रजिया , माटी की मूरते रेखाचित्र से(rajiya,maatee kee mooraten rekhachitra se)

                 💐माटी की मूरतें(रामवृक्ष बेनीपुरी) 💐

श्रीरामवृक्ष बेनीपुरी के विचार  :-

● किसी बड़ या पीपल के पेड़ के नीचे, चबूतरे पर कुछ मूरतें रखी हैं- माटी की मूरतें!

● माटी की मूरतें न इनमें कोई खूबसूरती है, न रंगीनी।

● बौद्ध या ग्रीक रोमन मूर्तियों के हम शैदाई यदि उनमें कोई दिलचस्पी न लें, उन्हें देखते ही मुँह मोड़ लें, नाक सिकोड़ लें तो अचरज की कौन सी बात?
* शैदाई का हिंदी में अर्थ · प्रेमी, प्रेमासक्त, रूमानी · आशिक़ होना।

● इन कुरूप, बदशक्ल मूरतों में भी एक चीज है, शायद उस ओर हमारा ध्यान नहीं गया, वह है जिंदगी!

● ये माटी की बनी हैं, माटी पर घरी हैं; इसीलिए जिंदगी के नजदीक हैं, जिंदगी से सराबोर हैं।

● ये मूरतें न तो किसी आसमानी देवता की होती हैं, न अवतारी देवता की।

● गाँव के ही किसी साधारण व्यक्ति -मिट्टी के पुतले ने किसी असाधारण अलौकिक धर्म के कारण एक दिन देवत्व प्राप्त कर लिया, देवता में गिना जाने लगा और गाँव के व्यक्ति-व्यक्ति के सुख-दुःख का द्रष्टा स्रष्टा बन गया।

● खुश हुई संतान मिली, अच्छी फसल मिली, यात्रा में सुख मिला, मुकदमे में जीत मिली। इनकी नाराजगी – बीमार पड़ गए, महामारी फैली, फसल पर ओले गिरे, घर में आग लग गई। ये जिंदगी के नजदीक ही नहीं हैं, जिंदगी में समाई हुई हैं। इसलिए जिंदगी के हर पुजारी का सिर इनके नजदीक आप ही आप झुका है।

● बौद्ध और ग्रीक-रोमन मूतियाँ दर्शनीय हैं, वंदनीय हैं; तो माटी की ये मूरतें भी उपेक्षणीय नहीं, आपसे हमारा निवेदन सिर्फ इतना है।

● आपने राजा-रानी की कहानियाँ पढ़ी हैं, ऋषि-मुनि की कथाएँ बाँची हैं, नायकों और नेताओं की जीवनियों का अध्ययन किया है।

● वे कहानियाँ, वे कथाएँ, वे जीवनियाँ कैसी मनोरंजक, कैसी प्रोज्ज्वल, कैसी उत्साहवर्धक! हमें दिन-दिन उनका अध्ययन, मनन, अनुशीलन करना ही चाहिए।

● क्या आपने कभी सोचा है, आपके गाँवों में भी कुछ ऐसे लोग हैं, जिनकी कहानियाँ, कथाएँ और जीवनियाँ राजा-रानियों, ऋषि-मुनियों, नायकों नेताओं की कहानियों, कथाओं और जीवनियों से कम मनोरंजक, प्रोज्ज्वल और उत्साहवर्धक नहीं। किंतु शकुंतला, वसिष्ट, शिवाजी और नेताजी पर मरनेवाले हम अपने गाँव की बुधिया, बालगोबिन भगत, बलदेव सिंह और देव की ओर देखने की भी फुरसत कहाँ पाते हैं?

● हजारीबाग सेंट्रल जेल के एकांत जीवन में अचानक मेरे गाँव और मेरे ननिहाल के कुछ ऐसे लोगों की मूरतें मेरी आँखों के सामने आकर नाचने और मेरी कलम से चित्रण की याचना करने लगीं।

● उनकी इस याचना में कुछ ऐसा जोर था कि अंततः यह ‘माटी की मूरतें’ तैयार होकर रही। हाँ, जेल में रहने के कारण बैजू मामा भी इनकी पाँत में आ बैठे और अपनी मूरत मुझसे गढ़वा ही ली।

