तुलसीदास के संबंध में आ.हजारीप्रसाद द्विवेदी के कथन [tulaseedas ke sambandh mein hajareeprasad dvivedee ke kathan]

तुलसीदास के संबंध में कथन

【आ.हजारीप्रसाद द्विवेदी के कथन , हिन्दी साहित्य की भूमिका पुस्तक से】

◆ भारतवर्ष का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय कर सके।
★ समन्वय का मतलब है कुछ झुकना, कुछ दूसरों को झुकने के लिए बाध्य करना ।

◆ तुलसीदास ऐसे हो भविष्य जातियाँ, आंचारनिष्ठा और विचार पद्धतियाँ प्रचलित हैं।

◆ बुद्धदेव समन्वयकारी थे, गीता में समन्वयकारी चेष्टा है और तुलसीदास भी समन्वयकारी थे।

◆ तुलसीदास का सारा काव्य समन्वय की विराट चेष्टा है।
★ लोक और शास्त्र का समन्वय, गार्हस्थ और वैराग्य का समन्वय, भक्ति और ज्ञान का समन्वय, भाषा और संस्कृत का समन्वय, निर्गुण और सगुण का समन्वय, कथा और तत्त्व-ज्ञान का समन्वय, ब्राह्मण और चाण्डाल का समन्वय, पाण्डित्य और अपाण्डित्य का समन्वय, ‘रामचरित- मानस’ शुरू से आखिर तक समन्वय का काव्य है। इस महान् समन्वय के प्रयत्न का आधार उन्होंने रामचरित को चुना।

◆ तुलसीदास ने भक्ति का प्रसंग आते ही दास्यभाव की भक्ति को श्रेष्ठ कहकर अप्रत्यक्ष रूप में मधुर-भाव का प्रत्याख्यान कर दिया।

◆ भाषा की दृष्टि से भी तुलसीदास की तुलना हिन्दी के किसी अन्य कवि से नहीं हो सकती।

◆ तुलसीदास की भाषा जितनी ही लौकिक है उतनी ही शास्त्रीय ।

◆ मानव-प्रकृति का ज्ञान तुलसीदास से अधिक उस युग में किसी को नहीं था ।

◆ तुलसीदास प्रकृत्या भावुकता को पसन्द नहीं करते थे।
★ एक ही जगह उनकी भावुकता ‘पुलक-गात’ और ‘लोचन-सजल’ के रूप में प्रकट होती है और वह भगवान् के ‘करुणायतन’ या ‘मोहन-मयन’ रूप को देखकर।

◆ तुलसीदास कवि थे, भक्त थे, पण्डित-सुधारक थे, लोकनायक थे और भविष्य के स्रष्टा थे। इन रूपों में उनका कोई भी रूप किसी से घटकर नहीं था।

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