प्रियप्रवास की भूमिका(priyapravas ki bhumika)

               ?? प्रियप्रवास की भूमिका ??

◆ मैं बहुत दिनों से हिन्दी भाषा में एक काव्य-ग्रन्थ लिखने के लिये लालायित था । आप कहेंगे कि जिस भाषा में ‘रामचरितमानस’ ‘सूरसागर’ ‘रामचन्द्रिका’ ‘पृथ्वीराज रायसा ‘पद्मावत’ इत्यादि जैसे बड़े अनुठे काव्य प्रस्तुत हैं, उसमें तुम्हारे जैसे अल्पज्ञ का काव्य लिखने के लिये समुत्सुक होना वातुलता नहीं तो क्या है ? यह सत्य है किन्तु मातृभाषा की सेवा करने का अधिकार सभी को तो है, बने या न बने, सेवा-प्रणाली सुखद और हृदय-ग्राहिणों होवे या न होवे, परन्तु एक- लालायित-चित्त अपनी प्रबल लालसा को पूरी किये बिना कैसे रहे ?

◆ जिसके कान्त-पादांबुजों की निखिल – शास्त्र – पारंगत पूज्यपाद-महात्मा-तुलसीदास कवि- शिरोरत्न- महात्मा-सूरदास जैसे महाजनों ने परम-सुगंधित अथच उत्फुल्ल पाटल प्रसून अर्पण कर अर्चना की है–कवि कुल – मण्डली – मण्डन केशव, देव, बिहारी, पद्माकर, इत्यादि सहृदयों ने अपनी विकच मल्लिका बढ़ा कर भक्ति-गद् गद् – चित्त से आराधना की है- क्या उसकी में एक नितान्त साधारण पुष्प द्वारा पूजा नहीं कर सकता ?

◆  यदि ‘स्वान्तः सुखाय’ मैं ऐसा कर सकता हूं तो अपनी टूटी फूटी भाषा में एक हिन्दी काव्य-ग्रन्थ भी लिख सकता हूँ; निदान इसी विचार के वशीभूत होकर मैंने ‘प्रियप्रवास’ नामक इस काव्य की रचना की है।

◆ यह काव्य खड़ी बोली में लिखा गया है।

◆  सहृदय-कवि बाबू मैथिलीशरण गुप्त का ‘जयद्रथवध’ निस्सन्देह मौलिक ग्रन्थ है परन्तु यह खण्ड-काव्य है । इसके अतिरिक्त ये समस्त ग्रन्थ अन्त्यानुप्रास विभूषित हैं। इसलिये खड़ी बोल – चाल में मुझको एक ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता देख पड़ी, जो महाकाव्य हो, और ऐसी कविता में लिखा गया हो, जिसे भिन्नतुकान्त कहते हैं।

◆ अतएव मैं इस न्यूनता की पूर्ति के लिये कुछ साहस के साथ अग्रसर हुआ, और अनवरत परिश्रम कर के इस ‘प्रियप्रवास’ नामक ग्रन्थ की रचना की, जो कि आज आप लोगों के कर-कमलों में सादर समर्पित है।

◆  मैंने पहले इस ग्रन्थ का नाम ‘ब्रजांगना विलाप’ रखा था, किन्तु कई कारणों से मुझको यह नाम परिवर्तन करना पड़ा, जो इस ग्रन्थ के समग्र पढ़ जाने पर आप लोगों को स्वयं अवगत होंगे।

◆ मुझमें महा-काव्यकार होने की योग्यता नहीं, मेरी प्रतिभा ऐसी सर्वतोमुखी नहीं जो महाकाव्य के लिये उपयुक्त उपस्कर संग्रह करने में कृतकार्य्य हो सके, अतएव मैं किस मुख से यह कह सकता हूं कि ‘प्रियप्रवास’ के बन जाने से खड़ी बोली में एक महाकाव्य न होने की न्यूनता दूर हो गई।

◆ हां, विनीत भाव से केवल इतना ही निवेदन करूंगा कि महाकाव्य का आभास-स्वरूप यह ग्रन्थ सत्रह सर्गों में केवल इस उद्देश्य से लिखा गया है कि इसको देख कर हिन्दी साहित्य के लब्ध- प्रतिष्ठ सुकवियों और सुलेखकों का ध्यान इस त्रुटि के निवारण करने की ओर आकर्षित हो।

◆ जब तक किसी बहुज्ञ मर्म्मस्पर्शिनी – सुलेखनी द्वारा लिपिबद्ध हो कर खड़ी बोली में सर्वाग सुन्दर कोई महाकाव्य आपलोगों को हस्तगत नहीं होता, तब तक यह अपने सहज रूप में आप लोगों ज्योति – विकीर्ण-कारी उज्ज्वल चक्षुओं के सम्मुख है और एक सहृदय कवि के कण्ठ से कण्ठ मिला कर यह प्रार्थना करता है ‘जबलों फुलै न केतकी, तबलों बिलम करील’ ।

 

? कविताप्रणाली

◆  मैं यह कहूंगा कि भिन्नतुकान्त कविता भाषासाहित्य के लिये एक बिल्कुल नई वस्तु है, और इस प्रकार की कविता में किसी काव्य का लिखा जाना तो ‘ नूतनं नूतनं पदे पदे’ है ।

◆ इसलिये महाकाव्य लिखने के लिये लालायित हो कर जैसे मैंने बालचापल्य किया है, उसी प्रकार अपनी अल्प-विषया-मति साहृय्य से अतुकान्त कविता में महाकाव्य लिखने का यत्न करके मैं अतीव उपहासास्पद हुआ हू किन्तु, यह एक सिद्धान्त है कि ‘अकरणात् मन्दकरणम् श्रेयः / और इसी सिद्धान्त पर आरूढ़ हो कर मुझसे उचित या अनुचित यह साहस हुआ है ।

◆  किसी कार्य में सयत्न होकर सफलता लाभ करना बड़े भाग्य की बात है, किन्तु सफलता न लाभ होने पर सयत्न होना निन्दनीय नहीं कहा जा सकता । भाषा में महाकाव्य और भिन्नतु- कान्त कविता में लिख कर मेरे जैसे विद्या बुद्धि के मनुष्य का सफलता लाभ करना यद्यपि असंभव बात है किन्तु इस कर्य्य के लिये मेरा सयत्न होना गर्हित नहीं हा लकता, क्योंकि ‘करत करत अभ्यास के जड़मति होत सुजान’ ।

