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सिद्ध साहित्य का समय:– 8 वीं शताब्दी से 13 वीं शताब्दी तक।
[ ] सिद्ध साहित्य का कार्यक्षेत्र :-
• बंगाल, असम, उड़ीसा बिहार ।(डॉ. नगेन्द्र के अनुसार)
• जालंधर, ओडियान,अर्बुद,पूर्वगिरी ,कामरूप। ( प्रकाश बगीची के अनुसार )
• ओडियान, पूर्णगिरि ,कामाख्या (साधनमाला में)
[ ] सिद्ध साधना के केंद्र :-
• नालंदा विश्वविद्यालय(बिहार के राजगीर जिले में,
• स्थापना – कुमारगुप्त प्रथम के द्वारा)
• विक्रमशिला विश्वविद्यालय ( बिहार के भागलपुर
• जिले में, स्थापना – धर्मपाल के द्वारा)
* बख्तियार खिलजी द्वारा इन दोनों विश्वविद्यालयों को नष्ट किए जाने पर सिद्ध इधर-उधर बिखर गये।
• सिद्ध साहित्य का संबंध बौद्धों की महायान शाखा के अनेक उपशाखाओं में से वज्रयान शाखा से था।( डॉ. नगेन्द्र के अनुसार)
• सिद्ध साहित्य से नाथ साहित्य का विकास हुआ। नाथ साहित्य की प्रेरणा से भक्ति कालीन संत साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ। (डॉ. नगेन्द्र के अनुसार)
• सिद्धों ने गये पदो की परम्परा प्रारम्भ की थी।
• तांत्रिक क्रियाओं में आस्था के कारण इन्हे सिद्ध कहा गया।
• पा का अर्थ:– पाद (सम्मान सूचक पदवी)
• सिद्धों की कुल संख्या:- चौरासी(84)
• सिद्धों की बानियों की भाषा को ‘संध्याभाषा कहते है।
• सिद्धों ने इला पिंगला के बीच सुषुम्ना नाडी कि मार्ग से शून्य देश की ओर यात्रा। इसी से वे अपनी बानियों की भाषा को ‘संध्याभाषा’कहते थे।
• अद्वयवज्र तथा मुनिदत्त ने सिद्धों की भाषा को संधा या संध्या भाषा कहा था।
• सिद्धों ने जनता मे अपने मत के प्रचार के लिए संस्कृत के अतिरिक्त अपभ्रंश मिश्रित देशभाषा मे भी रचनाएँ की।वस्तुतः यह साहित्यिक अपभ्रंश भाषा है।
• पं.राहुल सांस्कृत्यायन ने इन सिद्धों की भाषा को लोकभाषा के अधिक समीप देखकर इसे हिन्दी का प्राचीन रूप माना है। इसी मत के आधार पर काशीप्रसाद जायसवाल ने सिद्ध सरहपा को हिन्दी का प्रथम लेखक मना लिया है।
• सिद्ध साहित्य तांत्रिक क्रियाओं में आस्था के कारण इन्हें सिद्ध कहा गया है ।( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार)
• सर्वप्रथम हिंदी साहित्य की पांडुलिपियॉं म.म. हरप्रसाद शास्त्री को नेपाल में मिली थी ।( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार)
• सिद्ध के साहित्य में बौद्ध धर्म की विकृत और अस्वस्थ अवस्था का साहित्य है।(आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन )
• आचार्य रामचंद्र शुक्ल का कथन ने सिद्धों पर एक दोषारोपण किया है कि उन्होंने इस बौद्ध वामाचार को अपनी चरम सीमा पर पहुंचा दिया और न केवल स्वतः वे पाप पंक में गिरे वरन जनता को भी उसमें गिराना चाहा अतः देशी भाषा में रचना की ताकि जनता पर उनका संस्कार पड़ सके।
