?माटी की मूरतें(रामवृक्ष बेनीपुरी) ?
◆ श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के विचार :-
● किसी बड़ या पीपल के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर कुछ मूरतें रखी हैं- माटी की मूरतें!
● माटी की मूरतें न इनमें कोई खूबसूरती है, न रंगीनी।
● बौद्ध या ग्रीक रोमन मूर्तियों के हम शैदाई यदि उनमें कोई दिलचस्पी न लें, उन्हें देखते ही मुँह मोड़ लें, नाक सिकोड़ लें तो अचरज की कौन सी बात?
* शैदाई का हिंदी में अर्थ · प्रेमी, प्रेमासक्त, रूमानी · आशिक़ होना।
● इन कुरूप, बदशक्ल मूरतों में भी एक चीज है, शायद उस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, वह है जिंदगी!
● ये माटी की बनी हैं, माटी पर घरी हैं; इसीलिए जिंदगी के नजदीक हैं, जिंदगी से सराबोर हैं।
● ये मूरतें न तो किसी आसमानी देवता की होती हैं, न अवतारी देवता की।
● गाँव के ही किसी साधारण व्यक्ति -मिट्टी के पुतले ने किसी असाधारण अलौकिक धर्म के कारण एक दिन देवत्व प्राप्त कर लिया, देवता में गिना जाने लगा और गाँव के व्यक्ति-व्यक्ति के सुख-दुःख का द्रष्टा स्रष्टा बन गया।
● खुश हुई संतान मिली, अच्छी फसल मिली, यात्रा में सुख मिला, मुकदमे में जीत मिली। इनकी नाराजगी – बीमार पड़ गए, महामारी फैली, फसल पर ओले गिरे, घर में आग लग गई। ये जिंदगी के नजदीक ही नहीं हैं, जिंदगी में समाई हुई हैं। इसलिए जिंदगी के हर पुजारी का सिर इनके नजदीक आप ही आप झुका है।
● बौद्ध और ग्रीक-रोमन मूतियाँ दर्शनीय हैं, वंदनीय हैं; तो माटी की ये मूरतें भी उपेक्षणीय नहीं, आपसे हमारा निवेदन सिर्फ इतना है।
● आपने राजा-रानी की कहानियाँ पढ़ी हैं, ऋषि-मुनि की कथाएँ बाँची हैं, नायकों और नेताओं की जीवनियों का अध्ययन किया है।
● वे कहानियाँ, वे कथाएँ, वे जीवनियाँ कैसी मनोरंजक, कैसी प्रोज्ज्वल, कैसी उत्साहवर्धक! हमें दिन-दिन उनका अध्ययन, मनन, अनुशीलन करना ही चाहिए।
● क्या आपने कभी सोचा है, आपके गाँवों में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी कहानियाँ, कथाएँ और जीवनियाँ राजा-रानियों, ऋषि-मुनियों, नायकों नेताओं की कहानियों, कथाओं और जीवनियों से कम मनोरंजक, प्रोज्ज्वल और उत्साहवर्धक नहीं। किंतु शकुंतला, वसिष्ट, शिवाजी और नेताजी पर मरनेवाले हम अपने गाँव की बुधिया, बालगोबिन भगत, बलदेव सिंह और देव की ओर देखने की भी फुरसत कहाँ पाते हैं?
● हजारीबाग सेंट्रल जेल के एकांत जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ ऐसे लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगीं।
● उनकी इस याचना में कुछ ऐसा जोर था कि अंततः यह ‘माटी की मूरतें’ तैयार होकर रही। हाँ, जेल में रहने के कारण बैजू मामा भी इनकी पाँत में आ बैठे और अपनी मूरत मुझसे गढ़वा ही ली।
● मैं साफ कह दूँ ये कहानियाँ नहीं, जीवनियाँ हैं? ये चलते फिरते आदमियों के शब्दचित्र हैं मानता हूँ, कला ने उनपर पच्चीकारी की है; किंतु मैंने ऐसा नहीं होने दिया कि रंग-रंग में मूल रेखाएँ ही गायब हो जाएँ। मैं उसे अच्छा रसोइया नहीं समझता, जो इतना मसाला रख दे कि सब्जी का मूल स्वाद ही नष्ट हो जाए।
● कला का काम जीवन को छिपाना नहीं, उसे उभारना है। कला वह, जिसे पाकर जिंदगी निखर उठे, चमक उठे।
● डरता था, सोने-चाँदी के इस युग में मेरी ये ‘माटी की मूरतें’ कैसी पूजा पाती हैं। किंतु इधर इनमें से कुछ जो प्रकाश में आई, हिंदी-संसार ने उन्हें सिर आँखों पर लिया।
● यह मेरी कलम या कला की करामात नहीं, मानवता के मन में मिट्टी प्रति जो स्वाभाविक स्नेह है, उसका परिणाम है। उस स्नेह के प्रति मैं बार-बार सिर झुकाता हूँ और कामना करता हूँ, कुछ और ऐसी ‘माटी की मूरतें’ हिंदी-संसार की सेवा में उपस्थित करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ।
◆ ये माटी की मूरतें निबंध में इन व्यक्तियों का शब्दचित्र है :-
1. रजिया
2. बलदेवसिंह
3. सरजू भैया
4. मंगर
5. रूपा की आजी
6. देव
7. बालगोबिन भगत
8. भौजी
9. परमेसर
10. बैजू मामा
11. सुभान खाँ
12. बुधिया
??? भौजी ???
