वयण सगाई या वैण सगाई अलंकार 【vayan sagaee ya vainen sagaee alankaar】

• वयण सगाई या वैण सगाई इसे वरण सगाई या वरण संबंध भी कहते हैं।

• वयण का अर्थ :- वर्ण या अक्षर

• सगाई का अर्थ :- संबंध

• वयण सगाई का अर्थ है :- वर्णों का संबंध

• किसी छंद के प्रत्येक चरण में पहला अक्षर के संबंध के नियम को सही तरह से निभाना ही वयण सगाई है।

• यह राजस्थानी भाषा का डिंगल काव्य का सर्वाधिक महत्वपूर्ण शब्दालंकार रहा है।

• डिंगल काव्य में वयण सगाई अलंकार का सर्वाधिक प्रयोग किया गया है।

• डिंगल के अलंकार शास्त्री ने वयण सगाई अलंकार को शुभ माना है।

• डिंगल काव्य में 14वीं और 15वीं शताब्दी में वयण सगाई अलंकार का प्रयोग थोड़ा बहुत देखा गया था लेकिन 16 वीं शताब्दी में इस अलंकार का प्रयोग सर्वाधिक देखने को मिला।

• मध्यकालानी राजस्थानी काव्य रचयिताओं को यह अलंकार बहुत प्रिय रहा है। विशेष तौर से चारण काव्य में वयण सगाई अलंकार सर्वाधिक प्रयोग हुआ।

• डिंगल के प्रमुख विद्वान वयण सगाई को अनुप्रास का भेद मानते हैं।

• मुरारिदान ने अपने ग्रंथ ‘डिंगलकोश’ में वयण सगाई का निरूपण अनुप्रास के अन्तर्गत न करके पृथक किया है।

★ वयण सगाई अलंकार के प्रयोग करने से :-

1. काव्य की पद योजना में खास तौर से वाचन में एक अनूठी चमत्कारिता आ जाती है।

2. अक्षरों का संबंध कई प्रकार से बिठाया जाता है
जिससे काव्य में विशिष्ट प्रकार का नाद सौंदर्य प्रकार
होता है।

3. काव्य में एक प्रकार की कसावट और निपुणता आ
जाती है।

4. जहां इस अलंकार का प्रयोग पूरी दक्षता के साथ
किया जाता है वहां काव्य को कंठस्थ करने में भी
बड़ी सहुलियत हो जाती है क्योंकि अक्षरों में ध्वनि
– साम्य के कारण स्मृति उन पंक्तियों की सहज ही
ग्रहण कर लेती है और काव्य की पंक्ति गमक की
स्मृतियों से आसानी से नही छोड़ती।

◆ वयण सगाई अलंकार का प्रयोग सर्वाधिक इन ग्रंथों में देखने को मिलता है :-

1. क्रिसन रुकमणी री वेलि :- पृथ्वीराज राठौड़

2. वीर सतसई :- सूर्यमल्ल मिसण

3. वंश भास्कर :- सूर्यमल्ल मिसण

4. रघुनाथ रुपक :- कवि मंछ

5. रघुवरजस प्रकाश :- कवि किसनाआढ़ा

6. कवि कुव्व बोध

◆ वयण सगाई अलंकार के संबंध में विद्वानों के
विचार :-

1. सूर्यमल मिश्रण मीसण वयण सगाई के संबंध में
अपने ग्रंथ ‘वंश भास्कर’ में लिखते हैं:-
“वृत चरन के आदि वरन जो ताहि के उपअंत
 बहुत सो इक सों लैरू च्यारि लग अति,बर,मध्यम,अधक अधिकतर तम पर नाम बरन संबंध अलंकृति अर्धन मैं हूं करत यह अनुसृति।”

2. प्रसिद्ध लक्षण अलंकार ग्रंथ ‘रघुनाथ रूपक’ (कवि मंछ कृत)में वयण सगाई के संबंध में का वर्णन:-
“वयण सगाई वेश,मिल्या सांच दोषण मिटै।”
【प्रथम विलास,21वां पद】
भावार्थ :- जब भी किसी काव्य में वयण सगाई
अलंकार आ जाता है तो उसमें काव्य के सभी दोष
मिट जाते हैं।

3. “आवै इण भाषा अमल , वयण सगाई वेस।
दग्ध अगण बद दुगणरों , लागै नँए लवलेश।।”
【रघुनाथ रूपक से, प्रथम विलास,19वां पद】
भावार्थ :- इस डिंगल भाषा में ऐसा नियम है कि यदि
अक्षरों की वयण सगाई मिल जाती है तो दग्धाक्षरों का,अशुभ गणों का और अशुभ द्विगणों का कुछ भी दोष नहीं लगता है।

4. डिंगल पद्य रचना में वयण सगाई के प्रयोग की एक
परंपरा – सी बन गई थी जोकि बहुत समय तक
प्रचलित रही। इस स्वतः आरोपित अलिखित किंतु
सर्वमान्य नियम के अनिवार्यता और अनावश्यक बंधन का अनुभव बहुत समय के उपरांत कवि सूर्यमल्ल मिसण ने अपने ग्रन्थ ‘वीर सतसई की रचना करते समय लिखा :-