● मैं साफ कह दूँ ये कहानियाँ नहीं, जीवनियाँ हैं? ये चलते फिरते आदमियों के शब्दचित्र हैं मानता हूँ, कला ने उनपर पच्चीकारी की है; किंतु मैंने ऐसा नहीं होने दिया कि रंग-रंग में मूल रेखाएँ ही गायब हो जाएँ। मैं उसे अच्छा रसोइया नहीं समझता, जो इतना मसाला रख दे कि सब्जी का मूल स्वाद ही नष्ट हो जाए।

● कला का काम जीवन को छिपाना नहीं, उसे उभारना है। कला वह, जिसे पाकर जिंदगी निखर उठे, चमक उठे।

● डरता था, सोने-चाँदी के इस युग में मेरी ये ‘माटी की मूरतें’ कैसी पूजा पाती हैं। किंतु इधर इनमें से कुछ जो प्रकाश में आई, हिंदी-संसार ने उन्हें सिर आँखों पर लिया।

● यह मेरी कलम या कला की करामात नहीं, मानवता के मन में मिट्टी प्रति जो स्वाभाविक स्नेह है, उसका परिणाम है। उस स्नेह के प्रति मैं बार-बार सिर झुकाता हूँ और कामना करता हूँ, कुछ और ऐसी ‘माटी की मूरतें’ हिंदी-संसार की सेवा में उपस्थित करने का सौभाग्य प्राप्त कर सकूँ।

 

ये माटी की मूरतें निबंध में इन व्यक्तियों का शब्दचित्र है :-

1. रजिया
2. बलदेवसिंह
3. सरजू भैया
4. मंगर
5. रूपा की आजी
6. देव
7. बालगोबिन भगत
8. भौजी
9. परमेसर
10. बैजू मामा
11. सुभान खाँ
12. बुधिया

 

                          💐💐  रजिया 💐💐

◆ वह छोटी सी लड़की, जो उस दिन मेरे सामने आकर खड़ी हो गई थी उसके बारे जानकारी-
● कानों में चाँदी की बालियाँ
● गले में चाँदी का हैकल
● हाथों में चाँदी के कंगन
● पैरों में चाँदी की गोड़ाई- भरबाँह की बूटेदार कमीज पहने
● काली साड़ी के छोर को गले में लपेटे
●  गोरा चेहरा

◆  छोटी सी लड़की को देखकर लेखक को बचपन की किस लड़की की याद आयी ? :- रजिया

◆ लेखन ने मौसी से क्या लिया? :-  ठेकुए ( सूखी मिठाई )

◆ रजिया ने कहा ‘देखना, बबुआ का खाना मत छू देना।’

◆ रूप-रंग की लड़की मुझसे दो-तीन गज आगे खड़ी हो गई।
* रूप-रंग की लड़की :- रजिया

◆ लेखक की बस्ती :-  ठेठ हिंदुओं

◆   बाप-माँ का इकलौता :- लेखक

◆ लेखक की माँ चल बसी थीं।

◆ उनकी इस एकमात्र धरोहर को मौसी आँखों में जुगोकर रखतीं।
*उनकी :- माँ के लिए
* एकमात्र धरोहर :- लेखक के लिए

◆  गाँव की लड़कियों कानों में बालियाँ कहाँ डालती और भरबाँह की कमीज पहने भी उन्हें कभी नहीं देखा।

◆ यह बोली थी रजिया की माँ, जिसे प्राय: ही अपने गाँव में चूड़ियों की खनिया लेकर आते देखता आया था।

◆ वह मेरे आँगन में चूडियों का बाजार पसारकर बैठी थी और कितनी बहू-बेटियाँ उसे घेरे हुई थीं।

◆ यह बच्ची आज पहली बार आई थी और न जाने किस बाल-सुलभ उत्सुकता ने उसे मेरी ओर खींच लिया था।

◆  शायद वह यह भी नहीं जानती थी कि किसी के हाथ का खाना किसी के निकट पहुँचने से ही छू जाता है। माँ जब अचानक चीख उठी, वह ठिठकी, सहमी उसके पैर तो वहीं बँध गए। किंतु इस ठिठक ने उसे मेरे बहुत निकट ला दिया, इसमें संदेह नहीं।

◆ मेरी मौसी झट उठीं, घर में गई और दो ठेकुए और एक कसार (पंजीरी) लेकर उसके हाथों में रख दिए।

◆ मैंने कहा—खाओ न ! क्या तुम्हारे घरों में ये सब नहीं बनते ?छठ का व्रत नहीं होता? कितने प्रश्न- किंतु सबका जवाब ‘न’ में ही और वह भी मुँह से नहीं, जरा सा गरदन हिलाकर और गरदन हिलाते ही चेहरे पर गिरे बाल की जो लटें हिल-हिल उठतीं, वह उन्हें परेशानी से सँभालने लगती।

◆ शायद मेरी भावुकता देखकर ही चूड़ीहारिनों के मुँह पर खेलनेवाली अजस्र हँसी और चुहल में ही उसकी माँ बोली- बबुआजी, रजिया से ब्याह कीजिएगा?

