🌺UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क – 2🌺
◆ प्रेमचन्द यथार्थवाद से आदर्शवाद को श्रेष्ठ समझते थे क्योंकि आदर्शवाद उनकी दृष्टि में सम्पूर्ण जीवन-दृष्टि नही थी। प्रेमचन्द्र आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी रचनाकार हैं।
◆ बिम्ब (प्रतीक) में अर्थ की सम्भावना निहित होती है परन्तु अर्थ हमेशा निश्चित नहीं होता है।
◆ कहानी छोटे मुँह बड़ी बात करती है। क्योंकि कहानी लघुजीवन खण्ड के माध्यम से एक सम्पूर्ण जीवनबोध या सत्य को प्रकाशित करती है।
◆ ‘साहित्य जनसमूह के हृदय का विकास है।(बालकृष्ण भट्ट के अनुसार)
● साहित्य का लक्ष्य सिर्फ चरित्र निर्माण ही नहीं है। बल्कि मनुष्य के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
◆ संस्कृति के विकास के लिए मानसिक स्वतंत्रता अनिवार्य है। क्योंकि संस्कृति एक मानसिक व्यापार है।
◆ “काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है।(जयशंकर प्रसाद के अनुसार )
● जिसका सम्बन्ध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है। विज्ञान का सम्बन्ध तर्क से होता है जबकि साहित्य का सम्बन्ध संवेदना से होता है।
◆ लिंग के आधार पर स्त्री पैदा होती है। लेकिन कर्म, व्यवहार, संवेदना इत्यादि के आधार पर स्त्री बनायी जाती है। समाज जन्म से उसे वही संस्कार प्रदान करता है।
◆ “हिन्दी में भक्तिधारा का उदय बाहरी आक्रमण की प्रतिक्रिया है।” – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल
● “यह भारतीय साधना परम्परा का स्वतः स्फूर्त विकास है।” – डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी
◆ रस प्रक्रिया में विभाव का सुदृढ़ भूमिका होती है विभाव, अनुभाव, संचारीभाव सभी रस के कारण या उद्देश्य में सम्मिलित होते हैं।
◆ ‘छायावाद’ और ‘रहस्यवाद’ में अंशतः तात्त्विक भेद है। छायावाद’ में अभिव्यक्ति की सूक्ष्मता और ‘रहस्यवाद’ अज्ञात के प्रति जिज्ञासा है।
◆ ‘नयी कविता’ के मनुष्य में आकांक्षा, पीड़ा, हताशा, निराशा तथा दुविधा से ग्रसित स्थिति का चित्रण मिलता है। ‘नयी कविता’ में व्यक्ति चेतना न होकर ‘मैं’ या ‘लघुमानव’ की भावना प्रबल है।
◆ शासन की पहुँच प्रवृत्ति और निवृत्ति की बाहरी व्यवस्था तक ही होती है। भीतरी या सच्ची प्रवृत्ति-निवृत्ति को जागृत रखने वाली शक्ति शासन में नहीं होती।
◆ कवि-वाणी के प्रसार से व्यकि हम संसार के सुख-दुःख, आनन्द-क्लेश आदि का शुद्ध स्वार्थमुक्त रूप में अनुभव करते हैं। इस प्रकार के अनुभव के अभ्यास से हृदय का बन्धन खुलता है।
◆ प्रेम का समाजीकरण होता है तो उसे भक्ति कहते हैं। प्रेम सामाजिक भाव है।
◆ श्रद्धा और प्रेम के योग का नाम भक्ति है। भक्ति में लेन-देन का भाव नहीं रहता। अतः समर्पण भक्ति का मूल है।
◆ प्रिय के वियोग से जो दुःख होता है, उसमें कभी-कभी दया या करुणा का भी कुछ अंश मिला रहता है।
● प्रिय के वियोग से जो करुणा उत्पन्न होती है, वह प्रिय के सुख से नहीं बल्कि दुःख का निश्चय करके होती है।
◆ भारतेन्दु युग आधुनिकता का प्रवेशद्वार है। क्योंकि भारतेन्दु युगीन कविता में मध्यकालीन संबंधित साहित्य भी रचा जा रहा था ।
◆ रस ब्रह्मास्वाद या ब्रह्मानंद सहोदर माना जाता है। रस में लौकिक विषयों का आविर्भाव होता है, न की तिरोभाव होता है।