◆ लेखक पहली बार भैया की शादी पालकी पर बैठा था।
◆ लेखक अपने भैया का शहबाला था ।
* शहबाला का अर्थ – विवाह के समय दूल्हे के साथ पालकी में बैठनेवाला बालक।
◆ भैया इस प्रकार सजे हुये थे:-
● रंगीन, चमकदार कपड़े पहने,
● सिर पर जरी की टोपी ।
● मस्तक पर चंदन के छाप
● आँखों में काजल
◆ चूने से पुता हुआ भैया की ससुराल का वह खपरैल मकान कोलाहल से फटा जा रहा था।
◆ भैया के हाथों में पान-सुपारी रखे गए रुपए रखे गए, दही की छोटी मटकी रखी गई।
◆ लेखक के फूफाजी :-
● गोरे खूबसूरत नौजवान थे।
● चंपारण में उनका घर था।
● सिर पर जुल्फ रखते थे
● लंबे घुँघराले बाल थे
● जिन्हें कंघी से दो हिस्सों में बड़ी सुघराई से बाँटे रहते।
◆ भैया की ससुराल का गाँव संस्कृति के लिहाज से बहुत पिछड़ा था, इसमें तो शक ही नहीं फूफाजी के इन बालों पर किसी ने भद्दा मजाक कर दिया। फूफाजी शरीफ थे।
◆ लेखक के पक्षवालों ने फुफाजीसे किये मजाक को बुरा मान लिया- फुफाजी के अपमान को अपने सर्वश्रेष्ठ आदरणीय अतिथि का अपमान समझा।
◆ लेखक के बाबा बड़े ही शांतचित्त व्यक्ति थे। उन्हीं के प्रयत्न से शांति हुई। बरात जनवासे में आई जब सब लोग निश्चिंत हुए।
* जनवासे :- बरातियों के ठहरने की जगह।
◆ बाबा को कहते सुना, “बुरी जगह पोते की शादी की! भगवान् इनकी छाप से इनके बाल-बच्चों को बचाए।”
◆ भारतीय परिवार में भौजी का वही स्थान है, जो मरुभूमि में ‘ओयसिस’ का धधकती हुई बालू की लू लपट में दिन-रात चलते जब मुसाफिर दूर से खजूरों की हरी-हरी फुनगी देखता है, उसकी आँखें ही नहीं तृप्त हो जातीं, उसके शरीर का रोम-रोम पुलकित और उसकी शिराओं का एक-एक रक्तबिंदु नृत्यशील हो उठता है। कुछ क्षणों के लिए उसका सारा जीवन हरीतिमामय हो जाता है। खजूरों की उस झुरमुट में वह मीठे फल और मीठा पानी पाता है। एकाध दिन वहाँ रहकर वह आनंद मनाता है, रक्त संचय करता है, फिर ताजगी और नई उमंग लेकर आगे बढ़ता है।
◆ भारतीय जीवन में यह जो रूखा-सूखापन सर्वत्र दीख पड़ता है, उसका कारण ढूँढ़ने में अपना वक्त बरबाद नहीं करूँगा। लेकिन, आप जिधर जाइए, इधर-उधर जिधर नजर दौड़ाइए, उसका राज्य साम्राज्य पाएँगे। खिंचा- खिंचा चेहरा, रसहीन नयन, दुबला-पतला शरीर, मुरझाया मुर्दों सा मन—यही है भारतीय मानवता का साधारण ढाँचा !