” वैण सगाई वालियां,पेखीजे रस पोस।
वीर हुतासण बोल में, दीसे हैक न दोस।।”

भावार्थ :- वयण सगाई के नियम के उपयोग से
सामान्यतः रस की पुष्टि होती है किंतु अग्नि के सदृश्य
ज्वलनशील वीर रसात्मक उक्तियों में वयण सगाई के
अभाव में भी कोई दोष दृष्टिगत नहीं होता।

5. नरोत्तमदास स्वामी के अनुसार- ” वैण सगाई
कविता के किसी चरण के दो शब्दों के प्रायः करके
प्रथम और अंतिम शब्दों का संबंध स्थापित करती है।”

◆ वयण सगाई का साधारण नियम :- इसके छंद के आरंभिक शब्द जिस अक्षर से प्रारंभ होते हैं उसके अंतिम शब्द का प्रारंभ भी उसी अक्षर से होना चाहिए।

जैसे :-

         अकबर गरब न आंण, हीदूं सह चाकर हुआ।
         दीठो कोई दीवॉण, रतो लटका टहड़े।

◆ वयण सगाई के भेद :-

1. रघुनाथ रूप में :- चार भेद

2. रघुजस प्रकाश में :- दस (वैण सगाई एवं अखरोट को पृथक करके भेद – उपभेद सहित )

3. डिंगल साहित्य में (जगदीश प्रसाद ) :- तीन

4. डिंगल गीत साहित्य में (नारायण भाटी) :- तीन

5. राजस्थानी साहित्य छंद – अलंकार पुस्तक में :- तीन

• वयण सगाई के तीन भेद के नाम :-

1. आदि मेल

2. मध्य मेल

3. अंत मेल

1. आदि मेल :- इस अलंकार के अनुसार चरण के प्रथम शब्द के आदि वर्ण स्वर या व्यंजन की पुनरावृत्ति चरण के अन्त में आने वाले शब्द के आदि में होनी चाहिए।

जैसे :-
सांचो मित चेत, हो काम न करें किसा।
र अरजण रै हेत,थ कर हांक्यी राजिया।।

ण वई ! गाउं तुझ गुण, पांऊ वीस प्रकाश।

मिलतां ऊतरिया दर,साकुर बाधा सेल।
 मिजमानां जिम डिया, खो बाबाजी खेल।।

राजा आगै पार रै, ग कुबंगा जीत।
  राजा पग बांधै सा, राजा कुव्व री रीत।।

बीकम वरसां बीतियां, गुण चौ चंद गुणीस।
  बिसहर तिथि गुरु जेठ दि, मय पकट्टी सीस।।

• सासई दोहामयी, मीसण सूरजमाल।
  जंपै भड़खाणी ठै, सुणै कायरा साल।।

हणी सबरी हूं खी, दो उर उल्लंटी दाह।
  दूध लजाणों पूत तिम, वल्लय लजाणों नाह।।

नाग, द्रमंका की पडे़ नागण ! धर मचकाय।
  णरा भोगणहार जे ज भिड़ाणा आयक्त्ड़ 

लै हसन्ति हिक्कली, हरम्म कोह लावनी।

नोट :-

• अत्युत्तम वयण सगाई :- जहाँ चरण के आदि वर्ण की पुनरावृत्ति उसी रूप में चरणान्त के एक वर्ण पहले होती है।

जैसे :-

तांगे बात तवे सचतां

(यहां चरण के आदि वर्ण ‘ता’ की पुनरावृत्ति उसी रूप में ‘ता’ चरणान्त के एक वर्ण के पहले हुई।)

नर नादेत नरिंद नरेहरण।
निकल निघुट निपाप निधेम ।।
(आदि वर्ण के रूप में अत्युत्तम वयण सगाई)

2 मध्य मेल:- जहां चरण के प्रथम शब्द के प्रथम वर्ण की पुनरावृति शब्द के मध्य में हुई हो वहां यह अलंकार माना जाता है।

जैसे :-

धू जिसा अडग ने सेर जेह वेड़ा।
 फंसे भूयाण केकांण जेह वफड़ा।।

ण हालिजै चाणां ,चाहे अब लग चैंन।
 करै सुहड़ जिसड़ी कहो, विधसो दूर वणैन।।

हर राणा तणी वार मझ ऐठा।

3. अंत मेल :- जहां चरण के प्रथम शब्द के आदि वर्ण की पुनरावृति चरण के अंत के शब्द के अंत में होती है वहां अलंकार होता है।

जैसे :-

किसना निस्चै र, राच सिया व
 जाण भरोसो जेण रो जी।।

लाऊं प सिय लाज हूं , दा कहांऊ दा

मोहण अंबखास विचै जुध पदमा

◆ वर्ण संबंध के आधार पर वयण सगाई के तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है :-

1. उत्तम अथवा अधिक :- किसी चरण या पद के प्रथम और अंतिम शब्दों के प्रथम वर्ण जब एक ही होते हैं तो उसे उत्तम कोटि की वयण सगाई माना जाता है।