◆ फिर बेटी की ओर मुखातिब होती मुसकराहट में कहा—क्यों रे रजिया, यह दुलहा तुम्हें पसंद है?

◆  रजिया, चूड़ीहारिन ! वह इसी गाँव की रहनेवाली थी। बचपन में इसी गाँव में रही और जवानी में भी। क्योंकि मुसलमानों की गाँव में भी शादी हो जाती है न!

◆  रजिया पढ़ नहीं सकी।

◆ रजिया कौनसी कला जान गई? :- खरीदारिनों के हाथों में चूड़ियाँ पहनाने की कला ।

◆  नई बहुओं रजिया के हाथ से चूड़ियाँ पहनना पसंद करती।

◆  रजिया की  माँ इससे प्रसन्न ही हुई—जब तक रजिया चूडियाँ पहनाती, वह नई-नई खरीदारिनें फँसाती।

◆  रजिया के  शरीर में नए-नए विकास हो रहे हैं, शरीर में और स्वभाव में भी।

◆ “देखियो री रजिया, बबुआजी को फुसला नहीं लीजियो।”(लेखक की भौजी (भाभी)ने कहा )

◆ जब रजिया  बहनों को चूडियाँ पहनाती होती हैं, कितने भाई तमाशा देखने को वहाँ एकत्र हो जाते हैं। क्यों? बहनों के प्रति भ्रातृभाव या रजिया के प्रति अज्ञात आकर्षण उन्हें खींच लाता है?

◆ जब रजिया बहुओं के हाथों में चूड़ियाँ पहनाती होती है, पतिदेव दूर खड़े कनखियों से देखते रहते हैं—क्या? अपनी नवोढ़ा की कोमल कलाइयों पर क्रीड़ा करती हुई रजिया की पतली उँगलियों को !

◆  रजिया अपने पेशे में भी निपुण होती जाती थी।

◆ चूड़ीहारिन के पेशे के लिए सिर्फ यहीं नहीं चाहिए कि उसके पास रंग-बिरंगी चूडियाँ हों-सस्ती, टिकाऊ, टटके से टटके फैशन की बल्कि यह पेशा चूडियों के साथ चूड़ीहारिनों में बनाव-श्रृंगार, रूप-रंग, नाजोअदा भी खोजता है।

◆ सफल चूड़ीहारिन यह रजिया की माँ भी किसी जमाने में क्या कुछ कम रही होगी! खंडहर कहता है, इमारत शानदार थी!
* खंडहर और इमारत शब्द :- रजिया की माँ के लिए

◆ “इस जमूरे को कहाँ से उठा लाई है रे?” (लेखक ने रजिया से कहा)
* जमूरे :- रजिया का पति/खाबिंद /मालिक का नाम :- हसन

◆  लेखक की पत्नी की कलाई पकड़कर बोली- मालिक भी तुम्हारे पीछे इसी तरह छाया की तरह डोलते रहें, दुलहन !

◆  लेखक अपनी पत्नी को ‘रानी’ कहकर सम्बोधित करता था।

◆  रजिया से लेखक की भेट पटना में हुई।

◆ पटना सिटी में एक छोटे से अखबार में था— पीर बावची भिश्ती की तरह! यो जो लोग समझते कि मैं संपादक ही हूँ। इसलिए मेरी बड़ी कदर है।

◆ चौक के एक प्रसिद्ध पानवाले की दुकान पर पान खा रहा था मेरे साथ मेरे कुछ प्रशंसक नवयुवक थे। तभी  एक बच्चा आया और बोला, ‘बाबू, वह औरत आपको बुला रही है।’
* औरत :- रजिया

◆  मालिक! अब तो नए किस्म के लोग हो गए न? अब लाख की चूड़ियाँ कहाँ किसी को भाती हैं।

◆ नए लोग, नई चूडियाँ! साज-सिंगार की कुछ और चीजें भी ले जाती हूँ-पौडर, किलप, क्या-क्या चीजें हैं न नया जमाना, दुलहनों के नए-नए मिजाज…(रजिया ने कहा लेखक से)