◆ ‘प्रियप्रवास’ ग्रंथ आद्योपान्त अतुकान्त कविता में लिखा गया है अतः मेरे लिये यह पथ सर्वथा नूतन है अतएव आशा है कि विद्वद्जन इसकी त्रुटियों पर सहानुभूतिपूर्वक दृष्टिपात करेंगे।

◆ संस्कृत के समस्त काव्य-ग्रंथ अतुकान्त अथवा अन्त्यानुप्रासहीन कविता से भरे पड़े हैं। चाहे लघुत्रयी रघुवंश आदि चाहे बृहत्रयी किरातादि, जिसको लीजिये उसी में आप भिन्नतुकान्त कविता का अटल राज्य पायेंगे।

◆  हिन्दी काव्य ग्रंथों में इस नियम का सर्वथा व्यभिचार है । उसमें आप अन्त्यानुप्रास-हीन कविता पावेंगे ही नहीं अन्त्यानुप्रास बड़े ही श्रवण-सुखद होते हैं और कथन को भी मधुरतर बना देते हैं।

◆ हिन्दी काव्य-ग्रन्थों में  नहीं यदि हमारे भारतवर्ष की प्रान्तिक भाषाओं- बंगला, पंजाबी, मराठी, गुजराती आदि- पर आप दृष्टि डालेंगे तो वहां भी अन्त्यानुप्रास का ऐसा ही समादर पायेंगे, उर्दू और फारसी में भी इसकी बड़ी प्रतिष्ठा है, अरबी का तो जीवन ही अन्त्यानुप्रास है, मुसलमानों के प्रसिद्ध धर्मग्रन्थ कुरान को उठा लीजिये, यह गद्य ग्रंथ है, किन्तु इसमें अन्त्यानुप्रास की भरमार है।

◆ चीनी जापानी जिस भाषा को लीजिये, एशिया छोड़कर यूरोप और अफ्रीका में चले जाइये, जहां जाइयेगा वहीं कविता में उसको बहुत ही भद्दी पाया, यदि कोई कविता अच्छी भी मिली तो उसमें वह लावण्य नहीं मिला।

◆ जो संस्कृत वृत्तों में पाया जाता है, अतएव मैंने इस ग्रंथ को संस्कृत वृत्तों में ही लिखा है । यह भी भाषा-साहित्य में एक नई बात है। जहां तक मैं अभिज्ञ हूं अब तक हिन्दी भाषा में केवल संस्कृत छन्दों में कोई ग्रंथ नहीं लिखा गया है। जबसे हिन्दी भाषा में खड़ी बोली की कविता का प्रचार हुआ है तब से लोगों की दृष्टि संस्कृतवृत्तों की ओर आकर्षित है, तथापि मैं यह कहूंगा कि भाषा में कविता के लिये संस्कृत छन्दों का प्रयोग अब भी उत्तम दृष्टि से नहीं देखा जाता।

◆  हम लोगों के आचार्यवत् मान्य श्रीयुत पण्डित बालकृष्ण भट्ट अपनी द्वितीय साहित्य सम्मेलन की स्वागत सम्बन्धिनी वक्तृता में कहते हैं :- —

आज कल छन्दों के चुनाव में भी लोगों की अजीब रुचि हो रही है; इन्द्रवज्रा मन्द्राकान्ता, शिखरिणी आदि संस्कृत छन्दों का हिन्दी में अनुकरण हममें तो कुढ़न पैदा करता है।

‘प्रियप्रवास’ ग्रंथ
प्रारंभ :–  15 अक्तूबर सन् 1909ई.
समाप्त :– – 14 फरवरी  1913 ई.

◆ जिस समय आधे ग्रंथ को मैं लिख चुका था, उस समय माननीय पण्डितजी का उक्त वचन मुझे दृष्टिगोचर हुआ। देखते ही अपने कार्य्यं पर मुझ को कुछ क्षोभ सा हुआ, परन्तु मैं करता तो क्या करता, जिस ढंग से ग्रंथ प्रारम्भ हो चुका था, उसमें परिवर्तन नहीं हो सकता था। इसके अतिरिक्त श्रद्धेय पण्डित जी का उक्त विचार मुझको सर्वांश में समुचित नहीं जान पड़ा, क्योंकि हिन्दी भाषा के छन्दों से संस्कृत वृत्त खड़ी बोली की कविता के लिए अधिक उपयुक्त है, और ऐसी अवस्था में वह सर्वथा त्याज्य नहीं कहे जा सकते।

◆ मेरे उस सिद्धान्त की पुष्टि होती हैं, कि जिसको अवलम्बन कर मैंने संस्कृत वृत्तों में अपना ग्रंथ रचा है उदीयमान युवक कवि पं० लक्ष्मीधर वाजपेयी हिन्दी मेघदूत की भूमिका के  लिखते हैं-
” जबतक खड़ी बोली की कविता में संस्कृत के ललित- वृत्तों की योजना न होगी तब तक भारत के अन्य प्रान्तों के विद्वान उससे सच्चा आनन्द कैसे उठा सकते हैं ? यदि राष्ट्रभाषा हिन्दी के काव्य-ग्रंथों का स्वाद अन्य प्रान्तवालों को भी चखाना है तो उन्हें संस्कृत के मन्दाक्रान्ता, शिखरिणी. मालिनी, पृथ्वी, वसंततिलका, शार्दलविक्रीडित आदि ललित वृत्तों से अलंकृत करना चाहिये। भारत के भिन्न प्रान्तों के निवासी विद्वान् संस्कृत भाषा के वृत्तों से अधिक परिचित हैं, इसका कारण यही है कि संस्कृत भारतवर्ष की पूज्य और प्राचीन भाषा है। भाषा का गौरव बढ़ाने के लिये काव्य में अनेक प्रकार के ललित वृत्तों और नूतन-छन्दों का भी समावेश होना चाहिये ।”

◆ साहित्यममेश, सहृदयवर, समादरणीय श्रीयुत पण्डित मनन द्विवेदी लिखते हैं-
“यहाँ एक बात बतला देना बहुत जरूरी है। जो बेतुकान्त की कविता लिखे, उसको चाहिये कि संस्कृत के छन्दों को काम में लाये। मेरी ख्याल है कि हिन्दी पिंगल के छन्दों में बेतुकान्त की कविता अच्छी नहीं लगती।स्व. साहित्याचार्य पं. अम्बिकादत्तजी व्यास ऐसे विद्वान भी हिन्दी छन्दों में अच्छी बेतुकान्त की कविता नहीं कर सके । कहना नहीं होगा कि व्यासजी का कंस वध-काव्य बिल्कुल रद्दी हुआ है।”