• पंचबिडालः– बौद्ध शास्त्र मे निरूपित पंच प्रतिबन्ध आलस्य, हिंसा,काम,चिकित्सा और मोह।ध्यान देने की बात यह है कि विकारों की यही पांच संख्या निगुर्ण धारा के सन्तों और हिन्दी के सूफी कवियों ने ली। हिन्दू शास्त्रों मे विकारो की बँधी संख्या 6 है।
• 12वीं शताब्दी से पूर्व ही बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा का प्रचार भारत के पूर्वी भागों मे बहुत अधिक था। वे बिहार से आसाम तक फैले थे और 84सिद्ध इन्ही मे से हुए है।(पं.राहुल सांस्कृत्यायन के द्वारा)
• सिद्ध साहित्य का संपादन कार्य सर्व प्रथम :- पाश्चात्य प्राच्यविद् बेंडल ने किया। ( डॉ. नगेन्द्र के अनुसार)
• सिद्ध साहित्य से तात्पर्य सिद्धों द्वारा रचित साहित्य से है।इस साहित्य का सर्वप्रथम पता सन् 1917 ई. में श्री हरप्रसाद शास्त्री को नेपाल में मिला था।
• सिद्ध साहित्य का संपादन कार्य –
1. म.म. हरप्रसाद शास्त्री ने :- बौद्धगान ओ दोहा -1917 ईस्वी ।(नेपाल से पांडुलिपियों के आधार पर)
2. डॉ. मुहम्मद शहीदुल्ला ने :- ले. शा .फिस्तोक्स , फ्रांसीसी ग्रंथ में सरहपाद एवं कृष्णापाद के दोहाकोशों तथा चर्यापदों का वर्णन।( तिब्बती पांडुलिपियों के आधार पर )
3. प्रबोधचंद्र बागची ने:- दोहाकोश में तिल्लोपा सरहपाद, कण्हपा का वर्णन।
4. राहुल सांकृत्यायन ने :- हिंदी काव्य धारा।( तिब्बती पांडुलिपियों के आधार पर)
• महिला सिद्ध योगिनी या भैरवी कहलाती थी।
• चौरासी सिद्धों में तीन योगिनी/महिलाएं (कनखलापा, लक्षिंकर(लक्ष्मी),मणिभद्रपा,)थी।
1. कनखलापा :-
◆ कनखल का अर्थ :- कणक वाला प्रदेश
◆ यह सिद्ध कडप्पा द्वारा अनुग्रहित
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लक्षिंकर(लक्ष्मी):-
◆ उज्जैन (ओडियान) देश के रहने वाली।
◆ जाति :- क्षत्रिय
◆ उज्जैन के अंतर्गत संभल देश के राजा इंद्रभूति
की बहन।-
मणिभद्रपा :-
◆ अगर्च नामक नगर के एक सेठ की 13 वर्षीय
लड़की
◆ इसका सवर्ण कुल में विवाह हुआ।
• चौरासी सिद्धों में हिंदी के प्रमुख सिद्ध कवि-( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार)
1. सरहपा
2. शबरपा
3. लुईपा
4. डोम्भिपा
5. कण्हपा
6. कुक्कुरिपा
सरहपा
• सरहपा का समय 769 ई. या आठवीं शताब्दी में (राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार) -
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• सरहपा की जाति ब्राह्मण थी।
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• सरहपा का जन्म :- पूर्व भारत के राज्ञी नामक नगरी में (सुम्पम्खन के अनुसार)
• उड़ीसा( तिब्बती मुनि श्रुति के अनुसार )
• सरहपा के अन्य नाम :- सरोरूहवज्र, सरोजवज्र,पद्म ,पद्म वज्र तथा राहुल भद्र (महामहोपाध्याय हरप्रसाद शास्त्री ने सरहपा के नाम बताये।)
