शिवमूर्ति निबंध(Shivmurti nibandh) प्रतापनारायण मिश्र

                ?‘शिव मूर्ति’निबंध  ?
                【प्रतापनारायण मिश्र 】

◆  ग्रामदेव :-  भगवान भूतनाथ ( अकथ्य ,अप्रतर्क्य एवं अचिन्त्य)

◆ भगवान भूतनाथ की सभी बातें सत्य हैं, अतः उनके विषय में जो कुछ कहा जाये सब सत्य है मनुष्य की भांति वे नाड़ी आदि बंधन से बद्ध नहीं हैं।

◆ भगवान भूतनाथ निराकार और प्रेम दृष्टि से हृदय मन्दिर में उनका दर्शन करके साकार कहे सकते हैं ।

◆  भगवान भूतनाथ का यथा – तथ्य वर्णन कोई नहीं कर सकता ।

◆  सब शास्त्रार्थ के आगे निरी बकबक है और विश्वास के आगे मनः शांति कारक सत्य है !

◆ महात्मा कबीर ने इस विषय में कहा है वह निहायत सच है कि जैसे कई अंधों के आगे हाथी आये और कोई उसका नाम बता दे ,तो सब उसे टटोलेंगे। यह तो संभव ही नहीं हैं कि मनुष्य के बालक की भांति उसे गोद में ले के सब कोई अवयव का ठीक – ठीक बोध कर ले केवल एक अँग टटोल सकते हैं।
● दाँत टटोलने वाला हाथी को खूंटी के समान
● कान छूने वाला सूप के समान
● पांच स्पर्श करने वाला खंभे के समान कहेगा,
यद्यपि हाथी न खूंटे के समान है न खंभे के । पर कहने वालों की बात झूठी भी नहीं है। उसने भली भांति निश्चय किया है और वास्तव में हाथी का एक एक अंग वैसा ही है जैसा वे कहते हैं। ठीक यही हाल ईश्वर के विषय में हमारी बुद्धि का है।

◆  सिद्धान्त यह कि हमारी बुद्धि जहां तक है वहां तक उनकी स्तुति प्रार्थना, ध्यान, उपासना कर सकते हैं ।

◆ हमारा मन बुद्धि शरीर संसार परमार्थ के लिये मंगल है।

◆ जो लोग केवल जगत के दिखाने को या सामाजिक नियम निभाने को इस विषय में कुछ करते हैं उनसे तो हमारी यही विनय है कि व्यर्थ समय न बितावें।

◆ जितनी देर पूजा पाठ करते हैं, जितनी देर माला सरकाते हैं उतनी देर कमाने-खाने, पढ़ने- गुनने में ध्यान दें तो भला है !

◆ जो केवल शास्त्रार्थी आस्तिक हैं वे भी व्यर्थ ईश्वर को अपना पिता बना के माता को कलंक लगाते हैं।

◆  लेखक का  यह लेख केवल उनके विनोदार्थ है जो अपनी विचार शक्ति को काम में लाते हैं और ईश्वर के साथ जीवित सम्बन्ध रख के हृदय में आनन्द पाते हैं, तथा आप लाभकारक बातों को समझ के दूसरों को समझाते हैं ।

◆ मूर्ति बहुधा पाषाण की होती है जिसका प्रयोजन यह हैं कि उनसे हमारा दृढ़ सम्बन्ध है ।

◆ दृढ़ वस्तुओं की उपमा पाषाण से दी जाती है।

◆  हमारे विश्वास की नींव पत्थर पर है हमारा धर्म पत्थर का है।

◆ धातु की मूर्ति से यह है कि हमारा स्वामी व शील अर्थात् दयामय है।

◆  रत्नमयी की मूर्ति का यह अर्थ है कि :-  हमारा ईश्वरीय सम्बन्ध अमूल्य है जैसे पन्ना पुख- राज की मूर्ति बिना एक गृहस्थी भर का धन लगाये नहीं हाथ आती । यह बड़े ही अमीर का साध्य है । वैसे ही प्रेममय परमात्मा भी हमको तभी मिलेंगे जब हम अपने ज्ञान का अभिमान खो दें। यह भी बड़े ही मनुष्य का काम है ।