? भाषाशैली :

◆ ‘प्रियप्रवास’ की भाषा संस्कृतगर्भित है ।

◆  उसमें हिन्दी के स्थान पर संस्कृत का रंग अधिक है।

◆ अनेक विद्वान् सज्जन इससे रुष्ट होंगे, कहेंगे कि यदि इस भाषा में ‘प्रियप्रवास’ लिखा गया तो अच्छा होता यदि संस्कृत में ही यह ग्रन्थ लिखा जाता।

भट्ट जी  कहते हैं-
“दूसरी बात जो मैं आजकल खड़ी बोली के कवियों में देख रहा हूं, वह समासवद्ध-क्लिष्ट संस्कृत शब्दों का प्रयोग है, यह भी पुराने कवियों की पद्धति के प्रतिकूल है ।

◆ इस विचार के लोगों से मेरी यह विनीत-प्रार्थना है कि क्या मेरे इस एक ग्रन्थ से ही भाषा-साहित्य की शैली परिवर्तित हो जावेगी ? क्या मेरे इस काव्य की लेखप्रणाली ही अर्थ से सर्वत्र प्रचलित और गृहित होगी १ यदि नहीं, तो इस प्रकार का तर्क समीचीन न होगा।

◆ जो सज्जन मेरे इतना निवेदन करने पर भी अपनी भौंह की बंकता निवारण न कर सकें, उनसे मेरी यह प्रार्थना है कि वे ‘वैदेही वनवास’ के करकमलों में पहुंचने तक मुझे क्षमा करें, इस ग्रन्थ को मैं अत्यन्त सरल हिन्दी और प्रचलित छन्दों में लिख रहा हूँ ।

◆  ‘ क्या रामचरितमानस’ ‘ रामचन्द्रिकाऔर ‘विनयपत्रिका’ से भी, ‘प्रियप्रवास’ अधिक संस्कृतगर्भित है, मेरे इस वाक्य से संभव है कि कुछ भ्रम उत्पन्न होवे और यह समझा जावे कि मैं इन पूज्य ग्रन्थों के वन्दनीय ग्रन्थकारों से स्पर्द्धा कर रहा हूं और अपने कांच की हीरक खण्ड के साथ तुलना करने में सयत्न हूँ । अतएव मैं यहां स्पष्ट शब्दों में प्रगट कर देता हूं कि मेरे उक्त वाक्य का मर्म केवल इतना ही है कि संस्कृत शब्दों के बाहुल्य से कोई ग्रन्थ अनाहत नहीं हो सकता।

 

◆ हिन्दी के कतिपय वर्तमान साहित्यसेवियों का यह भी विचार है, कि खड़ी बोली में सरस और मनोहर कविता नहीं हो सकती ।

◆ पूज्य पण्डितजी अपने उक्त भाषण में ही एक स्थान पर लिखते हैं-
“खड़ी बोली की कविता पर हमारे लेखकों का समूह इस समय टूट पड़ा है । आज कल के पत्रों और मासिक पत्रिकाओं मैं बहुत सी इस तरह की कवितायें छपी हैं, परन्तु इनमें अधिकतर ऐसी हैं जिनको कविता कहना ही कविता की मानो हँसी करना है; हमें तो काव्य के गुण इनमें बहुत कम जँचते हैं ।”

“मेरे विचार में खड़ीबोली में एक इस प्रकार का कर्कशपन है कि कविता के काम में ला उसमें सरसता सम्पादन करना प्रतिभावान के लिये भी कठिन है तब तुकबन्दी करने- वालों की कौन कहे ।”

◆ इन सज्जनों का विचार यह है कि ‘मधुर कोमल-कान्त- पदावली’ जिस कविता में न हो वह भी कोई कविता है !

◆  कविता तो वही है जिसमें कोमल शब्दों का विन्यास हो, जो मधुर अथच कान्त पदावली द्वारा अलंकृत हो ।

◆  खड़ी बोली में अधिकतर संस्कृत शब्दों का प्रयोग होता है, जो हिन्दी के शब्दों की अपेक्षा कर्कश होते हैं। इसके व्यतीत उसकी क्रिया भी ब्रजभाषा की क्रिया से रूखी और कठोर होती है, और यही कारण है कि खड़ी बोली की कविता सरस नहीं होती और कविता का प्रधान गुण माधुर्य्य और प्रसाद उसमें नहीं पाया जाता।

◆  यहां पर मैं यह कहूंगा कि पदावली की कान्तता, मधुरता, कोमलता केवल पदावली में ही सन्निहित है या उसका कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से भी है ? मेरा विचार है कि उसका कुछ सम्बन्ध नहीं, वरन् बहुत कुछ सम्बन्ध मनुष्य के संस्कार और उसके हृदय से है।

◆ कर्पूरमंजरीकार प्रसिद्ध राजशेखर कवि
कहते है कि ‘संस्कृत की रचना परुष और प्राकृत की सुकुमार होती है; पुरुष स्त्री में जो अन्तर है वही अन्तर इन दोनों में है ।”

◆ कोमल-कान्त-पद कौन हैं ? वही जिनके उच्चारण में मुख को सुविधा हो और जो श्रुतिकटु न हों। संयुक्ताक्षर और टवर्ग जिस रचना में जितते न्यून होंगे वह रचना उतनी ही कोमल और कान्त होगी और वे जितने अधिक होंगे उतनी ही अधिक वह कर्कश होगी।  प्राकृत श्लोक और वाक्य में ही अधिक पावेंगे, और ऐसी दशा में यह सिद्ध है कि प्राकृत से संस्कृत की ही पदावली कोमल मधुर और कान्त है

◆ प्राकृत भाषा की उत्पत्ति ही सरलता और कोमलता मूलक है। अर्थात् प्राकृत भाषा उसी का नाम है जो संस्कृत के कर्कश शब्दों को कोमल स्वरूप में ग्रहण कर जन साधारण के सम्मुख यथाकाल उपस्थित हुई है और ऐसी अवस्था में यह निर्विवाद है कि संस्कृत भाषा से प्राकृत कोमल और कान्त होगी मैं इस युक्ति को सर्वांश में स्वीकार करने के लिये प्रस्तुत नहीं हूँ । यह सत्य है कि प्राकृत भाषा में अनेक शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत के कर्कश स्वरुप को छोड़ कर कोमल हो गये हैं । किन्तु कितने शब्द ऐसे हैं जो संस्कृत शब्दों का मुख्य रूप त्याग कर उच्चारण विभेद से नितान्त कर्णकटु हो गये हैं।