• सरोरूहवज्र, सरोजवज्र नाम का प्रयोग अद्वयवज्र ने सरह के दोहों की टीका में किया है। उसी के आधार पर पद्म तथा पद्म वज्र भी सरह के नाम मान लिये गए है।
• सिद्धि मे सरहपा ने एक बार शर बनाने वाली युवती को महामुद्रा बनाया था अतः उनका नाम चर्या नाम पर सरह या शरह हो गया ।
• सरहपा के शिष्य होने के कारण शबरपा को भी लघु या नव सरह कहा जाता था।
• सिद्धि प्राप्ति करने के लिए पूर्व उनका नाम राहुल भद्र था
• सरहपा शैशवावस्था से ही वेद वेदांग में के ज्ञाता थे। मध्य – देश में जाकर इन्होंने त्रिपिटकों का अध्ययन किया ,बौद्ध धर्म में दीक्षा ली और नालंदा में आकर आचार्य रूप में रहने लगे (तारा नाथ के अनुसार)
• उड़ीसा के एक आचार्य से इन्होंने मंत्र ज्ञान की दीक्षा ली ।
• महाराष्ट्र में एक शर बनाने वाले की कन्या के साथ महामुद्रा योग संपन्न कर सिद्धि प्राप्त की ।
• सरहपा के द्वारा रचित ग्रंथ 32 बताये जाते हैं जिनमें “दोहाकोश ” हिंदी की रचनाओं में प्रसिद्ध है। सरहपा ने पाखंड और आडंबर का विरोध किया तथा गुरु सेवा को महत्व दिया है ये सहज भोग- मार्ग से जीव को महामुख की ओर ले जाते हैं।
• सरहपा की भाषा सरल थी।
• आक्रोश की भाषा का पहला प्रयोग सरहपा में दिखाई देता है ।
• सरहपा नालंदा में छात्र भी थे और अध्यापक भी थे।
• पानी और कुश को लेकर संकल्प करने वाले।
• रात दिन अग्निहोत्र में निमग्नोन्मग्न रहने वाले।
• घड़ी – घंट बजाकर आरती उतारने वाले।
• मुड़- मुड़ाकर संन्यासी बनाने वाले।
• नग्न रहने वाले ।
• केशों को लुंचित करने वाले।
• झुठे साधको की लानत – मलामत करने वाले।
• सरहपा ने अंतस्साधना पर जोर और पंडितों को फटकारा :-
पंडित सअल सत्त बक्खाणइ। देइहि रुद्ध बसंत न जाणइ।अमणागमण ण तेन विखंडिअ।तोवि णिलज्जई भणइ हउं पंडिअ।।
• दक्षिण मार्ग को छोड़कर वाममार्ग ग्रहण का उपदेश:-
नाद न बिंदु न रवि न शशि मंडल। चिअराअ सहाबे मूकल।
उजू रे छॉंडि मा लेहु रे बंक। निअहि बोहि मा जाहु रे रंक।शबरपा
• शबरपा का जन्म –: 780 ईस्वी में,क्षत्रिय कुल में(डॉ. नगेंद्र के अनुसार)
• शबरपा को “नव सराय” नाम तारानाथ ने दिया।
• यह सरहपा की शिष्य परंपरा के तीसरे थे।
• भांगल या बंगाल देश के थे। (सुम्प म्खन पो के अनुसार)
• पूर्व भारत के एवं नर्तक जाति के (तारा नाथ के अनुसार )
• शबरों का सा जीवन व्यतीत करने के कारण शरबपा कहे जाने लगे ।
• शबरपा ने सरहपा से ज्ञान प्राप्त किया था।
• नागार्जुन से दीक्षा लेकर वे श्रीपर्वत में साधना करने चले गए थे।
• शबरपा की दो महामुद्राएं थी – लोकी और गुनी वे दोनों की साथ रहते थे । दोनों बहने थी और उनका चर्यानाम डाकिनी पद्मावती तथा ज्ञानावती था।