◆ लोकहृदय में हृदय के लीन होने का नाम रसदशा है। इसलिए साधारणीकरण के लिए कवि का लोकधर्मी होना आवश्यक है। साधारणीकरण की अवधारणा आचार्य भट्ट नायक ने दिया था।
◆ स्थायी साहित्य जीवन की चिरन्तन(दीर्घकालिक) समस्याओं का समाधान है।
● स्थायी साहित्य का संबंध लोक जीवन की तात्कालिक समस्याओं से सम्बद्ध होता है।
◆ प्रेम न बाड़ी उपजै प्रेम न हाट बिकाय।(कबीर)
● प्रेम एक संवेदना है। यह मानवीय मनोवृत्तियों का परिणाम है। प्रेम मनुष्य (स्त्री/पुरुष) के आन्तरिक मन से उत्पन्न होता है तथा इसकी उत्पत्ति स्वतः होती है। प्रेम को बेचा या खरीदा नहीं जा सकता क्योंकि प्रेम मानव की तथा मानव जीवन में एक अमूल्य निधि है।
◆ नारीवाद का एक उद्देश्य पुरुष-सत्ता का निषेध है।
● नारीवाद के उद्देश्य महिलाओं के समाज में समानता, अधिकार और सम्मान को प्रमोट करना होता है। इसका लक्ष्य है महिलाओं की स्थिति में सुधार करके उन्हें आर्थिक, सामाजिक, और राजनीतिक दृष्टिकोण से सशक्त बनाना।
◆ सौन्दर्य बाहर की कोई वस्तु नहीं, मन के भीतर की वस्तु है।
◆ कला सामाजिक अनुपयोगिता की अनुभूति के विरुद्ध अपने को प्रमाणित करने का प्रयत्न है। क्योंकि कलाकार सामाजिक अभावों के खिलाफ संघर्ष करता है।
◆ विषमता और दुख-सुख का द्वंद्व विकास का मूलाधार है।
◆ साहित्य सामूहिक अवचेतन का निषेध नहीं बल्कि यह अवचेतन की संस्कृति है। साहित्य में सिर्फ व्यक्ति मन की ही अभिव्यक्ति नहीं होती है।इसमें सभी मानव,जीव जगत,प्रकृति, समाज,इत्यादि आते है।
◆ “हमारे मत में हिन्दी और उर्दू दो बोली न्यारी-न्यारी है” यह कथन राजा शिवप्रसाद ‘सितारे हिन्द’ का है।
यह कथन जो कि समकालीन परिदृश्य में ईस्ट इंडिया कम्पनी की भाषा नीति का समर्थन करता प्रतीत होता है।
◆ मैथिली संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा है। इसके शामिल होने से हिन्दी भाषियों की संख्या में वृद्धि हुई है।
● भारतीय संविधान की आठवीं अनुसूची में कुल 22 भाषायें सम्मिलित हैं, जिसमें से एक मैथिली भी हैं। मैथिली हिन्दी भी ‘बिहारी हिन्दी’ की एक बोली है, जो हिन्दी क्षेत्र की भाषा के अन्तर्गत ही है। इसलिए इसके संविधान में सम्मिलित होने से भी हिन्दी की संख्या में वृद्धि नहीं होती है।
◆ भाषा वैज्ञानिकों की दृष्टि में हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषा नही हैं। इनका व्याकरण एक ही है।
◆ काव्य का विषय सदा ‘विशेष’ होता है ‘सामान्य’ नहीं। वह ‘व्यक्ति’ सामने लाता है ‘जाति’ नहीं।
● काव्य-व्यक्ति, मानवता, समाज, सभ्यता एवं संस्कृति इत्यादि को सामने लाता है। न कि जाति, वर्ण, लिंग, इत्यादि को।
◆ साहसपूर्ण आनंद की उमंग का नाम उत्साह है।
साहस के बिना वीरकर्म का सम्पादन नहीं होता है। अतः आनंद भी प्राप्त नहीं होता है।
◆ आचार्य शुक्ल के अनुसार ‘लोकमंगल’ के विधायक भाव हैं- करुणा और क्रोध।
◆ लय शब्द मात्र में ही नहीं, अर्थ, भाव, विचार सब में होती है। शब्द-अर्थ अन्योन्याश्रित होते हैं। शब्द श्रव्य होते हैं और अर्थ बुद्धिग्राह्य। दोनों के अनुपात से ही श्रेष्ठ साहित्य का सृजन होता है।
◆ भाषा अर्थ को उन्मीलित करती है, न कि अर्थ की सृष्टि करती है। यह देरिदा का मत है। वह ‘पाठ’ पर जोर देता है, लेखन पर नहीं।