◆ आज कल प्राकृत भाषा हम लोगों को इतनी अपरिचिता है कि उसके बहुत से शब्दों का व्यवहार करने के कारण ही, हम लोग अनुराग के साथ ‘पृथ्वीराज रासो’ को नहीं पढ़ सकते, और उससे घबड़ाते हैं ।

◆ चन्द की रचना में तो प्राकृत शब्द मिलते भी हैं, वरन् कहीं कहीं अधिकता से मिलते हैं, किन्तु महाकवि चन्द पश्चात् के जितने कवियों की कविता मिलती हैं उनमें प्राकृत- भाषा के शब्दों का व्यवहार बिल्कुल नहीं पाया जाता। कारण इसका यह है कि इस समय प्राकृत भाषा का व्यवहार उठ गया था, और हिन्दी का राज्य हो गया था।

◆  इस काल की रचना में अधिकांश हिन्दी शब्द ही पाये जाते हैं, हिन्दी शब्द के साथ आते हैं तो संस्कृत शब्द आते हैं प्राकृत के शब्द बिल्कुल नहीं आते महात्मा तुलसीदास, भक्तवर सूरदास और कविवर केशवदास की रचना में तो कहीं कहीं हिन्दी शब्दों से भी अधिक संस्कृत शब्दों का प्रयोग हुआ है।

◆ जब वैदिक धम्मं के साथ साथ संस्कृत भाषा का फिर आदर हुआ, तब यह असंभव था कि प्राकृत शब्दों के स्थान पर फिर संस्कृत शब्दों से अनुराग न प्रकट किया जाता।

◆  सर्व- साधारण की बोल-चाल की भाषा का त्याग असंभव था, किन्तु यह संभव था कि उसमें उपयुक्त संस्कृत शब्द ग्रहण कर लिये जावें निदान उस काल और उसके परवर्ती काल के कवियों की रचना मैंने जो ऊपर उदधृत की हैं उनमें आप यही बातें पायेंगे ।

◆ प्राकृत, कोमल, कान्त और मधुर होकर भी क्यों त्यक्त हुई ? इस लिये कि सर्वसाधारण का संस्कार और हृदय उसके अनुकूल न रहा, इस लिये कि वह बोलचाल की भाषा दूर जा पड़ी और बोधगम्य न रही।

◆ संस्कृत के शब्द बोल- चाल की भाषा से और भी दूर पड़ गये थे और वह भी बोध- गम्य नहीं थे, किन्तु धार्मिक संस्कार ने उसके साथ सहानुभूति की और इस सहानुभूति जनित-हृदय-ममता ने उसको पुनः समादर का मान दिया।

◆  जिस कविता के पठन करने में मुख को सुविधा हुई, सुनने में कान को आनन्द हुआ, किन्तु समझने में मन को श्रम करना पड़ा, तो वह कविता अवश्य उद्वेगकर होगी, और यदि अपार श्रम करके भी मन उसको न समझ सका तो उसकी कान्तता और कोमलता उसकी दृष्टि में कठोरता, दुरूहता और जटिलता की मूर्त्ति छोड़ और क्या होगी ?

◆  इसके विपरीत वह यदि लिखने पढ़ने किंवा बोलचाल की भाषा की निकटवर्त्तिनो हो मन के श्रम का आधार न हो और उसमें मुख-सुविधा- कारक अथच श्रवणसुखद-शब्द पर्याप्त न भी
पाये जायें तो भी वह कविता आदृत ओर गृहीत होगी और उसके श्रवणकटु एवं मुख-असुविधा- कारक शब्द कोमल और कामत बन जायेंगे क्योंकि सुविधा ही प्रधान है ।

◆ जब इस व्यापार में धार्मिक किंवा जातिभाषा – मूलक संस्कार भी कर सम्मिलित हो जाता है तब इसका रंग और गहरा हो जाता है।

◆ ब्रजभाषा ऐसी मधुर भाषा दूसरी नहीं मानी जाती, किन्तु कुछ लोगों का विचार है कि फ़ारसी के समान मधुर भाषा संसार में दूसरी नहीं है इस भाषा का प्रसिद्ध विद्वान् और कवि अलीहजी जब हिन्दुस्तान में आया, तो उसको बृजभाषा के माधुर्य की प्रशंसा सुन कर कुछ स्पर्द्धा हुई। वह ब्रजप्रान्त में इस कथन की सत्यता की परीक्षा के लिये गया मार्ग में उसको एक ग्वालिन जल ले जाते हुए मिली जिसके पीछे पीछे एक छोटी कोमला बालिका यह कहती हुई दौड़ रही थी, ‘मायरे माय महि सांकरी पगन मैं कांकरी गड़तु हैं।’ इस बालिका का कथन सुन कर वे चक्कर में आ गये और सोचा कि जहां की गंवार बालिकाओं का ऐसा सरस भाषण है, वहां के कवियों की बाणी का क्या कहना ! परन्तु उनके सहधर्मियों ने इसी परम लावण्यवती, कोमला, अथवा मनोहर ब्रजभाषा का क्या समादर किया, उन्होंने चुन – चुन कर इसके शब्दों को अपनी कविता में से निकाल बाहर किया, और उनके स्थान पर फारसी अरबी के कोमल और श्रुतिकटु शब्दों को भर दिया

◆ सबसे पहले मुसलमान कवि जिन्होंने हिन्दी भाषा में कविता करने के लिये लेखनी उठाई, अमीर खुसरो थे।

◆  पहले मुसलमान कवियों ने जो रचना की है उसमें या तो हिन्दी पदों और शब्दों को बिल्कुल फारसी पद या शब्दों से अलग रखा है, फारसी या अरबी शब्दों को मिलाया है तो बहुत ही कम अधिकांश हिन्दी शब्दों से ही काम लिया है।

◆ अब मुझे केवल इतना ही कहना है कि समय का प्रवाह खड़ी बोली के अनुकूल है, इस समय खड़ी बोली में कविता करने से अधिक उपकार की आशा है, अतः एव मैंने भी ‘प्रियप्रवास’ को खड़ी बोली में ही लिखा है संभव है कि उसमें अपेक्षित कोमलता और कान्तता न हो, परन्तु इससे यह सिद्धान्त नहीं हो सकता कि खड़ी बोली में सुन्दर कविता हो ही नहीं सकती । वास्तव बात यह है कि यदि उसमें कान्तता और मधुरता नहीं आई है, तो यह मेरी विद्या, बुद्धि और प्रतिभा का दोष हैं, खड़ी बोली का नहीं ।

