले गये।मान्यखेट में 972ई. तक रहे/ मान्यखेट में 14 वर्ष तक रहे।

• दिल्ली के निकटवर्ती यौधेय के निवासी।(राहुल सांकृत्यायन के अनुसार)

• पिता का नाम:- केशव भट्ट

• माता का नाम: ममता देवी

• जाति :काश्यम गौत्रीय ब्राह्मण

• पहले वे शैव मतावलम्बी थे परंतु बाद में किसी गुरु के उद्देश्य से जैन धर्म में दीक्षित हो गए थे ।

इन्होंने अपने तीनों ग्रंथों की रचना राष्ट्रकूट साम्राज्य की राजधानी मान्यखेट में कृष्ण तृतीय के महामात्य भरत तथा उनके पश्चात गृहमंत्री नन्न के आश्रय में रहकर किया था।

• राम काव्य के दूसरे महाकवि( आचार्य बच्चन के अनुसार)

• पुष्पदन्त अकड़ स्वभाव के थे ।

• अपने को अभिमान मेरू कहते थे।

• अपभ्रंश भाषा के महान कवि

• पुष्पदंत ने कहा है कि वाल्मीकि और व्यास के लोगों को गुमराह किया है।

• सत्य के पुजारी, स्वाभिमानी, गरीबी एवं निरात्रित थे।

सर्वप्रथम शैव थे के बाद में इन्होंने अपभ्रंश प्रेमी राष्ट्रकूट कृष्ण राज तृतीय के मंत्री भरत के पुत्र नन्न के आश्रय में रहने लगे ,धर्म परिवर्तन करके जैन हो गये।

• इनकी रचनाएं :-
1. महापुराण(महापुराण के संपादक :- डॉ परशुराम लक्ष्मण वैध)
2. णाय कुमार चरिउ।
3. जसहर चरिउ।

• पुष्पदंत की उपाधि प्राप्त :-
1. काव्यपिशाच
2. अभिमान मेरु
3. कविकुल तिलक
4. काय रत्नाकर
5. सरस्वती बान्धव निर्लय साहित्य

• अपभ्रंश साहित्य में राम काव्य के द्वितीय कवि

• पुष्पदंत ने चतुर्मुख और स्वयंभू दोनों का स्मरण किया है । स्वयंभू ने चतुर्मुख की स्तुति की है ।चतुर्मुख स्वयंभू से भी पहले के कवि है।

• चउमुहु स्वयंभू सिरिहरिसु दोणु,जालोइउ कइई साणु (पुष्पदंत का पद )अर्थात् न मैंने चतुर्मुख,स्वयंभू ,श्री हर्ष और द्रोण का अवलोकन किया और न कवि ईशान और बाण का।

5. भविस्सयत्त कहा( कथा)
• भविस्सयत कथा अपभ्रंश के कथाओं में प्रसिद्ध ग्रंथ है ।

• रचयिता धनपाल

• धनपाल का परिचय :-

◆ धक्कड नामक वैश्य वंश में जन्म ।

पिता का नाम – माएसर (मातेश्वर)

माता का नाम – धनश्री

धनपाल को सरस्वती का वर प्राप्त हुआ।

◆ यह जैन धर्म के दिगंबर संप्रदाय के अनुयायी थे।

• कुल सिंधिया – 22 सिंधिया

भविस्सयत कथा में श्रुतपंचमी व्रत के फलवर्णन स्वरूप भविस्सयत कथा का वर्णन है इसलिए इसे श्रुति पंचमी कथा भी कहते हैं।

• अपभ्रंश भाषा के प्रकाशित होने वाले काव्यों में भविस्सयत कथा ग्रंथ सर्वप्रथम काव्य है।

भारत में भविस्सयत कथा प्रकाशित कराने का श्रेय :- सी. सी .डी दलाल और पी. डी. गुणे को

भविस्सयत कथा का पहली बार प्रकाशित 1923 ई. में (गायकवाड ओरियण्टल सीरिज बडोदा से)

• प्रबंध काव्य

भविस्सयत कथा काव्य लिखकर पूर्ण हुआ विक्रम संवत् 1393 पौष शुक्ल द्वादशी(16 दिसंबर 1336 ई.)

