बाणभट्ट की आत्मकथा के पात्रों का महत्वपूर्ण कथन

1. बाणभट्ट के प्रमुख कथन:-

• “निपुणिका बहुत अधिक सुंदर नहीं थी। उसका रंग अवश्य शेफालिका के कुसुमनाल के रंग से मिलता था परंतु उसके की सबसे बड़ी चारुता संपत्ति उसकी आंखें और अंगुलियां की थी।अंगुलियां को मैं बहुत महत्वपूर्ण सौदर्योपादान समझता हूं । नटी की प्रणामांजलि और पताक मुद्राओं को सफल बनाने में पतली छरहरी अंगुलियां अद्भुत प्रभाव डालती है।”

• “भट्टिनी के चारों ओर अनुभवराशि लहरा रही थी। मैं थोड़ी देर तक उस शोभा को देखता रहा। मन ही मन में मैंने सोचा कि कैसा आश्चर्य है? विधाता का कैसा रूप विधान है?”

• “मैं नारी सौंदर्य को संसार की सबसे अधिक प्रभावोत्पादिनी शक्ति मानता रहा हूं।। …. नारी सौंदर्य पूज्य हैं , वह देव प्रतिमा है।”

• “देखो भट्ट, तुम नहीं जानते हैं कि तुमने मेरे इस पाप वकिल शरीर में कैसा प्रफुल्ल शतदल खिला रहा है। तुम मेरे देवता हो मैं तुम्हारे नाम जपने वाली अधम नारी हूं।”( बाण को निपुणिका ने कहा)

• “निपुणिका से मैं खुलकर बातें कर सकता हूं भट्टिनी के सामने मुझमें एक प्रकार की मोहनकारी जड़िम आ जाती है।”

• “इतने पवित्र रूप की राशि किस प्रकार इस कलुष धरित्री में संभव हुई।” (भट्टिनी के बारे में बाण ने कहा)

2. भट्टिनी के कथन :-

• “तुम सच्चे कवि हो, मेरी बात गाढ बॉध लो तुम इस आर्यावर्त के द्वितीय कालिदास हो।” (भट्टिनी ने बाणभट्ट को कहा)

• “मैं बड़े बागी हूं,जो इस महिमाशालिनी राजबाला की सेवा का अवसर पा सका।”(बाणभट्ट ने कहा भट्टिनी के लिए)

• “मैं भट्टिनी का विनीत सेवक हूँ,उनकी आज्ञा थी कि मैं किसी को उनका यथार्थ परिचय न बताऊं। मैंने कन्याकुब्ज नरेश को भी उनका कोई परिचय नही दिया। उन्हें कुमार कृष्णावर्द्धन से मालूम हुआ।” (लोरिक देव को बाणभट्ट ने कहा)

• “भट्ट में तुम्हारी काव्य – संवद पाकर शक्ति पा जाऊंगी। तुम मेरी विनती स्वीकार करो। (भट्टिनी ने बाणभट्ट को कहा)

• “जिस कुल ने इस देव दुर्लभ सौंदर्य को इस ऋषि दुर्गम सत्य को, इस कुसुम कमनीय चारुता को उत्पन्न किया है,वह धन्य है।”( बाणभट्ट भट्टिनी को गंगा से समान पवित्र मानते हैं)

• “भट्ट तुम्हारी इस पवित्र वाक् स्त्रोतस्विनी में स्नान करके ही मैं पवित्र हुई हूं।”(भट्टिनी ने बाणभट्ट को कहा)

3. निपुणिका का कथन:-

• “भट्ट तुम मेरे गुरु हो,तुमने मुझे स्त्री धर्म सिखाया है।”

• “भट्ट मैंने तुम्हारा नाम कलंकित किया था, पर तुमने मेरा मान रख लिया। मैंने उस अभागी रात के समस्त क्षोभ को धो दिया। मैं उसी दिन से अपने को हाड़ – माँस की गठरी से अधिक समझने लगी। तुमने मुझे मुक्ति दी है,भट्ट।”(निपुणिका बाणभट्ट को कहती है)

• “तुम न आते तो भी मुझे तो यह करना ही था। बोलो भट्ट, तुम यह काम कर सकोगे ? तुम असुर गृह में आबद्ध लक्ष्मी का उद्धार कर सकते हो ? मदिरा के पंक में डूबी कामधेनु को उबारना चाहते हो ? बोलो, अभी मुझे जाना है ? (निपुणिका ने बाणभट्ट से कहा)

• ” प्रेम एक और अविभाज्य हैं।उसे केवल ईर्ष्या और असूया ही विभाजित करके छोटा कर देते हैं।” (द्विवेदी ने स्वयं निपुणिका से इस सत्य का उद्घाटन इन शब्दों में करवाया है।)

• “भट्ट मुझे किसी बात का पछतावा नहीं है। मैं जो हूं, उसके सिवा और कुछ हो ही नहीं सकती थी परंतु तुम जो कुछ हो, उससे कहीं श्रेष्ट हो सकते हो।” (निपुणिका का भट्ट से कहती है।)

 

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