?ग्रन्थ का विषय:-

◆ इस ग्रन्थ का विषय :- श्रीकृष्णचन्द्र को मथुरायात्रा है, और इसी से इसका नाम प्रियप्रवास रखा गया है ।

◆  कथासूत्र से मथुरायात्रा के अतिरिक्त उनकी और ब्रजलीलायें भी यथास्थान इसमें लिखी गई हैं।

◆ जिस विषय के लिखने के लिये महर्षि व्यासदेव, कविशिरोमणि सूरदास, और भाषा के अपर मान्य कवियों और विद्वानों ने लेखनी की परिचालना की है उसके लिये मेरे जैसे मंदधी का लेखनी उठाना नितान्त मूढ़ता है परन्तु जैसे रघुवंश लिखने के लिये लेखनी उठा कर कविकुल- गुरु कालिदास ने कहा था, “मणोबजूसमुत्कीर्णे सूत्रस्येवा- स्ति मे गतिः ।”

  • उसी प्रकार इस अवसर पर मैं भी स्वच्छ हृदय से यही कहूंगा “अति अपार जे सरित वर, जो नृप सेतु कराहि चदि पिपीलिका परम लघु, बिनु भ्रम पारहि जाहि ॥’ रहा यह कि वास्तव में मैं पार जा सका हूँ या बीच ही में रह गया हूं किंवा उस पावन सेतु पर चलने का साहस करके मिन्दित बना हूं इसकी मीमांसा विबुध जन करें ।

◆ मेरा विचार तो यह है कि मैंने इस मार्ग में भी अनुचित दुस्साहस किया है, अतएव तिरस्कृत और कलंकित होने की ही आशा है। हां, यदि मर्म्मज्ञ विद्वजन इसको उदार दृष्टि से पढ़ कर उचित संशोधन करेंगे. तो आशा है कि किसी समय मैं ग्रन्थ का विषय भी रसिकों के लिये आनन्दकारक होगा ।

◆ हम लोगों का एक संस्कार है, वह यह कि जिनको हम अवतार मानते हैं उनका चरित्र जब कहाँ दृष्टिगोचर होता से है तो हम उसकी प्रति पंक्ति में या न्यून से न्यून उसके प्रति पृष्ठ में ऐसे शब्द या वाक्य अवलोकन करना चाहते हैं, जिसमें उसके ब्रह्मत्व का निरुपण हो ।

◆ जो सज्जन इस विचार के हों, वे मेरे प्रेमाम्बुप्रश्रवण, प्रेमाम्बुप्रवाह, और
प्रेमाम्बुवारिधि नामक ग्रन्थों को देखें, उनके लिये यह ग्रन्थ नहीं रचा गया है।

◆ मैंने श्रीकृष्णचन्द्र को इस ग्रन्थ में एक महापुरुष की भांति अंकित किया है, ब्रह्म करके नहीं ।

◆ अवतारवाद की जड़ मैं श्रीमद्भगवद्गीता का यह श्लोक मानता हूं’ यद् यद् विभूतिमत्सत्वं श्रीमदूर्जितमेव वा । तत्तदेवावगच्छत्वं ममतेजोशसंभवम्’ अतएव जो महापुरुष है, उसका अवतार होना निश्चित है।

◆  मैंने भगवान श्रीकृष्ण का जो चरित अंकित किया है, उस चरित का अनुधावन करके आप स्वयं विचार करें कि वे क्या थे, मैंने यदि लिख कर आपको बतलाया कि वे ब्रह्म थे, और तब आपने उनको पहचाना तो क्या बात रहा!

◆  आधुनिक विचारों के लोगों को यह प्रिय नहीं है कि आप पंक्ति –  पंक्ति में तो भगवान् श्रीकृष्ण को ब्रह्म लिखते चलें, और चरित्र लिखने के समय ‘कर्तुं मकर्तुं मन्यथा कर्तुं समर्थः प्रभुः’ के रंग में रंग कर ऐसे कार्यों का कर्त्ता उहें बनावें, कि जिनके करने में एक साधारण विचार के मनुष्य को भी घृणा होवे ।

◆ संभव है कि मेरा यह विचार समीचीन न समझा जावे परन्तु मैंने उसी विचार को सम्मुख रख कर इस ग्रन्थ को लिखा है, और कृष्णचरित को इस प्रकार अंकित किया है, जिससे कि आधुनिक लोग भी सहमत हो सके । आशा है। कि आप लोग दयार्द्रा हृदय से मेरे उद्देश्य के समझने की चेष्टा करेंगे ।

? वर्णन शैली :-

◆ रुचि – वैचित्र्य स्वाभाविक है! कोई संक्षेप वर्णन को प्यार करता है कोई विस्तृत वर्णन को किसी को कालिदास की प्रणाली प्रिय है, किसीको भवभूति की ।

◆  संक्षेप वर्णन से जो हृदय पर क्षणिक गहरा प्रभाव पड़ता है कोई उसको आदर देता है, कोई उस विस्तृत वर्णन से मुग्ध होता है, जिसमें कि पूरी तौर पर रस का परिपाक हुआ हो ।

◆ निदान किसी ग्रन्थ की वर्णनशैली का प्रभाव किसी मनुष्य पर उसकी रुचि के अनुसार पड़ता है।

◆ जो विस्तृत वर्णन को नहीं प्यार करता वह अवश्य किसी ग्रन्थ के विस्तृत वर्णन को पढ़ कर ऊब जावेगा, इसी प्रकार जिसको किसी रस का संक्षेप वर्णन प्रिय नहीं, वह अवश्य एक ग्रन्थ के संक्षेप वर्णन को पढ़ कर अतृप्त रह जावेगा । और यही कारण है कि प्रतिष्ठित ग्रन्थकारों की समालोचन ये भी नाना रूप में होता हैं।

◆ मैंने अपने ग्रन्थ में वर्णन के विषय में मध्यपथ ग्रहण किया है, किन्तु इस दशा में भी संभव है कि किसी सज्जन को कोई प्रसंग संक्षेप में वर्णन किया जान पड़े और किसी को कोई कथा भाग अनुचित विस्तार से लिखा गया ज्ञात हो।

◆ मैं अत्यन्त अनुगृहीत हुंगा यदि ग्रन्थ के सहृदय पाठकगण इस विषय में मुझे समुचित सम्मति देंगे; जिसमें कि दूसरी अवृत्ति में मैं अपने वर्णनों पर उचित मीमांसा कर सके।