◆ जो कम बोले, हँसे नहीं, मुश्किल से मुसकुराए, हमेशा अपने इर्द-गिर्द मुहर्रम का वातावरण बनाए रहे, उसकी सज्जनता और शिष्टता की प्रशंसा होती है।
◆ जिसका खेल-कूद में मन लगा, गाने-बजाने का शौक हुआ या नाट्य प्रहसन की ओर जिसकी प्रवृत्ति हुई, बस वह लोगों की नजरों से गिरा मानता हूँ, हम होली खेलते हैं, विजया मनाते हैं और दीवाली सजाते हैं; किंतु वे हमारी जिंदगी के पासिंग फेज’ हैं।
◆ पति अपनी पत्नी से बचे-बचे फिरने की कोशिश करता है। पत्नी की शर्म या संकोच का क्या कहना! चुप-चोरी से मिलो, हॉट-होंठ से बातें करो और देखो, हँसी घूँघट या रूमाल से बाहर न निकले! बेटी-बेटे अपने पिता-माता के सामने हँसना-इठलाना बुरा समझते हैं किसी के घर में अगर कोई वृद्ध पितामह बचे हैं, तब तो मानो सबके मुँह पर ताला लग गया! जवान बहनें भाई के सामने आने-जाने में संकोच करती हैं तो भाई भी उनसे अलग-अलग रहने की कोशिश करता है। छोटे भाई की पत्नी की छाया बड़े भाई पर नहीं पड़नी चाहिए। बहुएँ सास को देखते ही सहम उठती हैं। जेठानी सास नंबर दो का काम करती हैं।
◆ जो लड़की हँसती-खेलती, चुहले करती या तेजी से चलती है, उसकी जिंदगी मुहाल ‘”तिरिया चंचल अति बुरी ।'( क्या कवि गिरधरदास ने कहा)
◆ इस तरह के निरानंद और निस्पंद जीवन में भौजी की स्थिति सचमुच अरब में हरा-भरा नखलिस्तान!
◆ भौजी आई, मेरा घर भी आनंदकुंज बन गया।
◆ लंबी पतली छड़ी-सी! लेकिन सोने की छड़ी नहीं, इसे कहने में मैं संकोच नहीं करूँगा।
◆ उनका वर्ण द्रविड़ आर्य रक्त के सुंदर सम्मिश्रण का नमूना था वर्ण ही नहीं, गठन भी।
◆ उन्नत ललाट, भवें उठी हुईं, पतली-पतली काले बालों में घुँघरालापन, जब उन्हें खोलती, तब अजीब लहरदार मालूम होते वे—गिरदाबों से भरी यमुना की धारा ! नाक ललाट के नजदीक जाकर जरा चिपक- सी गई; किंतु उसका अग्र भाग काफी सुंदर, मोहक! होंठ कुछ मोटे, चमकीले दाँत थे, जब भौजी हँसती, सचमुच मोती झड़ने लगते!
◆ घर की बड़ी-बूढियों की भी वह प्रशंसा पात्र बन गई।
◆ भौजी में हुनर भी अच्छे थे। वह बढ़िया सिलाई करतीं, कसीदा काढ़तीं। जब खाना बनाने लगीं, उनकी तारीफ और बढ़ गई।
◆ भौजी का घर हम देवरों का केलि भवन था।
◆ भौजी हँसकर हमारा स्वागत करतीं, जलपान करातीं, सुपारी लौंग देतीं, जिनमें मुनक्के भी मिले होते।
◆ सबकी जबान पर भौजी की तारीफ थी। लोग यह भूल ही गए कि भौजी उस गाँव से आई हैं, जिसकी निंदा करते ही सभी बराती लौटे थे।
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इसके दस बरस बाद की बात है!
◆ चाचा और भैया भी जुदा हो चुके हैं; भौजी भी हमसे अलग हैं। उनकी सास, मेरी चाची, मर चुकी हैं। अब भौजी ही अपने घर की मालकिन हैं। उनकी गोद में एक बच्चा है— मेरा प्यारा भतीजा।
◆ न वह प्रेमभाव है, न वह शील स्वभाव सारा घर कलह में फँसा हुआ है।
◆ दस वर्षों तक जो बारूद राख के नीचे ढँपी थी, वह अचानक विस्फोट कर उठी हैं। जिस मुँह से कभी फूल झड़ते, अब उससे विष-बुझे तीर निकलते। भौजी की गालियाँ – अरे, कलेजे को भी जैसे आर-पार कर जाएँ।
◆ भाभी का दर्जा माता का है-नई रोशनी की पुस्तकों में मैंने पढ़ रखा था।
◆ मैं घर की इस कलह से दूर रहने की कोशिश करता, भौजी के बच्चे को दिन भर कंधे पर लिये चलता। मैंने कल्पना भी नहीं की थी कि भौजी के बाणों का निशाना मुझे भी होना पड़ेगा।
◆ मैंने धीमे से भौजी से कहा- – थोड़ी देर मेहरबानी कीजिए, फिर इस घर को नरक तो रहना ही है। बस, फिर क्या था, भौजी बरस पड़ी और एक पर एक ऐसे तीर ताक-ताक कर कलेजे में मारे कि मैं आपे में नहीं रहा। क्रोध में पागल हो बेहोशी में क्या करने जा रहा था।
◆ घर का सूत्र मेरे हाथों में आया, मैंने अपने परिवार को उस घर से अलग करने का निश्चय कर लिया। अलग मकान बनाया और उसी में चला आया।
◆ खास उसी बात के लिए आज ये पंक्तियाँ लिख रहा हूँ। नहीं तो अपनी स्वर्गीया भौजी की जग हँसाई के लिए अपनी कलम उठाने से पहले उसे तोड़ देना मैं पसंद करता।
◆ वह कलम टूट जाए, जो निंदा के लिए ही उठती है। हमारे एक दोस्त हैं- एक संपादक दोस्त कट्टर राष्ट्रीयतावादी और हम हैं समाजवादी अतः ऐसे मौके आते ही रहते हैं कि हमसे नाराज होकर अपने पत्र के कॉलमों को हमें खरी-खोटी सुनाने में सर्फ करते हैं। उनकी निर्मम आलोचनाएँ उफ्, हम तिलमिला उठते हैं!