◆ मृत्तिका की मूर्ति का यह अर्थ है कि :-  उनकी सेवा हम सब ठौर कर सकते हैं। जैसे मिट्टी और जल का अभाव कहीं नहीं है, वैसे ही ईश्वर का वियोग कहीं नहीं है। धन और गुण का ईश्वर प्राप्ति में कुछ काम नहीं। वह निर्धन के धन हैं ।

◆ गोबर की मूर्ति  :- यह सिखाती है कि ईश्वर आत्मिक रोगों का नाशक है हृदय मन्दिर की कुवासना रूपी दुर्गंध को हरता है ।

◆  पारे की मूर्ति में  :- यह भाव है कि प्रेमदेव हमारे पुष्टि कारक ‘ सुगन्धं पुष्टिवर्द्धनं’ यह मूर्ति बनाने या बनवाने की सामर्थ्य न हो तो पृथ्वी और जल आदि ऋष्ठ मूर्ति बनी बनाई पूजा के लिये विद्यमान हैं ।

◆ मूर्तियों के रंग भी यद्यपि अनेक होते हैं पर मुख्य रंग तीन हैं :-
● पहला श्वेत रंग जिसका अर्थ :-   आत्मा शुद्ध है, स्वच्छ है।
√  सभी उसके ऐसे आश्रित हो सकते हैं जैसे उजले रंग पर सब रंग वह त्रिगुणतीत तो हुई, पर त्रिगुणालय भी उसके बिना कोई नहीं ।
√  सतोगुणमय ।

● दूसरा लाल रंग जिसका अर्थ :- जो रजोगुण का वर्ण है।
√  कविता के आचार्यों ने अनुराग का रंग लाल कहा है ।

●  तीसरा रंग काला जिसका अर्थ :-
√ उसका भाव सब सोच सकते हैं कि सबसे पक्का यही रंग है, इस पर दूसरा रंग नहीं चढ़ता।
√ इसके सिवा बाह्य जगत के प्रकाशक नैन हैं।
√  उनकी पुतली काली होती है, भीतर का प्रकाशक ज्ञान है।
√ उसकी प्रकाशिनी विद्या है जिसकी समस्त पुस्तकें काली मसि से लिखी जाती है ।
√ जो प्रेमियों को आंख की ज्योति से भी प्रियतर है, जो अनन्त विद्यामय है।
√ किसी सुन्दर व्यक्ति के आंखों में काजल और गोरे गाल पर तिल कैसा भला लगता है ।
√ जिनके असली तिल नहीं होता उन्हें सुन्दरता बढ़ाने को कृत्रिम तिल बनाना पड़ता है।
* मसि का अर्थ :- स्याही

◆ शिवमूर्ति लिङ्गाकार होती है जिसमें हाथ, पांव, मुख कुछ नहीं होते ।

◆ सब मूर्ति पूजक कह देंगे कि ‘हमको साक्षात् ईश्वर नहीं मानते न उसकी यथा तथ्य प्रति कृति मानें। केवल ईश्वर की सेवा करने के लिये एक संकेत चिन्ह मानते हैं।

◆ लिंग शब्द का अर्थ :- चिन्ह

◆  ईश्वर यावत् संसार का उत्पादक है ।

◆ ‘नतस्य प्रतिमास्ति’ का अर्थ  :- ईश्वर प्रतिमा नहीं है ।

◆ हाथ, पाँव, मुख, नेत्रादि कुछ भी नहीं है उसे प्रतिमा कौन कह सकता है ?