? कवितागत कतिपय शब्द :-

◆  सब भाषाओं में गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है, कारण यह है कि छन्द के नियम में बँध जाने से ऐसी अवस्था प्रायः उपस्थित हो जाती है, कि जब उसमें शब्दों को तोड़ मरोड़ कर रखना पड़ता है, या उसमें कुछ ऐसी शब्द सुविधा के लिये रख देने पड़ते हैं, जो गद्य में व्यवहृत नहीं होते यह हो सकता है कि जो शब्द तोड़ या मरोड़ कर रखना पड़े वह या गद्य में व्यवहृत शब्द कविता में से निकाल दिया जावे परन्तु ऐसा करने में बड़ी भारी कठिनता का सामना करना पड़ता है, और कभी कभी तो यह दशा हो जाती है कि ऐसे शब्दों के स्थान पर दश शब्द रखने से भी काम नहीं चलता; इस लिये कवि उन शब्दों को कविता में रखने के लिये बाध्य होता है।

◆  कभी कभी ऐसा होता है कि उन शब्दों के पर्यायवाची दूसरे शब्द उसी भाषा में मौजूद होते हैं, और यदि वे शब्द उन शब्दों के स्थान पर रख दिये जायें तो किसी शब्द को विकलांग बना कर या गद्य में अव्यवहृत शब्द रखने के दोष से कवि मुक्त हो सकता है, परन्तु लाख चेष्टा करने पर भी कवि को समय पर वे शब्द स्मरण नहीं आते, और वह विकलांग अथवा गद्य में

अव्यवहृत शब्द रख कर ही काम चलाता है। और यही कारण है कि गद्य की भाषा से पद्य की भाषा में कुछ अन्तर होता है ।

◆ कविकर्म बहुत ही दुरूह है ।

◆ जब कवि किसी कविता का एक चरण निर्माण करने में तन्मय होता है, तो उस समय उसको बहुत ही दुर्गम और संकीर्ण मार्ग में हो कर चलना पड़ता है।
● प्रथम तो छन्द की गिनी हुई मात्रा अथवा गिने हुए वर्ण उसका हाथ पांव बांध देते हैं, उसकी क्या मजाल की वह उसमें से एक मात्रा घटा या बढ़ा देवे, अथवा एक गुरू को लघु स्थान पर या एक गुरू के स्थान पर एक लघु को रख देवे । यदि वह ऐसा करे तो वह छंदरचना का अधिकारी नहीं जो इस विषय में सतर्क होकर वह आगे बढ़ा।
● हृदय के भावों और विचारों को उतनी ही मात्रा वा उतने ही वर्षो में प्रगट करने का झगड़ा सामने आया, इस समय जो उलझन पड़ती है, उसको कविहृदय ही जानता है। यदि विचार नियत मात्रा अथवा वर्णों में स्पष्टतया न प्रगट हुआ, तो उसको यह दोष लगा कि उसका वाच्यार्थ साफ नहीं, यदि कोमल वर्णों में वह स्फुरित न हुआ, तो कविता श्रुतिकटु हो गई यदि उसमें कोई घृणा व्यञ्जक शब्द आ गया तो अश्लीलता की उपाधि शिर चढ़ी, यदि शब्द तोड़े मरोड़े गये तो च्युत दोष ने गला दबाया, यदि उपयुक्त शब्द न मिले तो सौ सौ पलटा खाने पर भी एक चरण का निर्माण दुस्तर हो गया, यदि शब्द यथास्थान न पड़े तो दूरान्वय दोष ने आँखें दिखायीं ।

◆ कहां तक कहें, ऐसी कितनी बातें हैं, जो कविता रचने के समय कवि को उद्विग्न और चिन्तित करती हैं।

◆ प्रसिद्ध बहारदानिश ग्रन्थ के रचयिता ने बड़ी सहृदयता से एक स्थान पर यह शेर लिखा है-

बराय पाकिये लफ्जे शबे बरोज़ आरन्द।
कि मुर्ग़ माही बाशन्द खुफ्ता ऊबेदार ॥

इसका अर्थ यह है कि कवि एक शब्द को परिष्कृत करने के लिये उस रात्री जो जाग कर दिन में परिणत करता है, कि जिसको चिड़ियों और मछलियाँ तक निद्रादेवी के शान्तिमय अंक में शिर रख कर व्यतीत करती हैं।”

◆ यदि कवि- कर्म इतना कठोर न होता तो कवि-कुलगुरू कालिदास जैसे असाधारण विद्वान और विद्या-बुद्धि निधान, ‘त्रयम्बकम्
संयमिनं ददर्श’ इस श्लोकखण्ड में ‘त्र्यम्बम्’ के स्थान पर ‘त्रयम्बकम्’ न लिख जाते, जो कि त्र्यम्बकम्’ का अशुद्ध रूप है। यदि इस त्रयम्बकम् के स्थान पर वह त्रिलोचनम् लिखते तो कविता सर्वथा निर्दोष होती किन्तु उन्होंने ऐसा नहीं किया जिससे यह सिद्ध होता है, कि कविता करने के समय बहुत चेष्टा करने पर भी उनको यह शुद्ध और कोमल शब्द स्मरण नहीं आया, और इसीसे उन्होंने एक ऐसे शब्द का प्रयोग किया जो च्युत दोष से दूषित है।

◆ किसी ने लिखा है कि उस काल में एक ऐसा व्याकरण प्रचलित था कि जिसके अनुसार त्रयम्बकम् शब्द भी अशुद्ध नहीं है, किन्तु यह कथन ऐसे लोगों का उस समय तक मान्य नहीं है, जब तक कि वह व्याकरण का नाम बतला कर उस सूत्र को भी न बतादें कि जिसके द्वारा यह प्रयोग भी शुद्ध सिद्ध हो।

◆ इस विचार के लोग यह समझते हैं कि यदि कवि-कुल-गुरु- कालिदास का रचना में कोई अशुद्धि मान ली गई, तो फिर उनकी विद्वत्ता सर्वमान्य कैसे होगी। उनकी वह प्रतिष्ठा जो संसार की दृष्टि में एक चकितकर वस्तु है, कैसे रहेगी। अतएव येनकेन प्रकारेण वे लोग एक साधारण दोष को छिपाने के लिये एक बहुत बड़ा अपराध करते हैं, जिसको बिबुध- समाज नितान्त गर्हित समझता हूँ

◆  जिसकी रचना अधिकांश सुन्दर है, जिसके भाव लोक-विमुग्धकर और उपकारक हैं, उसकी रचना में यदि कहीं कोई दोष आ जावे तो उसपर कोन सहृदय दृष्टिपात करता है, और यदि दृष्टि-
करता है तो वह सहृदय नहीं।

