UGC NET EXAM में आयी हुई हिन्दी के कवियों की पंक्तियां – 1

1. डूबत भारत नाथ बेगि जागो अब जागो।
– भारतेंदु( प्रबोधिनी कविता से)

2. कहाँ करुणानिधि केशव सोये – भारतेंदु

3. हम भारत भारतवासिन पै अब दीनदयाल दया करिए।
– प्रताप नारायण मिश्र

4. अपने या प्यारे भारत के पुनीत दुख दारिदे हरिए।
– राधाकृष्ण दास (विनीत कविता से)

5. आजु लौ न मिले तो कहां हम तो तुमहे सब भाँति
कहावै।। – भारतेंदु की( प्रेम दशा संबंधी)

6. अब यो डर आवत है सजनी,मिलि जाऊँ गरे लगि कै
छतियाँ। – जगमोहन सिंह(प्रेमसंपत्ति लता से)

7. श्री राधामाधव युगलचरण रस का अपने को मस्त
बना।। – भारतेंदु

8. अंग्रेज राज सुख – साज सजे सब भारी।- भारतेंदु

9. सांझ सवेरे पंछी सब क्या कहते हैं कुछ तेरा है
हम सब इक दिन उड़ जाएंगे यह दिन चार बसेरा है।
– भारतेंदु

10. साधो मनुवा अजब दीवाना,माया मोह जनम के
ठगिया, तिनके रूप भुलाना। – प्रताप नारायण मिश्र

11. जो विषया संतन तजी, मूढ़ ताहि लपटात ।
ज्यों नर डारत वमन कर, स्वान स्वाद सों खात ॥
– रहीम
भावार्थ :- संतजन जिन विषय-वासनाओं का त्याग कर देते हैं, उन्हीं को पाने के लिए मूढ़ जन लालायित रहते हैं। जैसे वमन किया हुआ अन्न कुत्ता बड़े स्वाद से खाता है।

12. वंदनीय वह देश है जहां देशी निज अभिमानी
हो। – श्रीधर पाठक

13. केवल मनोरंजन ने कवि का मर्म होना चाहिए।
– मैथिलीशरण गुप्त(भारत भारती से)

14. जगत है सच्चा तनिक न कच्चा समझो बच्चा इसका
भेद।। – श्रीधर पाठक

15. कमर बाँधे हुए चलने को माँ सब यार बैठे हैं, बहुत
आगे गए बाकी जो है तैयार बैठे हैं।।
– इशा अल्ला खां

16. “परदेसी वस्तु और परदेसी भाषा का भरोसा मत
रखो अपने में अपनी भाषा की उन्नति करो।”
– भारतेंदु(‘भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है’
निबंध से)

17. रसा महवे फसाहत दोस्त क्या दुश्मन भी है
सारे जमाने में तेरे तर्जे सूखन की यादगरी है।
– भारतेंदु(मिर्जा गालिब की तरह)

18. निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।
बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटन न हिय के सूल।।
– भारतेंदु
भावार्थ :- मातृभाषा की उन्नति बिना किसी भी
समाज की तरक्की संभव नहीं है तथा अपनी भाषा
के ज्ञान के बिना मन की पीड़ा को दूर करना भी
मुश्किल है।

19. सहने के लिए बनी है, तू सह तू दूखिया नारी।
– मैथिलीशरण गुप्त(विष्णुप्रिया से)

20. सखे, बता दो कैसे गाऊँ अमृत मौत का नाम ना हो।
जगे,एशिया हिले विश्व और राजनीति का नाम न हो।।
– माखनलाल चतुर्वेदी

21. मुझे तोड़ लेना वनमाली, उस पथ पर देना तुम फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ जावें वीर अनेक।
– माखनलाल चतुर्वेदी(पुष्प की अभिलाषा)

22. जाकी रही भावना,जैसी प्रभु मूरत देखी तिन तैसी।
– तुलसीदास(रामचरितमानस से)