◆ शिवलिंग निरवयव है, पर मूर्ति है ।
* निरवयव का अर्थ :- अंग रहित, निराकार

◆ महात्मा लोग कह गये हैं कि ईश्वर को बाद में न ढूंढो पर विश्वास में । इसलिये हम भी योग्य समझते हैं कि सावयव ( हाथ पांव इत्यादि वाली ) मूर्तियों के वर्णन की और झुकें जानना चाहिये कि जो जैसा होता है उसकी कल्पना -भी वैसी ही होती है।

◆  यह संसार का जातीय धर्म है कि जो वस्तु हमारे आस – पास हैं उन्हीं पर हमारी बुद्धि दौड़ती है ।

◆ फारस, अरब और इंग्लिश देश के कवि जब संसार की अनित्यता वर्णन करेंगे तो क़ब्रिस्तान का नक्शा खींचेंगे, क्योंकि उनके यहाँ श्मशान होते ही नहीं हैं वे यह न कहें तो क्या कहें कि बड़े – बड़े बादशाह खाक में दबे हुए सोते हैं । यदि कब्र का तखता उठा कर देखा जाय तो शायद दो चार हड्डियां निकलेंगी जिन पर यह नहीं लिखा कि यह सिकन्दर की हड्डी है यह दारा की इत्यादि ।

◆ यूरोप में खूबसूरती के बयान में अलकावली का रंग काला कभी न कहेंगे।
* अलकावली :- घुंघराले बाल।

◆  ईश्वर के विषय में बुद्धि दौड़ाने वाले सब कहीं सब काल में मनुष्य ही हैं ।

◆ इंजील और कुरान में भी कहीं ख़ुदा का दाहिना हाथ बायां हाथ इत्यादि वर्णित हैं।
* इंजील  – ईसाइयों की धर्म पुस्तक

◆ बरंच यह खुला हुआ लिखा है कि उसने आदम को अपने स्वरूप में बनाया। चाहे जैसी उलटफेर की बातें मौलवी साहब और पादरी साहब कहें, पर इसका यह भाव कहीं न जायेगा कि ईश्वर यदि सावयव है। तो उसका भी रूप हमारे ही रूप का सा होगा ।

◆  हम यदि ईश्वर को अपना आत्मीय मानेंगे तो अवश्य ऐसा ही मान सके हैं जैसों से प्रत्यक्ष में हमारा उच्च सम्बन्ध है ।

◆ हमारे माता, पिता, भाई-बन्धु, राजा, गुरू जिनको हम प्रतिष्ठा का आधार एवं आधेय कहते हैं उन सब के हाथ, पाँव, नाक, मुँह हमारे हस्तपदादि से निकले हुए हैं, तो हमारे प्रेम और प्रतिष्ठा का सर्वोत्कृष्ट सम्बन्धी कैसा होगा बस इसी मत पर सावयव सब मूर्ति मनुष्य की सी मूर्ति बनाई जाती है।

◆  विष्णुदेव की सुन्दर सौम्य मूर्तियां प्रेमोत्पादनार्थ हैं क्योंकि खूबसूरती पर चित्त अधिक आकर्षित होता है।

◆ भैरवादि की मूर्तियां भयानक हैं जिसका यह भाव है कि हमारा प्रभु हमारे शत्रुओं के लिये महा भयजनक है ।

◆   शिवमूर्ति में कई एक विशेषता हैं :-

● शिर पर गंगा का चिन्ह होने से यह यह भाव है कि गंगा हमारे देश की सांसारिक और परमार्थिक सर्वस्व हैं और भगवान सदा शिव विश्वव्यापी हैं । अतः विश्वव्यापी की मूर्ति – कल्पना में जगत  सर्वोपरि पदार्थ ही शिर स्थानी कहा जा सकता है।

● गंगा  दूसरा अर्थ यह है कि पुराणों में गंगा की विष्णु के चरण से उत्पत्ति मानी गई है और शिवजी को परम वैष्णव कहा है ।
√  ऐसे ही विष्णु भगवान को परम शैव लिखा है कि भगवान विष्णु नित्य सहस्र कमल पुष्पों से सदा शिव की पूजा करते थे । एक दिन एक कमल घट गया तो उन्होंने यह विचार के कि हमारा नामकमल नयन है अपना नेत्र कमल शिवजी के चरण कमल को अर्पण कर दिया।