◆ संसार में निर्दोष कौन वस्तु है ? सभी में कुछ न कुछ दोष है, जो शरीर बड़ा प्यारा है, उसी को देखिये उसमें कितना मल है । चन्द्रमा में कलंक है, सूर्य में धब्बे हैं, फूल में कीड़े हैं, तो क्या ये संसार जी आदरणीय वस्तुनों में नहीं हैं ? वरन् जितना इन का आदर है अन्य का नहीं है ।

◆  कवि कर्म-कुशल – कालिदास की रचना इतनी अपूर्व और प्यारी है, इतनी सरस और सुन्दर है, इतनी उपदेशमय और उपकारक है, कि उसमें यदि एक दोष नहीं सैकड़ों दोष होवें, तो भी वे स्निग्ध-पत्रावली-परिशोभित मनोरम- पुष्प फल-भार- विनम्र, पादक के, दस पांच नीरस, मलीन, विकृत पत्तों समान दृष्टि डालने योग्य न होंगे।

◆  मैं यह कह रहा था कि कवि-कर्म नितान्त दुरूह है।

◆ अलौकिक प्रतिभाशाली कालिदास जैसे जगन्मान्य कवि भी इस दुरू हता- वारिधि सन्तरण में कभी – कभी क्षमा नहीं होते। जिनका पदानुसरण करके लोग साहित्यपथ में पांव रखना सीखते हैं उन हमारे संस्कृत और हिन्दी के धुरन्धर और मान्य साहित्याचायों की मति भी इस संकीर्ण स्थल पर कभी – कभी कुण्ठित होती है और जब ऐसों की यह गति है तो साधारण कवियों की कौन कहे ?

◆ मैं कवि कहलाने योग्य नहीं, टूटी फूटी कविता करके कोई कवि नहीं हो सकता, फिर यदि मुझसे भ्रम प्रमाद हो।

◆ यदि मेरी कविता में अनेक दोष होवें तो क्या आश्चर्य! अतएव आगे जो मैं लिखूंगा, उसके लिखने का यह प्रयोजन नहीं है, कि मैं रूपान्तर से अपने दोषों को छिपाना चाहता हूं- प्रत्युत उसके लिखने का उद्देश्य कतिपय शब्दों के प्रयोग पर प्रकाश डालना मात्र है ।

? कांतपय क्रिया :-

◆ हिन्दी गद्य में देखने के अर्थ में अधिकांश देखना धातु के रूपों का ही व्यवहार होता है।

◆ कोई  – कोई कभी अवलोकना, विलोकना, दरसना, जोहना, लखना धातु के रूपों का भी प्रयोग करते हैं, किन्तु इसी अर्थ के द्योतक निरखना और निहारना धातु के रूपों का व्यवहार बिल्कुल नहीं होता । अतएव इन कतिपय क्रियाओं के रूपों का व्यवहार कोई – कोई खड़ी बोली के पद्य में करना उत्तम नहीं समझते, किन्तु मेरा विचार है कि इन कतिपय क्रियाओं से भी यदि खड़ी बोली के पद्यों में संकीर्ण स्थलों पर काम लिया जावे तो उसके विस्तार और रचना में सुविधा होगी।

◆  मैंने अपनी कविता में देखने के अर्थ में इन क्रियाओं के रूपों का व्यवहार भी उचित स्थान पर किया है। ऐसे ही कुछ और क्रियायें हैं। जो ब्रजभाषा की कविता में तो निस्सन्देह व्यवहृत होती हैं, परन्तु खड़ी बोली के गद्य में इनका व्यवहार सर्वथा सहीं होता, या यदि होता है तो बहुत न्यून किन्तु मैंने अपनी कविता में इनको भी निस्संकोच स्थान दिया है।

? कुछ वर्णों का हलन्त प्रयोग :-

◆ हिन्दी भाषा के कतिपय सुप्रसिद्ध गद्य-पद्य लेखकों को देखा जाता है कि ये इसका, उसका, इत्यादि को इस्का, उस्का इत्यादि और करना, धरना, इत्यादि को कर्ना, धर्ना, इत्यादि लिखने के अनुरागी हैं। पद्य में ही संकीर्ण स्थलों पर वे ऐसा नहीं करते, गद्य में भी इसी प्रकार इन शब्दों का व्यवहार वे उचित समझते हैं।

◆ खड़ी बोली की कविता के लब्धप्रतिष्ठ प्रधान लेखक श्रीयुत पण्डित श्रीधर पाठक लिखित नीचे की कतिपय गद्य-पद्य की पंक्तियों को देखिये
“यह एक प्रेम-कहानी आज आपको भेंट की जाती है- निसन्देह इस्में ऐसा तो कुछ भी नहीं जिस्से यह आपको एकही बार में अपना सके ।”

◆ ऐसे स्थलों पर यह प्रयोग अधिक निन्दनीय नहीं है, किन्तु गद्य में अथवा वहां जहां कि शुद्ध रूप में यह शब्द लिखे जा सकते हैं इन शब्दों का संयुक्त रूप में प्रयोग मैं उचित नहीं समझता; इसके निम्न लिखित कारण है:-

  • यह कि गद्य की भाषा में जो शब्द जिस रूप में व्यवहृत होते हैं मुख्य अवस्थाओं को छोड़ कर पद्य की भाषा में भी उन शब्दों का उसी रूप में व्यवहृत होना समीचीन, सुसंगत और बोधगम्य होगा
  • यह कि उसको जिसमें जिसको इत्यादि शब्दों को प्राचीन और आधुनिक अधिकांश गद्य-पद्य-लेखक इसी रूप में लिखते आते हैं, फिर कोई कारण नहीं है कि इस प्रचलित प्रणाली को बिना किसी मुख्य हेतु के परित्याग किया जावे।
  • यह कि हिन्दी भाषा की स्वाभाविक प्रवृत्ति यथासं- भव संयुक्ताक्षरत्व से बच कर रहने की है, अतएव उसके सर्वनाम इत्यादि को जो कि समय-प्रवाह सत्र से संयुक्त रूप में नहीं हैं संयुक्त रूप में परिणत करना दुर्योधता और क्लिष्टता सम्पादन करना होगा ।

◆ मैं यह स्वीकार करता हूं कि कभी – कभी मात्रिक छन्दों में भी स्वरसंयुक्त वर्ण को हलन्तवत पढ़ने से ही छन्द की गति निर्दोष रहती है, और कहीं कहीं इस छन्द में भी वर्ण वृत्त के समान नियमित स्थान पर नियत रीति से लघु गुरु रखने से ही काम चलता है।