◆ काव्य के अपरिहार्य तत्व हैं- शब्द, अर्थ, कल्पना, भाव और विचार। इनमें कई तत्त्व जोड़े या छोड़े जा सकते हैं, अतः इनमें अपरिहार्य कोई नहीं है।
◆ हिन्दी कवि आचायों की मौलिक देन है- ‘रसरीति’ की स्थापना। हिन्दी रीतिकाव्य में रस को ज्यादा महत्व दिया गया है न कि रीति को।
◆ मानववाद नास्तिक दर्शन है और मानवतावाद आस्तिक दर्शन। मानवतावाद निर्गुण तथा सगुण का प्रतिपादन करता है।
◆ भाव का ज्ञान से विरोध नहीं है। दोनों के प्रस्थान बिन्दु अवश्य भिन्न हैं, पर दोनों का लक्ष्य बिन्दु एक ही है।
● भाव का सम्बन्ध हृदय से है और ज्ञान का सम्बन्ध बुद्धि से है और दोनों एक दूसरे से अर्न्तसंबंधित हैं।
◆ कविता ही हृदय को प्रकृत दशा में लाती है और जगत के बीच क्रमशः उसका अधिकाधिक प्रसार करती हुई उसे मनुष्यत्व की उच्च भूमि पर ले जाती है
● कविता का सम्बन्ध हृदय से होता है और कविता मात्र शब्दजाल नहीं है।
◆ प्रेम में प्रिय अच्छा लगता है, साथ ही प्रेमी में यह वृत्ति हो जाती है कि मैं भी प्रिय को अच्छा लगूँ। प्रिय और प्रेमी दोनों में परस्पर अनुभूतिजन्य तादात्म्य आधार के रूप में काम करता है।
◆ काव्यानुभूति सदैव लोकोत्तर होती है। कवि की अनुभूति लौकिक और अलौकिक दोनों होती है। ब्रह्मानन्द सहोदर का संबंध काव्य रस से है कवि से नही।
◆ ‘उत्तर संरचनावाद’ मुख्यतः पाठ केन्द्रित है और वह पाठ ‘अर्थापन’ साध्य होता है। पाठ को इतना महत्व देना और “लेखक की मृत्यु” की घोषणा कर देना सस्यूर का अतिवादी चिन्तन है, अतः यह पुनर्विचारणीय है।
◆ प्लेटों के अनुसार भावातिरेक अत्यन्त अनिष्टकर होता है और अरस्तू के अनुसार भावों का दमन बड़ा घातक होता है, अतः आदर्शवाद और त्रासदी दोनों सिद्धान्त संदिग्ध है।
● प्लेटो साहित्यकार के निष्कासन पर बल देते थे और अरस्तू मात्र विरेचन तक उसकी उपयोगिता मानते थे, अतः दोनों सिद्धांत अधूरे लगते हैं
◆ अधिकतर संस्कृत आचार्य औचित्य के पोषक रहे हैं, अतः औचित्य सम्प्रदाय के स्वतंत्र अस्तित्व का औचित्य कदापि सिद्ध नहीं होता है।
● औचित्य का आग्रह आचार्य भरत से लेकर आनंदवर्धन, महिमभट्ट आदि सभी ने बहुशः किया है।
◆ हिन्दी काव्यशास्त्र का सर्वोच्च प्रदेय है- ‘सर्वांग निरूपण’
● सर्वांग निरूपक आचार्यों ने रस, अलंकार, पिंगल आदि का निरूपण करते हुए इसके अन्तर्गत काव्य हेतु, प्रयोजन, गुण-दोष आदि की भी चर्चा की है, जो अत्यन्त उपयोगी है।
◆ मार्क्सवादी सौन्दर्यशास्त्र में सर्वोपरि है- श्रम का सौन्दर्य।
● मार्क्सवादियों के अनुसार हाथ मात्र कर्म इन्द्रिय न होकर आद्य सर्जना शक्ति है। वहीं हर कला की सृष्टि करता है। अतः श्रम और सौन्दर्य ‘परस्पर पूरक हैं।
◆ रचना जीवन का अर्थ विस्तार करती है, तो भावक तथा आलोचक रचना का अर्थ विस्तार करता है। क्योंकि रचना में जीवन का संचित अनुभव निहित होता है।
◆ मिथक मनुष्य जाति के सांस्कृतिक इतिहास का आख्यान है। क्योंकि मिथक के बिना इतिहास का लेखन संभव है।
◆ साहित्य का कार्य समाज का हित करना है “साहितो भावः या साहित्या” जिसमें हित की भावना निहित हो उसे साहित्य कहते हैं अगर साहित्य ऐसा है जो हमारे अन्दर सुन्दर विचार भाव या रुचि न जगा सके तो वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है। सुरुचि सम्पन्नता को प्रतिष्ठिा करने का माध्यम साहित्य मात्र ही नहीं है। इसके अन्य भी माध्यम हैं।
