बिम्बवाद(bimbavaad/imagism)

? बिम्बवाद ?

★ बिम्ब की चर्चा एडिसन के काल से आरम्भ हो गयी थी।

 

★ बिम्बसिद्धान्त को शास्त्रीय रूप देने का सर्वप्रथम प्रयास बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशक में हुआ।

 

★ बिम्बवाद का उदय आधुनिक काल की  घटना है।

 

★ बिम्बवाद आरम्भ हुआ  :-  इंगलैंड में पतनोन्मुख रोमांटिक कविता की अति अलंकार प्रधानता के विरोध में

 

★ बिम्बवाद का पहला विरोध रोमांटिक कविता की अतिशय कल्पनाशीलता और भावात्मक स्फीति से था। वे कविता में सूक्ष्म और अमूर्त के स्थान पर ठोस और मूर्त को स्थापित करना चाहते थे ।

 

★  अंग्रेजी साहित्य के इतिहास में बिम्ब काव्यात्मक आन्दोलन अपने बिम्ब-सम्बन्धी आग्रह के कारण ‘बिम्बवाद’ ( इमेजिज्म ) के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

 

★  बिम्बवाद का आन्दोलन आंरभ :- 1908ई. में 

 

★ बिम्बवाद के प्रवर्तक – टी. ई. हुल्मे तथा एफ. एस० फ्लिट

 

★ हिंदी में बिम्बवादी अवधारणा की सर्वप्रथम विस्तृत व्याख्या डॉ.  केदारनाथ सिंह ने की।

 

★ टी. ई. हुल्मे के द्वारा 1908 ई. में  प्रथम घोषणा पत्र प्रकाशित हुआ जिस में बिम्ब को कवि-कर्म की चरम उपलब्धि माना गया।

 

★ बिम्बवादियों की सब से महत्त्वपूर्ण स्थापना यह थी कि काव्य में ‘विशेष’ की ही अभिव्यक्ति होनी चाहिए, सामान्य की नहीं।

 

★ बिम्ब का सम्बन्ध कवि के प्रत्यक्ष ऐन्द्रिय बोध से है।

 

★  ऐन्द्रिय बोध का विषय होता है ‘विशेष’- विशेष व्यक्ति, विशेष वस्तु, विशेष स्थान ।

 

★ टी. ई. हुल्मे के द्वारा 1908 ई. में  प्रथम घोषणा पत्र प्रकाशित  कविता ‘पतझड़’ है जिसमें पतझड़ के चाँद की उपमा ‘रक्तवर्ण किसान के मुख’ और उसके आस-पास छिटके हुए तारों की उपमा ‘शहर के श्वेत मुख बच्चों’ से दी गयी है।

 

★ ऐतिहासिक दृष्टि से बिम्बवाद का आरम्भ ‘पतझड़’ (1908 ई., हुल्मे कृत) कविता से माना जाता है ।

 

★  एडवर्ड स्टोरर के संकलन (1908 ई. )को  बिम्बवादी कविताओं का प्रथम प्रतिनिधि संग्रह कहा जा सकता है।

 

★ एडवर्ड स्टोरर के संकलन में पहली बार एक ऐसी कविता प्रकाशित हुई जिस का शीर्षक था ‘बिम्ब’ ।

 

★ बिम्ब सम्बन्धी धारणाओं के इतिहास में ‘बिम्ब’ कविता( 1908 ई, एडवर्ड स्टोरर कृत)का कोई विशेष योग नहीं है। इस से केवल काव्य के क्षेत्र में ‘बिम्ब’ शब्द के प्रथम ऐतिहासिक महत्त्व को सूचना मिलती है ।

 

★ बिम्बवाद के समर्थकों में एजरा पाउंड का नाम महत्त्वपूर्ण है।

 

एफ.एस. फ़्लिट ने ‘बिम्बवाद’ शीर्षक से एक आलोचनात्मक टिप्पणी 1913 ई. प्रकाशित  करवायी।  जिसकी प्रमुख स्थापनाएँ थीं :-

1.  काव्य में वस्तु का प्रत्यक्षग्रहण(मूर्त अभिव्यक्ति अर्थात् बिम्बनिर्माण )।

2. ऐसे शब्दों का सर्वथा त्याग जो काव्य को अर्थवान् बनाने में योगदान।

3.  लययोजना में यान्त्रिक पद्धति का त्याग ।

  एजरा पाउंड ने अपना ऐतिहासिक घोषणापत्र प्रकाशित किया जिसमें विस्तारपूर्वक बिम्बवादी सिद्धान्तों की चर्चा थी। जो इस प्रकार है :-

1. काव्य के रूप अथवा रचना-तन्त्र को सर्वोपरि महत्त्व देना ।

2. नयी संवेदना के अनुकूल नयी लय-पद्धतियों की खोज ।

3.  मुक्त छन्द को मानव को मौलिक स्वातन्त्र्य-चेतना के रूप में स्वीकार करने का आग्रह ।