भावार्थ – जिनकी निंदा-आलोचना करने की आदत हो
गई है, दोष ढूंढने की आदत पड़ गई है, वे हज़ारों गुण
होने पर भी दोष ढूंढ लेते हैं।

23. तुम विद्युत बन आओ, पाहुन, मेरे नयनों पर पग धर
– धर । – महादेवी वर्मा (नीरजा काव्य संग्रह से)

24. कविता विवेक एक नई भोरे
सत्य कहउँ लिखि कागद कोरे।।
– तुलसीदास (रामचरितमानस से)

25. हरि जननी मैं बालिक तेरा, काहे न औगुण बकसहु
मेरा। – कबीर दास

26. कहो भइया अंबर कासौ लागा। – कबीर दास

27. न जाने तेरा साहब कैसा है। – कबीर दास

28. देह जैसा तीर्थ न मैंने सुना न देखा। :- सरहपा का
कथन

29. डेल सो बनाया आय मेलत सभा के बीच,लोगत
कवित्त कीबो खेल करि जानो है। – ठाकुर

30. चंदन विष व्यापत नहीं,लिपटे रहत भुजंग। – रहीम

31. आगम वे अ पुराणे पंडित मान बहित। सरहपा

32. काम मंगल में मंडित श्रैय, सर्ग इच्छा का है परिणाम,
तिरस्कृत कर उसको तुम मूल, बनाते हो असफल
भव धाम। – जयशंकरप्रसाद( कामायनी,श्रद्धा सर्ग)

33. सूरसमाना चंद में दहू किया घर आए एक।
मन का चिंता तब भया कछु पूरबिल लेख।।
– कबीर दास

34. आह वेदना मिली विदाई मैंने भ्रमवंश जमीन संचित
मधुकारिया की भीख लुटाई।
– जयशंकर प्रसाद (स्कंदगुप्त नाटक से)

35. यौवन तेरी चंचल छाया इसमें बैठ घूंट भर पीलू जो
रस तू है लाया।
– जयशंकर प्रसाद (ध्रुवस्वामिनी नाटक से)

36. कैसे कड़ी रूप की ज्वाला पड़ता है पतंग – सा
इसमें मन हो कर मतवाला।
– जयशंकर प्रसाद (चंद्रगुप्त नाटक से)

37. स्वर्ग है नहीं दूसरा और सज्जन हृदय परम
करुणामय यही एक है ठौर।
– जयशंकर प्रसाद (अजातशत्रु नाटक से)

38. पराधीन रहकर अपना सुख शौक नहीं कह सकता
है। वह अपमान जगत में केवल पशु की सह सकता
है। – रामनरेश त्रिपाठी

39. धरती हिल कर नींद भगा दे । वज्रनाद से व्योम जगा
दे। – मैथिलीशरण गुप्त

40. दिवस का अवसान समीप था,गगन था कुछ लोहित
हो चला। – हरिऔध

41. भेजे मनभावन में ऊधव के आवन की सुधि
व्रजगानि मैं जबैलगी। – जगन्नाथ रत्नाकर

42. तुम नी के दुहि जनात गैया।
चलिए कुंवर रसिक मनमोहन लागौ तिहारे पैया।।
– कुंभन दास

43. जो नर दुख में दुख नहि मानै। सुख सनेह अरु भय
नहिं जाके, कंचन माटी जानै।। – गुरु नानक

44. संदेस सवित्थर हंड कहणउ असमत्थः। भण पिय
इक्कति बलियड् बेविसयाणा हत्था। – अब्दुर्ररहमान

45. क्या कहा मैं अपना खंडन करता हूं ? ठीक है तो, मैं
अपना खंडन करता हूं? – निराला

46. कर्म का भोग,भोग का कार्य यही जड़ का चेतन
आनंद – जयशंकर प्रसाद

47. आज मैं अकेला हूं, अकेले रहा नहीं जाता जीवन
मिला है यह,रतन मिला है यह। – रघुवीर सहाय