• शरबपा ने अद्वयवज्र को शिक्षा दी थी जिसके कारण राहुल सांस्कृत्यायन इनके नाम से दो सिद्ध मानते है।
• इनकी प्रसिद्ध पुस्तक -: चर्यापद
• माया – मोह का विरोध करके सहज जीवन पर बल देते है और उस को महासुख की प्राप्ति का मार्ग बतलाते हैं ।
• इनकी कविता की पंक्तियां :-
“हेरि ये मेरि तइला बाड़ी खसमे रामतुला
पुकड़ए सेरे कपासु कुटिला।”लुईपा
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लुईपा को तंजूर में भांगाली कहा गया है जिसके आधार पर म.म. हरप्रसाद शास्त्री तथा डॉ. विनीयतोष भट्टाचार्य इन्हें राठ देश के निवासी बंगाली कहते हैं किंतु राहु सांकृत्यायन ने भगांला से भागलपुर का प्रदेश का अर्थ लिया है। वे इन्हे मगधवासी कहते हैं। राजा धर्मपाल के दरबार में कायस्थ बताते हैं ।
• तारा नाथ ने लुईपा को ओडियान के राजा इंद्रभूति के दरबार में कायस्थ बताते है।
• लुईपा मछुवे आवे थे ।(सुम्प म्खन पो के अनुसार)
• लुईपा को योगिनी सहचर्या का प्रवर्तक तारा नाथ ने माना।
• लुईपा उड़ीसा के राजा दरीबा के गुरु थे।( तारा नाथ के अनुसार)
• लुईपा का शिष्य दारिकपा थे तथा लुईपा ने उड़ीसा आकर दारिकपा को दीक्षा दी।( म . म .हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार )
• लुईपा का समय-: संवत् 830 के आसपास ।
• लुईपा के गीतों की पंक्तियां –
क्राआ तरुवर पंच बिडला।चंचल चीए पइठो काल।
दिट करिअ महा सुह परिमाण।लुइ भरमर गुरू पुच्छिब अजाण।।
• राजा धर्मपाल के शासन काल में कायस्थ परिवार मे उत्पन्न हुए थे।
• शबरपा ने इन्हें अपना शिष्य बनाया था ।
• लुईपा की साधना का प्रभाव देखकर उड़ीसा के तत्कालीन राजा तथा मंत्री इनके शिष्य हो गए थे।
• 84 सिद्धों में लुईपा का सबसे ऊंचा स्थान माना जाता है ।
• लुईपा कविता में रहस्यता की भावना की प्रधानता है।
डोम्भिपा
• डोम्भिपा का जन्म :- मगध के क्षेत्रीय वंश के 840 ईस्वी में लगभग।
• इन्होंने विरूपा से दीक्षा ली।
• डोम्भिपा के द्वारा रचित 21 ग्रंथ है।
• इनमें प्रमुख ग्रंथ है :-
1. डोम्बिपागीतिका
2. योगचर्या
3. अक्षरद्विकोपदेश
• डोम्भिपा की पंक्तियां :-
” गंगा जउना माझेरे बहर नाइ।
तांहि बुड़िली मातंगि पोइआली ले करई ।”
• दारिकपा की शिष्य सहयोगिनी चिन्ता थी, जिनके शिष्य डोम्बीपा या डोम्बी हेरूक बताए गए हैं ।
• डोम्भिपा चरवाहे थे।
• डोम्भिपा ने कौल पद्धति का विशेष प्रचार किया था।कण्हपा
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कण्हपा का समय :- संवत् 900 के उपरांत (आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार)
• कण्हपा का समय :- 820 ईस्वी में , कर्नाटक के ब्राह्मण वंश में (डॉ. नगेंद्र के अनुसार)
• कहण्पा का समय :- 1199 ई.( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार )
• कण्हपा का जन्म :- उड़ीसा में ( तारा नाथ के अनुसार)