4.  विषय के निर्वाचन में पूर्ण स्वतन्त्रता ।

5. ताजे और मूर्त बिम्बों का अन्वेषण तथा अमूर्त शब्दों का पूर्ण बहिष्कार।

6. ऐसी कविताओं का निर्माण करना जो ‘संक्षिप्त’ ‘कठोर’ और ‘स्पष्ट’ हों। 

7. काव्यगत केन्द्रणशीलता का सिद्धान्त।

? महत्वपूर्ण तथ्य :-

अंग्रेजी समीक्षा के अन्तर्गत बिम्बविधान की दृष्टि से काव्य की व्याख्या करने का सर्वप्रथम प्रयास बिम्बवादियों ने किया था।

 

बिम्बविधान को आधार बनाकर काव्य का समग्र अध्ययन करने वाले पहले विद्वान :-  अमरीकी विद्वान् हेनरी वेल्स

 

हिंदी में बिम्बवादी अवधारणा की सर्वप्रथम विस्तृत व्याख्या डॉ. केदारनाथ सिंह ने की।

 

सर्वप्रथम स्पष्ट शब्दों में बिम्ब विधान की चर्चा आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने की थी।

 

आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने बिम्ब विधान को ‘चित्र विधान’ माना।

 

सुमित्रानंदन पंत ने बिम्ब के लिए ‘चित्रभाषा’ शब्द का प्रयोग किया है।(‘पल्लव’ की भूमिका में )

 

महादेवी वर्मा ने बिम्ब को ‘भावनाओं का चित्रण’ माना।

 

सी० डे लिविस ने बिम्ब को ‘व्यक्ति निर्मित पुराण’ कहा है।

 

★ केदारनाथ सिंह ने बिम्ब को काव्य मूल्यांकन के एक महत्त्वपूर्ण मानक के रूप में स्थापित किया।

 

★ ‘आधुनिक हिन्दी कविता में बिम्ब विधान’ पर सर्वप्रथम विस्तार से और वैज्ञानिक ढंग से अध्ययन करने वाले डॉ. केदारनाथ सिंह  है।

 

★ आधुनिक अर्थ में बिम्ब का प्रयोग पहली बार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने ही किया।

 

★ “हिंदी आलोचना के क्षेत्र में ‘बिम्ब’ शब्द के प्रथम प्रयोक्ता और व्याख्याता आचार्य रामचंद्र शुक्ल ही है। “(डॉ. केदारनाथ सिंह के अनुसार)

 

★ “बिना बिम्ब ग्रहण के अर्थ-ग्रहण हो ही नहीं सकता।”(आ.रामचंद्र शुक्ल के अनुसार,चिन्तामणिः प्रथम भाग,)

 

★  नगेन्द्र के अनुसार  सामान्य बिम्ब से काव्यबिम्ब में यह भेद होता हैं कि :-

1.   इसका निर्माण सक्रिय या सर्जनात्मक कल्पना से होता है।

2. इसके मूल में राग की प्रेरणा अनिवार्यतः रहती है।

 

★ “बिम्ब-स्थापन को काव्य-निर्माण का मुख्य उद्देश्य मानने के लिए बाध्य हुआ है।”(आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार, रस-मीमांसा में)

 

★ अमेरिकी विचारक जोज़ेफ़ाइन माइल्स के अनुसार बिम्बसिद्धान्त का आरम्भ उस समय से मानना चाहिए जब लॉक और ह्यूम जैसे इन्द्रियानुभववादी दार्शनिकों ने तर्क और अनुमान की अपेक्षा वस्तु की प्रत्यक्ष संवेदना को अधिक प्रामाणिक और महत्त्वपूर्ण सिद्ध किया।

 

★ काव्यात्मक बिम्ब को मनोविश्लेषणात्मक दृष्टि से देखने वाले विद्वान :- श्रीमती स्पंजियन, प्रो. लिविंगस्टन लॉवेस, एडवर्ड ए. आर्मस्ट्रॉगं, रॉबिन स्केल्टन,डॉ.नगेन्द्र, अज्ञेय, और प्रभाकर माचवे ।

 

★ मॉड बॉडकिन ने युंग के सिद्धान्तों के आधार पर काव्यात्मक बिम्ब विधान को एक सर्वथा नये परिप्रेक्ष्य में रख कर देखने का प्रयास किया है ।

 

★ कोलरिज की ‘एन्वेंट मैरिनर’ ( प्राचीन सागरिक ) कविता के आधार पर उन्होंने यह सिद्ध किया है कि ‘पुनर्जन्म’ की कल्पना एक ऐसा आदिम-बिम्ब अथवा अभिप्राय है जो प्रत्येक युग की कविता में जलयात्रा अथवा अन्धकार-यात्रा के रूपक के द्वारा व्यक्त होता है ।

 

★ “बिम्ब जब होगा तब ‘विशेष’ का होगा, ‘सामान्य’ या जाति का नहीं ।”( आचार्य शुक्ल के अनुसार रस मीमांसा में)

 

★ बिम्ब कविता में अमूर्त्त को मूर्त बनाकर वह उसे स्वच्छ, साफ तथा सम्प्रेषणीय बनाता है।

 

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