◆ रजिया का पति हसन :- लंबी दाढी और पाँच हाथ का लंबा।

◆  मालिक, यह आज भी मेरा पीछा नहीं छोड़ता!’
(रजिया ने यह कथन लेखक को अपने पति के लिए कहा)

◆ “किस तरह दुनिया बदल गई है। अब तो ऐसे भी गाँव हैं, जहाँ के हिंदू मुसलमानों के हाथ से सौदे भी नहीं खरीदते। अब हिंदू चूड़ीहारिनें हैं, हिंदू दर्जी हैं।”(रजिया का कथन)

◆ लेखक की पत्नी (रानी ) तो  रजिया के अलावा किसी दूसरे के हाथ से चूडियाँ नही लेती ।

◆ रजिया ने लेखक से कहा  ” डरिए मत मालिक, अकेले नहीं आऊँगी, यह भी रहेगा। क्यों मेरे राजा?”
* यह :- रजिया का  पति हसन के लिए

◆  “बाबू, बाल-बच्चोंवाली हो गई, किंतु इसका बचपना नहीं गया।”(हसन ने रजिया के लिए कहा)

◆  रजिया मेरे डेरे पर हाजिर है! मालिक, ये चूड़ियाँ रानी के लिए।’ कहकर मेरे हाथों में चूडियाँ रख दीं।

◆ लेखक रजिया के गाँव नेता बनकर गया थे।

◆ जीप से उतरकर लोगों से बातें कर रहा था, या यों कहिए कि कल्पना के पहाड़ पर खड़े होकर एक आनेवाले स्वर्ण युग का संदेश लोगों को सुना रहा था।

◆  वह रजिया चली आ रही है! रजिया! वह बच्ची, अरे, रजिया फिर बच्ची हो गई? कानों में वे ही बालियाँ, गोरे चेहरे पर वे ही नीली आँखें, वही भरबाँह की कमीज, वे ही कुछ लटें, जिन्हें सँभालती बढ़ी आ रही है।
* रजिया सी देखने वाली लड़की :- रजिया की पोती/रजिया के बड़े लड़के की पुत्री)

◆  रजिया की पोती आती है और जबरन भीड़ में घुसकर लेखक निकट पहुँचती है, सलाम करती है और लेखक का हाथ पकड़कर कहती है, ‘चलिए मालिक, मेरे घर ।’

◆  कोई कह रहा है-कैसी शोख लड़की! और दूसरा बोला- ठीक अपनी दादी जैसी ! और तीसरे ने मेरे होश की दवा दी – यह रजिया की पोती है।
बाबू! बेचारी बीमार पड़ी हैं। आपकी चर्चा अकसर किया करती है। बड़ी तारीफ करती है। बाबू, फुरसत हो तो जरा देख लीजिए, न जाने बेचारी जीती है या ….
* शोख लड़की :- रजिया की पोती के लिए

◆  रजिया –  हसन के तीन बेटे :-
●  बड़ा बेटा ( कलकत्ता कमाता हैं)
●  मँझला (पुश्तैनी पेशे में लगा है)
●  छोटा (शहर में पढ़ता है)

◆ दादा का सिर पोते में, दादी का चेहरा पोती में । हूबहू रजिया ! यह दूसरी रजिया मेरी उँगली पकड़े पुकार रही है-दादी, ओ दादी ! घर से निकल, मालिक दादा आ गए!

◆ रजिया की पोती लेखक को ‘मलिक दादा’ कहती है।

◆ रजिया ने अपनी पोती को भेज तो दिया, किंतु उसे विश्वास न हुआ कि हवागाड़ी पर आनेवाले नेता अब उसके घर तक आने की तकलीफ कर सकेंगे?

◆ रजिया- हाँ, मेरे सामने रजिया खड़ी थी। दुबली- पतली, रूखी-सूखी। किंतु जब नजदीक आकर उसने ‘मालिक, सलाम’ कहा।

◆  रजिया का  चेहरा अचानक बिजली के बल्ब की तरह चमक उठा और चमक उठीं वे नीली आँखें, जो कोटरों में धँस गई थीं! और, अरे चमक उठी हैं आज फिर वे चाँदी की बालियाँ और देखो, अपने को पवित्र कर लो ! उसके चेहरे पर फिर अचानक लटककर चमक रही हैं वे लटें, जिन्हें समय ने धो-पोंछकर शुभ्र – श्वेत बना दिया है।

 

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