• रचनाकाल:- 14 वीं शताब्दी

• भविस्सयत कथा का नायकभविस्यत दत्त

• भविस्सयत कहा(कथा) को पिन्टरनित्ज महोदय ने रोमांटिक महाकाव्य माना है।

6. भरतेश्वर बाहुबली रास
• रचयिता – शालिभद्रसुरी (भीमदेव द्वितीय के समय पाटण में हुए थे।)

• रचना समय – 1185ई. में

• रचना तिथि – संवत् 1231(मुनिजिन विजय के अनुसार)

• 205 छन्दों में रचित।

• खंडकाव्य

• वीर रस प्रधान और अंत में शांत रस

• 203 कड़ियां में रचित।

• शालिभद्रसुरी पाटन में निवास करते थे।(मुनिजिन विजय के अनुसार)

• विषय – इसमें भरत और बाहुबली के साथ तीर्थकर ऋषभदेव के बीच हुए युद्ध का वर्णन ।बाद में बाहुबली ने अपने तप और त्याग के बाद ज्ञान प्राप्त करता है ।

• इसके दो संस्करण प्राप्त है – लालचंद भगवान दास गांधी द्वारा संपादित (प्राच्य विद्या मंदिर बड़ौदा द्वारा प्रकाशित) और रास और रासान्वयी काव्य में प्रकाशित।

• पंक्ति – “बोलत बाहुबली बलवन्त।लोहे खण्डि तउ गरवीड हंत।”

7. स्वयंभू का परिचय
• अपभ्रंश का वाल्मीकि

• समय :- 8वीं शताब्दी

उत्तर के रहने वाले थे बाद में संरक्षण के साथ राष्ट्रकूट राज्यों में चले गए ।

• पिता का नाम :- मारुति देव

• स्वयंभू के दो पत्नियां थी।

• स्वयंभू के आश्रयदाता :- धनंजय और धवलाइया

• प्रमुख ग्रंथ :- पउमचरिउ

• जैन कवियों में बहुत प्रसिद्ध कवि

• जिन्होने पउमचरिउ(पह्म चरित्र) यानी राम कथा का सृजन किया।

 

त्रिभुवन का परिचय
• स्वयंभू के छोटे पुत्र 

• पिता के समान महान कवि।

• वैयाकरण और आगमादि के ज्ञाता।

• बंदरइया के आश्रित कवि।

स्वयंभू के तीन ग्रंथों को त्रिभुवन ने पूरा किया था।
पउमचरिउ, रिट्ठेणमिचरिउ, नागकुमार चरिउ

1. पउमचरिउ :-
• रचयिता – महाकवि स्वयंभू

• अपभ्रंश साहित्य का अत्यंत प्रसिद्ध एवं प्रथम महाकाव्य।

• चरित काव्य।

• पांच काण्डों और 90 संधियों में विभाजित है।

• पांच काण्डों में विभक्त :-
1. विद्याधर कांड(20 संधियां)
2. अयोध्या कांड (22 संधियां)
3. सुंदरकांड (14 संधियां)
4. युद्ध कांड(21 संधियां)
5. उत्तरकांड (13 संधियां)

• कुल श्लोक – 12 हजार

• कुल संधिया 90 संधिया(83 संधिया स्वयंभू द्वारा रचित और 7 संधिया त्रिभुवन द्वारा रचित।)

• स्वयंभू ने रविषेण द्वारा वर्णित रामकथा का आश्रय लिया है।

• महाकाव्य का आरंभ ईश वंदना से।

• राम कथा का आरंभ – गुरु और आचार्य वंदना से।

• स्वयंभू ने राम की महिमा का गुणगान किया है।

2. रिट्ठणेमि चरिउ (हरिवंश पुराण) :-

• विषय – तीर्थंकर नेमिनाथ के चरित्र का वर्णन।

• कुल श्लोक – 18हजार श्लोक।

• चार काण्डों और 112 सिंधियों में विभाजित है

• चार काण्डों में विभक्त :-
1. यादव कांड(20 संधियां)
2. कुरु कांड (20 संधियां)
3. युद्धकांड (20संधियां) फाल्गुन नक्षत्र तृतीया तिथी बुधवार और शिव नामक योग में यह काण्ड समाप्त हुआ।
4. उत्तर कांड(20 संधियां) भाद्रपद,दशमी रविवार और मूल नक्षत्र में उत्तर काण्ड प्रारंभ हुआ।

• कुल सिंधिया – 112 संधिया(99 संधिया स्वयंभू द्वारा रचित और 13 संधिया त्रिभुवन द्वारा रचित।)

• 1937 कडवक

• इसमें पहली 92 संधियां की रचना करने में कवि को 6 वर्ष 3 माह और 11 दिन लगे थे।

• काव्य की कथा का आधार – महाभारत और हरिवंश पुराण है ।

• डॉ. नामवर सिंह ने कहा – “अपभ्रंश में राम कथा का वर्णन कृष्ण कथा के वर्णन का सूत्रपात का श्रेय भी स्वयंभू को ही है ।”

8. स्थूलिभद्ररास का परिचय

• जिनधर्मसूरी द्वारा रचित

• रचना काल – 1209 ईस्वी

• विषय – स्थूलिभद्र और कोशा वेश्या के संबंधित घटनाएं।

कोशा वेश्या के पास भोगलिप्सा रहने वाले स्थूलिभद्र को कवि ने जैन धर्म की दीक्षा लेने के लिए बाद मोक्ष का अधिकारी सिद्ध किया है।

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3 comments

  1. good collection

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