● भगवान विष्णु की शैवता और भगवान शिव की वैष्णवता का आलंकारिक वर्णन है ।

● विष्णु :-  व्यापक
    शिव :-  कल्याणमय
    यह दोनों एक ही प्रेम स्वरूप के नाम हैं।

●  शैवों के धर्म का आधार है ।

●  शिवमूर्ति में अकेली गंगा कितना हित कर सकती हैं इसे जितने बुद्धिमान जितना विचारें उतना ही अधिक उपदेश प्राप्त कर सकते हैं।

●  शिव मूर्तियों के पांच मुख होते हैं जिससे हमारी समझ में यह आता है कि यावत संसार और परमार्थ क तत्व तो चार वेदों में आपको मिल जायेगा।
√  एक मुख और है जिसकी प्रेममयी बारगी केवल प्रेमियों के सुनने में आती है।
√ केवल विद्याभिमानी अधिकाधिक चार वेद द्वारा बड़ी हद्द चार फल (धर्मार्थ काम मोक्ष) पा जायंगे, पर उनके पंचम मुख सम्बन्धी सुख औरों के लिये है

● मरने के पीछे कैलाशवास तो विश्वास की बात है । हमने न कैलाश देखा है, न किसी देखने वाले से कभी वार्तालाप अथवा पत्र व्यवहार किया है।

●  अक्षरमयी मूर्ति के सच्चे सेवकों को संसार ही में कैलाश का मुख प्राप्त होगा इसमें सन्देह नहीं है, क्योंकि जहां शिव हैं वहां कैलाश है।

● जिस प्रकार अन्य धातु पाषाणादि निर्मित मूर्तियों का रामनाथ, वैद्यनाथ, आनन्देश्वर, खेरेश्वर आदि नाम होता है. वैसे इस अक्षरमयी शिवमूर्ति के अगणित नाम हैं ।

● हृदयेश्वर, मंगलेश्वर, भारतेश्वर इत्यादि पर मुख्य नाम प्रेमेश्वर है कोई महाशय प्रेम का ईश्वर न समझे मुख्य अर्थ है कि प्रेममय ईश्वर इनका दर्शन भी प्रेम-चक्षु के बिना दुर्लभ है ।

● जब अपनी अकर्मण्यता का और उनके एक एक उपकार का सच्चा ध्यान जमेगा तब अवश्य हृदय उमड़ेगा, और नेत्रों से अश्रुधारा बह चलेगी । उस धारा का नाम प्रेमगंगा है उसी के जल से स्नान कराने का माहात्म्य है।

●  मूर्ति की पूजा है जो प्रेम के बिना नहीं हो सकती।

●   संसार भर के मूर्तिमान और अमूर्तिमान सब पदार्थ शिव मूर्ति हैं, अर्थात् कल्याण का रूप है । नहीं तो सोने और हीरे की मूर्ति तुच्छ है ।

● यदि उससे स्त्री का गहना बनवाते तो उसकी शोभा होती, तुम्हें सुख होता, भैयाचारे में नाम होता, विपत्ति काल में निर्वाह होता पर मूर्ति से कोई बात सिद्ध नहीं हो सकती।

●   जहां तक सहृदयता से विचार कीजियेगा वहां तक यही सिद्ध होगा कि प्रेम के बिना वेद झगड़े की जड़, धर्म बिना शिर पैर के काम, स्वर्ग शेखचिल्ली का महल, मुक्ति प्रेत की बहिन है। ईश्वर का तो पता ही लगना कठिन है ।
√ प्रेम के बिना  :- वेद झगड़े की जड़
√ धर्म :- बिना शिर पैर के काम
√ स्वर्ग :- शेखचिल्ली का महल
√ मुक्ति  :- प्रेत की बहिन

● ब्रह्म शब्द ही नपुंसक अर्थात है ।
* नपुंसक का अर्थ :- काम शक्ति रहित
* नपुंसक में ब्रह्म और पुंल्लिङ्ग में ब्रह्मा प्रयोग होता है।

●  हृदय मन्दिर में प्रेम का प्रकाश है तो संसार शिवमय है क्योंकि प्रेम ही वास्तविक शिवमति अर्थात कल्याण का रूप है।

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