◆ मैंने इन्हीं बातों पर दृष्टि रख कर ‘प्रियप्रवास’ में इसको जिसको, करना, इत्यादि को इसी रूप में लिखा है उन को संयुक्ताक्षर का रूप नहीं दिया है। न जन, मन, मदन, वस, अब, इत्यादि के अंतिम अक्षरों को कहीं गुरु बनाने के लिये हलन्त किया है, आशा है मेरी यह प्रणाली बुधजन द्वारा अनुमोदित समझी जावेगी ।

◆ खड़ी बोलचाल की कविता में गद्य के संसर्ग से वह शुद्ध रूप में भी लिखे जाने लगे हैं। किन्तु आवश्यकता पड़ने पर उनके अपभ्रंश रूप से भी काम लिया जाता है।

◆ मेरे विचार में यह दोनों प्रणाली ग्राह्य हैं । हलन्त वर्ण को सस्वर करके लिखने और युक्त वर्ण को अयुक्त वर्ण का रूप देने की प्रथा प्राचीन है और उसके पास आचायों और प्रधान काव्यकर्त्ताओं द्वारा व्यवहार किये जाने की सनद भी है।

◆ हिन्दी भाषा की कथित प्रकृति पर दृष्टि रख कर ह। प्राचीन कतिपय लेखकों ने पद्य क्या गद्य में भी अनेक शब्दों के हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना प्रारम्भ कर दिया था। मुख्यतः वे उस हलन्त वर्ण को प्रायः सस्वर करके लिखते थे जो कि किसी शब्द के अन्त में होता था।

◆ आज कल गद्य में किसी हलन्त वर्ण को सस्वर लिखना तो उठता हो जाता रहा है, प्रत्युत पद्य में भी इसका प्रचार हो चला है। मध्य के हलन्त वर्ण की बात तो दूर रही इन दिनों किसी शब्द के अन्त्यस्थित हलन्त को भी कतिपय आधुनिक प्रधान लेखक सस्वर लिखना नहीं चाहते ।

? विशेषण विभिन्नता :-

◆ हिन्दीभाषा के गद्य –  पद्य दोनों में विशेषण के प्रयोग में विभिन्नता देखी जाती है । सुन्दर स्त्री, या सुन्दरी स्त्री, शोभित लता, या शोभिता लता, दोनों लिखा जाता है ।

? ब्रजभाषा शब्दप्रयोग :-

आज कल के कतिपय साहित्य सेवियों का विचार है कि खड़ी बोली की कविता इतनी उन्नत हो गई है, और इस पद पर पहुंच गई है, कि उसमें ब्रजभाषा के किसी शब्द का प्रयोग करना उसे अप्रतिष्ठित बनाना है । परन्तु मैं इस विचार से सहमत नहीं हूं ब्रजभाषा कोई पृथक् भाषा नहीं है, इस के अतिरिक्त उर्दू शब्दों से उसके शब्दों का हिन्दीभाषा पर विशेष स्वत्व है अतएव कोई कारण नहीं है कि उर्दू के शब्द तो निस्संकोच हिन्दी में गृहीत होते रहें, और बृजभाषा के उपयुक्त और मनोहर शब्दों के लिये भी उसका द्वार बन्द कर दिया जावे।

◆ मेरा विचार है कि खड़ी बोलवाल का रंग रखते हुए जहां तक उपयुक्त एवं मनोहर शब्द ब्रजभाषा के मिलें उनके लेने में संकोच न करना चाहिये।

◆ जब उर्दू भाषा सर्वथा ब्रजभाषा के शब्दों से अब तक रहित नहीं हुई तो हिन्दी भाषा उससे अपना सम्बन्ध कैसे विच्छिन्न कर सकती है इसके व्यतीत मैं यह भी कहूंगा कि उपयुक्त ओर आवश्यक शब्द किसी भाषा का ग्रहण करने के लिये सदा हिन्दी भाषा का द्वार उम्मुक्त रहना चाहिये, अन्यथा वह परिपुष्ट और विस्तृत होने के स्थान पर निर्वत और संकुचित हो जावेगी ।

? दोषचालन चेष्टा :-

◆ इस ग्रन्थ के लिखने में शब्दों के व्यवहार का जो पथ ग्रहण किया गया है, मैंने यहां पर थोड़े में उसका दिग्दर्शन मात्र किया है। इस ग्रन्थ के गुण दोष के विषय में न तो मुझको कुछ कहने का अधिकार है, और न मैं इतनी क्षमता ही रखता हूं कि इस जटिल मार्ग में दो चार डेग भी उचित रीत्या चल सकू ।

◆  शब्ददोष, वाक्यदोष, अर्थदोष और रसदोष इतने गहन हैं, और इतने सूक्ष्म इसके विचार एवं विभेद हैं, कि प्रथम तो उनमें यथार्थ गति होना असम्भव है, और यदि गति हो जावे, तो उसपर दृष्टि रख कर काव्य करना नितान्त दुस्तर है यह धुरन्धर और प्रगल्भ विद्वानों की बात है, हमसे अबोधों की तो इस पथ में कोई गणना ही नहीं।

◆ जब यह अवस्था है, तो मुझसे अल्पश का अपनी साधारण कविता को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा करमा मूर्खता छोड़ और कुछ नहीं हो सकता अतएव मेरी इन कतिपय पंक्तियों को पढ़ कर यह न समझना चाहिये कि मैंने इनको
लिख कर अपने ग्रन्थ को निर्दोष सिद्ध करने की चेष्टा की है।
● प्रथम तो अपना दोष अपने को सूझता नहीं।
●  दूसरे कविकर्म महा कठिन ऐसी अवस्था में यदि कोई अलौकिक प्रतिभाशाली विद्वान भी ऐसी चेष्टा करे तो उसे उपहासास्पद होना पड़ेगा।

◆ इस ग्रन्थ के मुद्रण करने में जो उत्साह परमप्रिय, चिरंजीव, महाराजकुमार बाबू रामरणविजय सिंह, अध्यक्ष खगंविलास प्रेस, बांकीपुर और उनके प्रधान सहकारी बन्धु- वर बाबू गोकर्ण सिंह ने दिखलाया है, अन्त में उसके विषय में उन सज्जनों को अनेक धन्यवाद देते हुए मैं इस भूमिका को समाप्त करता हूँ ।
विनीत, हरिऔध

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