◆ भक्ति में लेन-देन का भाव नहीं होता है क्योंकि लेन-देन का भाव स्वार्थ की जमीन पर प्रतिष्ठित होता।
◆ सर्वभूत को आत्मभूत करके अनुभव करना ही काव्य का चरम लक्ष्य है। क्योंकि साहित्यकार
के लिए व्यक्ति सत्ता से ज्यादा महत्व लोकसत्ता का होता है।
◆ जैसे विश्व में विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है, वैसे ही नाटक में रस की। क्योंकि नाटक में रस की स्थिति आद्यंत होती है।
◆ जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द- विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं। क्योंकि कविता मनुष्य की चेतना को असक्त या सशक्त बनाती है।
◆ छायावाद के संबंध में मान्यता है कि किसी कविता के भावों की छाया यदि कहीं अन्यत्र जाकर पड़े तो उसे छायावादी कविता कहना चाहिए। क्योंकि छायावादी कविता अन्योक्ति से अधिक नहीं है।
◆ शास्त्रीय सिद्धांत परिवर्तनशील हैं, उनका युगानुकूल पुनराख्यान होना चाहिए। क्योंकि शास्त्रीय सिद्धांतों का युगानुकूल पुनराख्यान न होने से उनका महत्त्व कम करना है।
◆ मनोविश्लेषणवाद में सबसे अधिक महत्त्व व्यक्ति के मन को दिया जाता है। क्योंकि व्यक्ति का मन सामाजिक प्रतिबंधों में कैद होकर जड़ नही होता है।
◆ सामाजिक जीवन की स्थिति और पुष्टि के लिए करुणा का प्रसार आवश्यक है। क्योंकि करुणा का व्यक्तिगत स्वार्थ से विरोध है। उसके लिए निजी हित छोड़ना पड़ता है।
◆ इतिहास का साहित्य कुछ बड़े-बड़े व्यक्तियों के उत्थान और पतन के लेखे जोखे के नाम नहीं है। क्योंकि इतिहासमूलक साहित्य मनुष्य के धारावाहिक जीवन के सारभूत रस का प्रवाह है।
◆ ईश्वर और मनुष्य के बीच संबंध स्थापित करने का एक माध्यम धर्म है। धर्म साधना व्यक्तिनिष्ठ है।क्योंकि साध्य और साधक का एकीकरण साधना के माध्यम से ही होता है।
◆ नाटक शुद्ध साहित्य है, जिसकी आलोचना काव्यालोचन के स्थापित प्रतिमानों पर नहीं किया जा सकता है।
◆ काव्य विद्या है और कला उपविद्या। इसलिए चौंसठ कलाओं की सूची में काव्य समाविष्ट नहीं है। क्योंकि कला कौशल और शिल्प है, जबकि काव्य ज्ञान और जीवन का एक व्यापक सर्जनात्मक विधान है जिसमें सत् और असत् का विवेक रहता है।
◆ साहित्य में व्यक्तिवादी चेतना समाज के बहुमुखी विकास को अवरुद्ध करती है। क्योंकि व्यक्तिवाद से समाज में अराजकता फैलती है।
◆ साहित्य मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-संबंधों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य की भूमि पर ले जाता है। क्योंकि मनुष्य संबंधों का निर्वाह न ही साहित्य से प्रेरित होकर और न ही आत्म-संतोष के लिए करता है।
◆ मनुष्य की रागात्मक प्रवृत्ति उसे सामाजिक बंधनों से मुक्त होने के लिए प्रेरित करती है। क्योंकि समाज मनुष्य की रागात्मकता को स्वीकार करता।
◆ क्रोध जैसे उग्र एवं प्रचंड भावों के विधान के साथ-साथ करुण-भाव की अभिव्यक्ति से काव्य में पूर्ण सौन्दर्य के साक्षात्कार होते हैं।
◆ भूमंडलीकरण ने ‘जन’ की पुरानी धारणा बदल कर रख दी है। उसने ‘जन’ को ‘मास’ में बदल दिया है।
क्योंकि भूमंडलीकरण के ‘मास’ में वही लोग शामिल हैं जिनके पास क्रयशक्ति है और व जो जनसंचार साधनों के उपयोग में दक्ष हैं।
