हेमचंद्र(hemachandr) का जीवन परिचय

हेमचंद्र के का जन्म काल :- 1088- 1097( डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार )

• गुजरात के एक प्रख्यात आचार्य।

चालुक्य वंश के प्रसिद्ध गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह के दरबार में बड़ा सम्मान था।

हेमचंद्र का जन्म:- गुजरात के अहमदाबाद से 7 मील दक्षिण पश्चिम में स्थित धुन्धुक्कपुर नगर में कार्तिक पूर्णिमा को रात्रि में विक्रम संवत 1145 में (प्रभावक चरित के अनुसार)

* प्रभावकचरित (वि.स.1334)के लेखक :- प्रभाचन्द्र सुरि

हेमचंद्र के माता-पिता मोठ वंश के वैश्य थे।(प्रबन्ध कोश के अनुसार)

* प्रबन्ध कोश (वि.स. 1405) लेखक :- राजशेखर सुरि)

पिता का नाम :- चाचिग

• माता का नाम :- पाहिणी देवी(प्रबंध चिंतामणि के अनुसार)

* प्रबंध चिंतामणि ( वि.स. 1361) :- मेरुतुगं
इसका संपादक – जिन विजय मुनि
अनुवादक – हजारी प्रसाद द्विवेदी
इसमें कुल 5 प्रकाश है
चतुर्थ प्रकाश में हेमचंद्र का वर्णन है।

• हेमचंद्र के कुलदेवी :- चामुंड

• हेमचंद्र के कुलयक्ष:- गोनस

• हेमचंद्र के मूल नाम :- चाड़्गदेव/ चांगदेव

• हेमचंद्र ने देवचंद्र सूरी से दीक्षा ग्रहण की।

हेमचंद्र के गुरू :- देवचंद्र सूरी

हेमचंद्र के शिष्य :- कुमार पाल

• कुमारपाल अपने आरंभिक जीवन में शैव धर्म का अनुयायी था। अंत में कुमार पाल ने जैन धर्म की दीक्षा ली थी।

हेमचंद्र की रचनाएं :-
1. शब्दानुशासन (संस्कृत – प्राकृत दोनों भाषाओं में के लिए उपयोगी प्रमाणित व्याकरण ग्रंथ माना जाता है।
2. देशी नाममाला
3. कुमार पाल चरित

हेमचंद्र प्राकृत के पाणिनि थे।(डॉ.बच्चन सिंह अनुसार

शब्दानुशासन का परिचय 

सिद्धराज के आग्रह पर हेमचंद्र ने प्राकृत – अपभ्रंश का व्याकरण ग्रंथ “सिद्ध हेम शब्दानुशासन” लिखा।

सिद्ध हेम शब्दानुशासन के बारे डॉक्टर बच्चन सिंह का कथन “एक चोटी का वैयाकरण और इस कोटि का सहृदय इसे मधुकोश में जैनियों के नैतिक उपदेश भी है और रीतिकालीन नायिकाओं के पूर्ण रूप भी,वीर दर्पोक्तियाँ भी है और सौंदर्य और प्रेम की ‰सहज काव्योक्तियाँ भी। इनमें से कुछ दोहे तो इतने अछूते और टटके है कि मानो विभिन्न ग्रामांचलो की मधुमंध भीगी मिट्टी से उठा लिये गये है। संभवतः यह दोहे तत्कालीन आभीरो और गुर्जरों के उन्मुक्त जीवन से रचे बसे रहे हो। पर उस में भ्रम नहीं होना चाहिए कि यह दोहे लोककाव्य हैं। इन्हें कवियों ने अपनी अनुभूति और कल्पना द्वारा समुचित शब्दों में विन्यस्त किया है ।”

सिद्ध हेम शब्दानुशासन की पंक्ति –
” सिरि जरखंडी लोअडी गलि मणियडा न बसी।
तो वि गोट्ठडा कराविआ मुध्दहे उट्ठ बईस।।”
अर्थात् नायिका के सिर पर फटा पुराना वस्त्र है गले में दस- बीस गुरियों की माला भी नहीं है। फिर भी मुग्धा नायिका का अप्रतिम सौंदर्य गोष्ठ के रसिकों को उठक – बैठक कराता रहता है इसी को कहते हैं “अनलंकृति पुनः क्वापि”( इसका अर्थ ऐसी रचना जिसमें स्फूट रूप से अलंकार ने वर्तमान हो फिर भी वह अदोष एवं सगुण होने से काव्यत्व की सीमा में आ जाती है )
* मम्मट का काव्य लक्षण की परिभाषा- ” तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि”

[ ] शब्दानुशासन में कुल 9 अध्याय है –
1. प्रथम अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम तीन पादों में सन्धियों की चर्चा।
√ चतुर्थ पाद में शब्दों रूपों का विवेचन।

2. दूसरा अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम पाद में :-व्यंजनान्त शब्दों का अनुशासन लिखा गया है और इसमें सहायक तद्धित, कृदन्त सूत्र भी।
√ द्वितीय पाद में :- कारक प्रकरण
√ तृतीय पाद में :- सत्व,षत्व और णत्व विधियों का प्रतिपादन
√ चतुर्थ पाद में:- स्त्री प्रत्यय प्रकरण

3. तीसरा अध्याय में :- चार पाद
√ प्रथम पाद :- धातु के पूर्व उत्तर के उपसर्ग के निरूपण
√ द्वितीय पाद में :- समाज की परिचर्चा
√ तृतीय पाद में :- क्रिया प्रकरण से संबंधित
√ चतुर्थ पाद में :- प्रत्यक्ष विशिष्ट धातुओं का विवरण।

4. चौथा अध्याय में :- तुलनात्मक समीक्षा

5. पाचवां अध्याय में :- तृतीय पाद
√ प्रथम पाद में :- कृदंत प्रत्यय का वर्णन
√ द्वितीय एवं तृतीय पादों में :- प्रत्यय का विवेचना

6. छठवां अध्याय में :- चार पाद व्याकरण की परंपरा
√ प्रथम पाद
7. सातवा़ं अध्याय में :- चार पादों में विश्लेषण

8. आठवां अध्याय में :- चार पादों (तुलना )
9. नवां अध्याय में :- चार पाद – भाषा विज्ञान के सिद्धान्त

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