48. मौन भी अभिव्यंजना है,जितना तुम्हारा सच है
उतना ही कहो। – अज्ञेय

49. होगी जय, होगी जय, हे पुरुषोत्तम नवीन, कह
महाशक्ति राम के वदन में हुई लीन। – निराला
(राम की शक्ति पूजा से)

50. अर्थ सौरम्य ही कविता का प्राण है। – महावीर
प्रसाद द्विवेदी

51. कविता करना अनन्त पुण्य का फल है। इस दुराशा
और अनंत का उत्कष्ठा से कवि जीवन व्यतीत करने
की इच्छा हुई। – जयशंकर प्रसाद (चंद्रगुप्त नाटक)

52 . परम अभिव्यक्ति लगातार घूमती है जग में पता
नहीं, जाने कहां जाने कहां है वह। – मुक्तिबोध

53. अधर मधुरता कठिनता कुच तीक्षनता त्यौर।
रस कवित्त परिपक्वता जाने रसिक न और।।
– भिखारी दास

54. ओ ! करुणा की शांत कछार – जयशंकर प्रसाद

55. सखि ! वे मुझसे कहकर जाते – मैथिलीशरण गुप्त
(यशोधरा से)

56. प्रभुजी मोरे अवगुन चित्त न धरो – सूरदास

57. अव्वल अल्लह नूर उपाया कुदरत के सब नन्दे
– कबीर

58. संत हृदय नवनीत समाना – तुलसीदास

59. मेरी भवबाधा हरो -बिहारी (बिहारी सतसई का
प्रथम दोहा)

60. ये उपमान मैले हो गये है – अज्ञेय

61. हम राज्य लिये मरते हैं – मैथिलीशरण गुप्त

62. भक्ति हिं ज्ञानहि नहि कछु भेदा – तुलसीदास

63. मर्द साठे पर पाठे होते हैं – प्रेमचंद( गोदान उपन्यास
से)

64. नैया बीच नदिया डूबति जाए – कबीर

65. कौन परी यह बानि अरी। नित नीर मरी गगरी
ढरकावै। – प्रताप साहि

66. यह प्रेम को पंथ कराल महा ! तरवारि की धार पै
धावनौ है – बोधा

67. चोजिन के चोजी मौजिन के महाराजा हम कविराज
है पैचाकर चतुर के भरण – ठाकुर

68. चांदनी के भारन दिखात उनयो सो चंद गंध ही के
भारत बहत मंद -मंद पौन – द्विजदेव

69. अब तक क्या किया,
जीवन क्या जिया,
ज़्यादा लिया और दिया बहुत-बहुत कम
मर गया देश, अरे, जीवित रहे गए तुम…
(अँधेरे में,
गजानन माधव मुक्तिबोध)

70. छोड़ द्रमो की मृदु छाया तोड़ प्रकृति से भी माया
बोले ! तेरे बाल – जाल में कैसे उलझा दू लोचन।
– पंत

71. गिरा अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न
भिन्न।- तुलसीदास

72. कहो करौ बैकुंठहि जाय ? जह नंहि नंद , जहां न
जसोदा, नहि जह गोपी, ग्वाल न गाय। –
परमानंददास

73. बालचंद विज्जावद मासा, दुहु नहि लग्गइ दुज्जन
हासा। – विद्यापति

74. गगन हुता नहि महि हुती हुले चंद नहि सूर।ऐसे
अधंकार मोहम्मद नूर। – जायसी( अखरावट से)

75. कुछ नाही का नांव धरी भरमा सब संसार।
सांच झूठ समझे नहीं, ना कुछ किया विचार।।
– संत दादू दयाल

76. कमल दल नैननि की उनमानि।
बिसरत नाहिं मदनमोहन की मंद-मंद मुसकानि।
– रहीमदास

77. सुधि मेरे आगम की जग में सुख की सिहरन हो
अंत लिखी। – महादेवी वर्मा

78. जहा कलह तंह सुख नही,कलह सुखन को सूल।
सबै कलह इक राज में,राज कलह को मूल।।
– नागरिक दास

79. वैश्यो! सुनो व्यापार सार मिट चुका है देश का सब
धन विदेश हर रहे हैं पार है क्या क्लेश का
– मैथिलीशरण गुप्त