• कण्हपा का जन्म ब्रह्मा के वीर्य का हाथी के कान में स्थित हो जाने के कारण बताया गया है ओर इनका नाम कारिणपा बताया है ।(योगि सम्प्रदायाविष्कृतिः के अनुसार)
• विहार के सोनपुरी स्थान पर रहते थे।
• हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन्हें जुलाहा बताया गया है किंतु वास्तव में इनके शिष्य तन्तिपा जुलाहे थे।
• कण्हपा चोटी के विद्वान और पंडित थे ।
• पांडित्य और कवित्व मे बेजोड़ थे। (राहुल सांस्कृत्यायन के अनुसार)
• कण्हपा के अन्य नाम :- कृष्णाचार्य,कृष्ण वज्र
• कण्हपा के गुरु :- जालंधरपा
• कण्हपा के 8 शिष्य महासिद्ध हुए।
• कण्हपा के द्वारा लिखे गए ग्रंथों की संख्या :- 74
• तंजूर में कण्हपा के 74 ग्रंथ मिलते है जिनमें 6अपभ्रंश में थे।
• कण्हपा के अधिकांश ग्रंथ दार्शनिक विषयों पर है।
• कण्हपा को राहुल सांस्कृत्यायन विद्या और कवित्व में सबसे बड़ा मानते है।
• रहस्यात्मक भावनाओं से परिपूर्ण गीतों की रचना करके हिंदी के कवियों में प्रसिद्ध हुये ।
• कण्हपा ने शास्त्रीय रूढ़ियों का खंडन किया ।
• कण्हपा ने असम, उड़ीसा ,तिब्बत ,लंका आदि की यात्राएं की। तिब्बत मे उनका बहुत मान था।
• इनके पद में जालंधरिपा का नाम भी गुरु के रूप में मिलता है।
• कण्हपा की कविता की पंक्तियां:-
“आगम वेअ पुराणे,पण्डित मान बंहति”
• सिद्ध कण्हपा डोमिनो का आह्वान गीत :-
” नगर बाहिरे डोंबी तोहरि कुडिया छन्द। छोइ जाइ सो बाह्म नाडिया।”
• चर्याचर्य – विनिश्चय में भी कण्हपा के पद सबसे अधिक संख्या में मिलते हैं जिसमें ज्ञात होता है कि वह बहुत महान आचार्य हुए है।
• शैव संप्रदायों के बहुत निकट थे क्योंकि तारा नाथ ने इन्हें अन्दर से बौद्ध बताया है किंतु बाहरी जीवन में शैवों के बहुत निकट थे ।
• नाना पुराण निगमागम के आच्छादन के विरुद्ध थे।
• इनके जंजाल से मुक्त होकर ही व्यक्ति जीवन के भीतर प्रवेश कर सकता है ।
• सिद्धों को विवाह प्रथा में अनास्था किंतु गार्हस्थ्य जीवन में आस्था थी। यह एक विचित्र विरोधाभास था कण्हपा लिखते है :-
“जिमि लोण विलिज्जइ पाणिएहि तिम धरिणी लई चित्त। समरस जाई लक्खणे जइ पुणु ते सम णिन्त।।
जिस तरह पानी में नमक विलीन हो जाता है उसी प्रकार गृहिणी में चित्त लगाकर सामस्य को प्राप्त किया जाता है।”
कुक्कुरिपा
• कुक्कुरिपा कपिलवस्तु के ब्राह्मण थे (राहुल सांकृत्यायन के अनुसार)• कुक्कुरिपा के गुरू :- चर्पटीया नाथ
• कुक्कुरिपा द्वारा रचित 16 ग्रंथ माने जाते हैं ।
• कुक्कुरिपा सहज जीवन के समर्थक थे ।
• कुक्कुरिपा की कविता की पंक्तियां –
“हांड निवासी खगम भतारे, मोहोर विगोआ कहण न जाई।“अधिक जानकारी के लिए हमारी वेबसाइट देखें क्लिक करें
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