उत्तम वयण सगाई :- जहाँ चरण के आदि वर्ण की पुनरावृत्ति के एक वर्ण के पहले हो(इसमें वर्ण की मात्रा संयुक्त या मात्रा रहित कोई भी रूप हो सकता है अथवा मात्रा में भिन्नता भी हो सकती है)।

जैसे :-

लेणां देणां लं

जुतै गढ सनढ अणजीत जीता।

पत धात चौरंग लिखमी ह।
   मंधज चंदनामौ रे।।

2. मध्यम अथवा सम :- किसी चरण या पद के समस्त असमान स्वरों य और व तथा समस्त स्वरों अथवा य और व का वर्णगत संबंध जब घटित होता है तो उसे मध्यम अथवा सम कोटि की वयण सगाई समझा जाता है।

नियम – 1. आ,ई,उ, ऐ के साथ समस्त स्वर

नियम – 2. य और व का वर्णगत संबंध

नियम – 3. ज – झ,व- ब, प- फ, न- ण,ग – घ,

जैसे :-

वधि नगर रे सरा, हा हाथ दार।(नियम – 1से)
 ण सरणागत वासते,दीहा लंक सुवतार।।(नियम – 2)

प रालियाँ परिग्रह जासै( नियम – 1से )
【यहां ‘आ’ और ‘उ’ का वर्णगत संबंध 】

न्हाव्वै जिमिक गि। (नियम – 1से)
  उजेणि अकाल झडाव्व छेह।

【यहां ‘ऊ’, ‘उ’ और ‘आ’, ‘अ’ का वर्णगत संबंध 】

स कज करै लूस, वाज गजराज वडाला। (नियम -3 से)
【यहां ‘ज’ और ‘झ’ का वर्णगत संबंध 】

 

णरा भोगणहार जे ज भिड़ाणा आयक्त्ड़ ।

3. अधम अथवा न्यून :- जब किसी चरण या पद में तवर्ण तथा उनके समयोगी ट वर्ण के वर्णों ,अल्प प्राण तथा उनके समयोगी महाप्राण और व तथा ब का वर्णगत संबंध स्थापित होता है तो उसे अधम या न्यून कोटि की वयण सगाई कहा जाता है।

नियम – 1. तवर्ण तथा उनके समयोगी ट वर्ण के वर्णों का वर्णगत संबंध स्थापित :-

त – ट ,थ – ठ, द- ड, ध- ढ, न- ण

नियम – 2. अल्प प्राण तथा उनके समयोगी महाप्राण का वर्णगत संबंध स्थापित :-

क – ख, ग – घ, च- छ , ज – झ, ट- ठ, ड- ढ, त- थ, द- ध, प- फ, ब- भ

नियम – 3. व तथा ब का वर्णगत संबंध स्थापित :- व – ब

जैसे :-

ट खैम जकै नर भाग या। (नियम – 2 से)
【यहां घ तथा ग वर्णगत संबंध स्थापित है।】

ज नेजा खग ढाहतौ।(नियम – 1 से)
  डेरा दुहूं दिया देढाले।(नियम – 2 से)

चीरंग उरस चाचर छिपै।(नियम – 2 से)

?जरा हटके :-

? कवि मंछ का परिचय?

• जन्म:- संवत् 1827, जोधपुर

• मृत्यु :- संवत् 1897,जोधपुर में (महाराजा मानसिंह के समय)

• वास्तविक नाम :- मंसाराम

• काव्य उपनाम :- मंछ

• सेवग जाति के ब्राह्मण

• गोत्र :- कुवारा

• पिता का नाम :- बखशीराम

• माता का नाम :- रुक्मणी

• पत्नी का नाम :- राधा ( जोधपुर के तेजकरण सेवग की पुत्री)

• इनका प्रसिद्ध ग्रंथ :- रघुनाथ रूपक

??रघुनाथ रूपक का परिचय ??

• रचयिता :- कवि मंछ

• इस ग्रंथ की समाप्ति-:- संवत् 1863 भादो सुदी दशमी, सोमवार

• डिंगल भाषा का मान्य और प्रामाणिक रीति ग्रंथ

• राम चरित्र का वर्णन

• कुल अध्याय :- 9 विलास (अध्याय)

• प्रथम अध्याय में :- प्रथम अध्याय में वयण सगाई अलंकार पर संक्षेप में प्रकाश डाला है।

• रघुनाथ रूपक पर डॉ. ग्रियर्सन का मत :- ” मारवाड़ में दोनों भाषाओं, डिंगल और मारवाड़ी में सैकड़ों वर्षो से कविता होती रही है। मारवाड़ी में पहली को पिंगल कहते हैं और पिछली को डिंगल कहते हैं। डिंगल का सबसे अधिक प्रशस्ति ग्रंथ मंसाराम का रघुनाथ रूपक है। जो 19वीं शताब्दी के प्रारंभ में लिखा गया था। यह एक छन्दशास्त्र है, जिसमें मौलिक उदाहरण इस ढंग से प्रयुक्त हुए है कि रामचंद्र का इतिहास धारा प्रवणरूपेण दिया गया है।”

 

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