80. तुम भूल गए पुरुषोत्तम मोह में कुछ सत्ता है नारी की
समरसता है संबंध बनी अधिकार और अधिकारी
की – जयशंकर प्रसाद (कामायनी से)

81. प्रथम रश्मि का आना रंगिणि ! तूने कैसे पहचाना।
– पंत (प्रथम रश्मि से)

82. क्या अमरों का लोक मिलेगा
तेरी करुणा का उपहार
रहने दो हे देव! अरे
यह मेरे मिटने का अधिकार!
– महादेवी वर्मा(मिटने का अधिकार कविता से)

83. मैंने भावना से भावना का वरण किया है – मोहन
राकेश (आषाढ़ का दिन नाटक से)

84. अधिकार सुख कितना मादक और रसहीन है।
– जयशंकर प्रसाद(स्कंद गुप्त नाटक से)

85. समझदारी आने पर यौवन चला जाता है जब तक
माला गूंथी जाती है फूल कुम्हला जाते हैं –
जयशंकर प्रसाद (चंद्रगुप्त नाटक से)

86. नारी का आकर्षण पुरुष को पुरुष बनाता है और
– मोहन राकेश(“लहरों के राजहंस”नाटक से सुंदरी ने अलका से कहा)

87. शब्द जादू है। मगर क्या यह समर्पण कुछ नहीं है। कलगी बाजरे की कविता से (अज्ञेय)

88. पंडिअ सअल सत्त बक्खाणइ – सरहपा

89. हमन है इश्क मस्ताना हमन को होशियार क्या।
रहै आजाद या जग में हमन दुनिया से यारी क्या।।
– कबीरदास

90. सूर समाना चंद में दहू किया घर एक – कबीर

91. हम दीवानों की क्या हस्ती, आज यहाँ कल वहाँ चले ।
मस्ती का आलम साथ चला, हम धूल उड़ाते जहाँ चले। – भगवती चरण वर्मा

92. जनम अवधि हम रूप निहारल नयन न तिरपति
भैल – विद्यापति

93. रूप की आराधना का मार्ग आलिंगन नहीं तो और
क्या है? – रामधारी सिंह दिनकर(उर्वशी से)

94. बह्मणेहि म जांणत हि भेऊ। – सरहपा

95. तुम मुझे प्रेम करो जैसे मछलियां लहरों से करती है –
शमशेर बहादुर सिंह

96. मेरी बाँसुरी है एक नाव की पतवार—
जिसके स्वर गीले हो गए हैं,
छप्-छप्-छप् मेरा हृदय कर रहा है…
छप् छप् छप्। – शमशेर बहादुर सिंह

97. अनंत विस्तार का अटूट मौन मुझे भतभीत करता
है – कुंवर नारायण

98. विषम शिला संकुला पर्वतों भूता गंगा शशितार
कहारा अभिद्रुता अतिशयदूता – त्रिलोचन

99. अर्ध विवृत जघनो पर तरूण सत्य के सिर धर लेटी
थी वह दामिनी -सी रुचि गौर कलेवर – पंत

100. कर्मठ कठमलिया कहे ज्ञानी ज्ञान विहीन
– तुलसीदास

UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क – 1

UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क – 2

UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क – 3

UGC NET EXAM में आयी हुई हिन्दी के कवियों की पंक्तियां – 1

UGC NET EXAM में आयी हुई हिन्दी के कवियों की पंक्तियां – 2

UGC NET EXAM में आयी हुई हिन्दी के कवियों की पंक्तियां – 3

अधिक जानकारी के लिए क्लिक करे।

? Pdf नोट्स लेने के लिए टेलीग्राम ज्वांइन कीजिए।

? प्रतिदिन Quiz के लिए Facebook ज्वांइन कीजिए।

4 comments

  1. प्रश्न नम्बर ६९ का आंसर गजानान माधव मुक्तिबोध होना चाहिए रघुवीर सहाय नही

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

error: Content is protected !!