भक्ति आंदोलन के उद्भव एवं विकास से संबंधित मत(bhakti aandolan kee udbhav aur vikaas se sambandhit mat )
★ भक्ति आंदोलन के उद्भव एवं विकास से संबंधित मत :-
• भक्ति का सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वेतर उपनिषद् (6/33) में मिलता है।
• भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है।
• भक्ति साहित्य के सभी विद्वानों ने भक्ति आंदोलन का प्रारंभ दक्षिण भारत से माना है।
श्रीमद्भागवत पुराण में :- ” उत्पन्ना द्रविड साहं
कबीर ने :- ” भक्ति द्राविड़ ऊपजी लायो रामानंद”
• ऋग्वेद के विष्णुसूक्त और वरुणसूक्त में भक्ति के मूल तत्त्व प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं।
• भक्ति आंदोलन को ईसाई धर्म से प्रभावित मानते हे है।( डॉ. ग्रियर्सन के अनुसार)
• ” कोई भी मनुष्य जिसे 15 वीं तथा बात की शताब्दियों का साहित्य पढ़ने का मौका मिला है, उसे भारी व्यवधान को लक्ष्य किए बिना रह सकता जो पुरानी और नई धार्मिक बाहों में विद्यमान है। हम अपने को ऐसे धार्मिक आंदोलन के सामने पाते हैं, जो उन सब आंदोलनों से कहीं अधिक व्यापक और विशाल है, जिन्हें भारतवर्ष ने कभी भी देखा है। यहॉ तक कि वह बौद्ध धर्म के आंदोलन की से भी अधिक व्यापक और विशाल है क्योंकि इसका प्रभाव आज भी वर्तमान है। इस युग में धर्म ज्ञान का नहीं बल्कि भावावेश का विषय हो गया था। यहां से हम साधना और प्रेमोल्लास के देश में आते हैं और ऐसी आत्माओं का साक्षात्कार करते हैं जो काशी के दिग्गज पंडितों की जाति ही नहीं है ,बल्कि जिनकी समता मध्ययुग यूरोपियन भक्त बर्नर्ड ऑफ़ फ्लेयरवक्स,टामस-ए- केम्पिस और सेट थेरिसा से है।”(डॉ.ग्रियर्सन के अनुसार)
• ” बिजली की चमक के समान अचानक इस समस्त पुरानी धार्मिक मतों को अंधकार के ऊपर एक नई बात दिखाई दी। कोई हिंदू यह नहीं जानता है कि यह बात कहां से आई और कोई भी इसके प्रादुर्भाव का कारण निश्चित नहीं सकता।”(डॉ.ग्रियर्सन के अनुसार)
• “जिस बात को ग्रियर्सन ने अचानक बिजली की चमक की तरह फैला जाना लिखा है, वह ऐसा नहीं है उसके लिए सैकड़ों वर्षो से मेघखंड एकत्र हो रहे थे।” (डॉ.ग्रियर्सन के मत का खंडन करते हुए आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने कहा)
• “देश में मुसलमानों का राज्य प्रतिष्ठित हो जाने पर हिंदू जनता के हृदय में गौरव गर्व और उत्साह के लिए वह अवकाश न रह गया जो पहले था उसके सामने ही देव मंदिर गिराये जाते थे देवमूर्तियाँ तोड़ दी जाती थी और पूज्य पुरुषों का अपमान होता था और वह कुछ भी नहीं कर सकते थे। आगे चलकर मुस्लिम समाज दूर एक स्थापित हो गया तब परस्पर लड़ने वाले छोटे राज्य भी नहीं रह गये। इतने भारी राजनीतिक उलटफेर के पीछे हिंदू जन समुदाय पर बहुत दिनों तक उदासी सी छाई रही। अपने पौरुष से हताश जाति के लिए भगवान की भक्ति और करुणा की ओर ध्यान ले जाने की अतिरिक्त दूसरा मार्ग ही क्या था।”(आ.रामचंद्र शुक्ल के अनुसार)
• “आचार्य शुक्ल जी के कथन को पूर्णतया मान लेने पर भक्तिकाल खंडित हो जायेगा संत काव्य और सूफी काव्य उनके सैद्धांतिक दायरे से बाहर हो जायेगे।” (डॉ.बच्चन सिंह के अनुसार)
© आचार्य रामचंद्र शुक्ल के मत का समर्थन करने वाले:- डॉ.रामस्वरूप चतुर्वेदी,
बाबू गुलाब राय,
रामकुमार वर्मा।
• “यह भी बताया गया है कि जब मुसलमान हिंदुओं पर अत्याचार करने लगे थे तो निराश होकर हिंदू लोग भगवान का भजन करने लगे। यह बात अत्यंत उपहासास्पद है। जब मुसलमान लोग उत्तर भारत में मंदिर तोड़ रहे थे,उसी समय अपेक्षाकृत निरापद दक्षिण में यह भक्त लोगों ने भगवान की शरणागति की प्रार्थना की। मुसलमानों के अत्याचार कारण यदि भक्ति की भावधारा को उमड़ना था तो पहले उसे सिंध में और फिर उत्तर भारत में प्रकट होना चाहिए था,पर हुई वह दक्षिण में।” ( आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी ने आ.शुक्ल के मत का विरोध करते हुए लिखते है)
© आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी कीमत का समर्थन करने वाले :- नामवर सिंह
© “दोनों मतों (आ. रामचंद्र शुक्ल और आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी का मत) से हटकर विचार किया जाए क्योंकि दोनों आधे – आधे सच है।” (डॉक्टर बच्चन सिंह ने कहा)
• “इसमें कोई संदेह नहीं है कि मुसलमान आक्रमणकारियों ने मंदिर तोड़े , हिंदू जनता पर अत्याचार किए और लोगों को बलात् मुसलमान बनाया।यह भी नि:संदिग्ध है कि गुरु नानक देव को छोड़कर किसी भक्ति कवि ने मुसलमानों के विरुद्ध कुछ नहीं लिखा पर मुसलमान बादशाह और उनके अधीनस्थ सामंतों के अत्याचारों का साक्षी इतिहास है। लेकिन मुसलमान और हिंदू एक साथ मिल – जुल कर रहने का प्रयत्न कर रहे थे। इतिहास का साक्षी हो या न हो, पर साहित्य में है। किंतु मंदिरों के तोड़े जाने और हिंदुओं के जबरदस्ती मुसलमान बनाने का प्रभाव भक्तों पर न पड़ता यह अमनोवैज्ञानिक है।” ( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार)
• भक्ति आन्दोलन भारतीय चिन्ताधारा का स्वाभाविक विकास है।”(आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार)
• “लेकिन जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस साहित्य का बाहर आना वैसा ही होता जैसा आज है।” (आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार)
• द्विवेदी जी भक्ति साहित्य को ‘हतदर्प पराजित जाति’ का साहित्य नहीं मानते । वे कहते हैं कि “अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी भक्ति साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसे आज है।”( डॉ.बच्चन सिंह ने कहा)
• “आ.हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन भी अर्धसत्य ही है। यदि मुसलमान न आये होते तो न संत काव्य लिखा जाता और न सूफी काव्य।”( डॉ.बच्चन सिंह के अनुसार)
• “समूचे भारतीय इतिहास में अपने ढंग का अकेला साहित्य है। इसी का नाम भक्ति साहित्य है। यह एक नई दुनिया है।”(आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार)
• ” भक्ति आंदोलन के हिंदुओं की पराजित मनोवृति का परिणाम न होकर इस्लाम प्रचार एवं हिंदुओं की भक्ति भावना का परिणाम है।”(आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार)
• ” मुसलमानों के बढ़ते हुए आतंक हिंदुओं के हृदय में भय की भावना उत्पन्न कर दी थी। यदि मुसलमान केवल लूट – मार कर ही चले जाते तब भी हिंदुओं की शक्ति में क्षणिक बाधा ही पडती किंतु जब मुसलमान ने भारत की अपनी संपत्ति मानकर उस पर शासन करना प्रारंभ किया तब हिंदूओं के सामने अपनी अस्तित्व का प्रश्न आ गया। मुसलमान जब अपनी सत्ता के साथ अपना धर्म – प्रचार करने लगे तब तो परिस्थितियां और भी विषम हो गई। हिंदुओं में मुसलमानों से लोहा लेने की शक्ति नहीं थी। वे मुसलमानों को न तो पराजित कर सकते थे और न ही अपने धर्म को अवहेलना ही सहन कर सकते थे। इस असहायावस्था में उनके पास ईश्वर से प्रार्थना करने के अतिरिक्त अन्य कोई साधन नहीं था।” (डॉ रामकुमार वर्मा के अनुसार)
• ” हिंदू जनता पर मुसलमानों के बढ़ते आतंक और हिंदु विरोधी नीतियों ने भक्ति आंदोलन के उद्भव की पृष्ठभूमि तैयार की।” (डॉ. रामकुमार वर्मा के अनुसार)
• “भागवत धर्म के प्रचार तथा प्रसार के प्रणामस्वरूप भक्ति आंदोलन का सूत्रपात हुआ।”( डॉ नगेंद्र के अनुसार )
• “निर्गुण भक्तिमार्गी जातिवाद – विरोधी आंदोलन सफल नहीं हो सका। उसका मूल कारण यह है कि भारत के पुरानी समाज – रचना को समाप्त करने वाली पूंजीवादी क्रांतिकारी शक्तियां उन दिनों विकसित नहीं हुई थी।” (मुक्तिबोध के अनुसार)
• “आलवार संतो तथा रामानंद की भक्ति आंदोलन के मूल प्रवर्तक।” (डॉ.सत्येंद्र के अनुसार )
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