◆ सरकार ने हम पर प्रहार किया, या किसी दकियानूसी अखबार ने हमारी निंदा की, बस उनकी आलोचनाओं की बैटरी उस ओर मुड़ी।
◆ मानो उनकी दलील हो—’ये हमारे हैं, हम इन्हें गाली दें या पुचकारें, भला तुम कौन होते हो इनकी ओर आँख उठानेवाले? आँख उठाओगे तो उसे फोड़ दूँगा।’ यह कहना तो फिजूल ही है कि व्यक्तिगत सुख-दुःख में वे इस तरह हमारे शरीक होते हैं कि यह कल्पना भी नहीं की जा सकती है कि वह हमारे तीव्र आलोचक भी रह चुके हैं।
◆ मेरी भौजी हमें गालियाँ देतीं, हमसे झगड़े करतीं, हमारी जिंदगी हराम किए रहतीं। किंतु मान लीजिए, वह बक-झक कर रही हों कि उन्हें खुश करने या उत्साहित करने को कोई स्त्री बीच में टपक पड़ी और हमें खरी-खोटी सुनाने लगी।
◆ चालीसवें वर्ष में भी चेहरे पर आब, दाँतों में चमक, छाती पर उभार, चाल में मस्तानापन! किंतु व्रत-त्योहारों में अपने को सज-धजकर रखने से ऐसी एक भी होली की मुझे याद नहीं, जब भौजी के हाथ से मिट्टी-पानी, अबीर अबरख पाने और मालपूए-गुलगुले खाने का मौका नहीं मिला हो।
◆ भौजी का बेटा सयाना हो चला था, लड़की भी काफी बड़ी हो चली थी।
◆ मैंने एक बार कहा, “भौजी, अब इन बच्चों को होली खेलने दीजिए, हम आप देखा करें।”
◆ भौजी बोलीं, “वाह बबुआ, जवानी ढल गई तो क्या मन भी ढल गया? बच्चे अपनी होली खेलें, हम अपनी खेलते हैं उनके अपने दिल, हमारे अपने दिल!”
◆ इन झगड़े-झमेलों के बीच भी मेरे घर आती और मेरे बच्चों को उबटन और तेल लगा जातीं, काजल लगाती।
◆ एक बार देखा- मेरे बच्चे को गोद में लिये उसकी माँ से झगड़ रही हैं और ज्यों ही बच्चा रो उठता है, झट अपना स्तन उसके मुँह में रख देती हैं।
◆ बच्चा को बिढ़नी ने डंक मारा था बच्चे को मेरी रानी की गोद में रख, दौड़ी-दौड़ी गई, किरासन तेल ले आईं, गेंदे की पत्तियाँ ले आई और जहाँ डंक था, वहाँ लगा दिया – यही देहाती दवा थी। बच्चा थरथर काँप रहा था। डंक ज्यादा जहरीला था। उसे बुखार हो आया।
◆ भैया हँसते हुए आए और मेरी रानी की और लक्ष्य कर कहा, “झगड़ा हो तो ऐसा, मेरा खाना बंद हो गया!”
◆ आज भौजी नहीं हैं, मेरी रानी अपने को उनके दोनों बच्चों की ‘धर्म की माँ’ समझती है।
◆ जब-जब भौजी की याद आती है, दोनों हाथ मिलकर मेरे सिर से जा लगते हैं-प्रणाम भौजी !