◆ श्रृंगार को रसराज माना जाता है। इसीलिए वह सभी रसों में प्रधान है।
● जीवन के आदि से लेकर अन्त तक समय – समय पर सभी रसों का प्रवाह होता है।
◆भारतेन्दु युग आधुनिकता का प्रवेश द्वार है। क्योंकि वह मध्यकालीन परम्पराओं का पूर्ण विरोधी नहीं है।
◆ प्रतीक अमूर्त का मूर्तीकरण है जिसमें अदृश्य सारतत्व की अभिव्यक्ति होती है।
क्योंकि जब किसी वस्तु का कोई एक भाग गोचर हो, और फिर आगे उस वस्तु का ज्ञान हो, तब उस भाग को प्रतीक कहते हैं।
◆ गोदान ग्रामीण जीवन का महाकाव्य है। क्योंकि गोदान में किसान ग्रामीण जीवन एवं जमींदारी प्रथा का चित्रण किया गया है।
◆ आदर्श नागरिक को आत्म विकास करते हुए सारी धरती के सुख में ही अपना सुख मानना चाहिए।
क्योंकि प्रत्येक नागरिक के व्यवहार की, उसकी अच्छाई-बुराई की मूल कसौटी समाज-कल्याण की भावना है
◆ प्रसाद के नाटकों में रस और द्वन्द्व का आद्यन्त समन्वय हुआ है।
● उन पर पश्चिमी नाट्य चिन्तन और भारतीय नाट्य चिन्तन का प्रभाव हुआ।
◆ साधारणीकरण की प्रमुख आधारशिला मानव सुलभ समानानुभूति है क्योंकि मानव सुलभ समानानुभूति स्वाभाविक मानवीय प्रवृत्ति है, जिसे भारतीय दर्शन का बल भी प्राप्त है।
◆ मिथक सार्वकालिक और सार्वदेशिक होते एक साथ और ऊक समान नही होते हैं।
● इसीलिए मिथक के माध्यम से किसी भी समय और समाज के अन्तर्विरोध और संवेदना की अभिव्यक्ति सम्भव है।
◆ नाद सौन्दर्य से कविता की आयु बढ़ती।
क्योंकि नाद सौन्दर्य का योग कविता का पूर्ण स्वरूप खड़ा करने के लिए कुछ-न- कुछ आवश्यक होता है।
◆ मरणासन्न महाकाव्य के गर्भ से उपन्यास का जन्म हुआ है। क्योंकि उपन्यास का उदय पश्चिम में मध्यवर्ग के उदय के साथ हुआ।
◆ मनुष्य के लिए कविता इतनी प्रयोजनीय वस्तु है कि संसार की सभ्य-असभ्य सभी जातियों में, किसी न किसी रूप में पायी जाती है। इसलिए कविता की जरूरत मनुष्य जाति को हमेशा रहेगी।
◆ काव्य का जो चरम लक्ष्य सर्वभूत को आत्मभूत कराके अनुभव कराना है, उसके साधन में भी अहंकार का त्याग आवश्यक है। क्योंकि जब तक इस अहंकार से पीछा न छूटेगा तब तक प्रकृति के सब रूप मनुष्य की अनुभूति के भीतर नही आ सकते।
◆ फ्रायड के अनुसार कला और धर्म का उद्भव अचेतन मानस की संचित प्रेरणाओं और इच्छाओं में ही होता है। इस कामशक्ति के उन्न्यन के फलस्वरूप कलाकार सर्जन करता है।
● अवचेतन मानस में कामशक्ति के उन्नयन के फलस्वरूप कलाकार सर्जन नहीं करता है।
◆ अभिव्यंजनावादियों के अनुसार कवि या कलाकार अपने अंतर की भावना को बाहर प्रकाशित करता है, बाह्य वस्तु को नहीं।
● अभिव्यंजनावादी आन्तरिक को ज्यादा महत्व देता है, बाह्य को कम।
◆ मन को अनुरंजित करना, उसे सुख चा आनंद पहुँचाना ही कविता का अंतिम लक्ष्य मानना चाहिए।
◆ काव्यानुभूति का मूल आधार लोकानुभूति ही है।
◆ काव्येषु नाटकं रम्यम्। क्योंकि उसमें काव्य के साथ- साथ सभी ललित कलाओं का समन्वय होता है।
◆ आधुनिक मनुष्य को इतिहास और समय के नियमों-कानूनों का जितना ज्ञान है, उतना पहले किसी युग में प्राप्त नहीं था। क्योंकि मध्यकालीन संस्कृति में धर्म का जो केन्द्रीय स्थान था, उसने धीरे-धीरे पीछे हटते हुए अपनी जगह इतिहास को समर्पित कर दी।
◆ साहित्य-सर्जना का एक आधार सामूहिक अचेतन को माना गया है। क्योंकि कविता मूलतः स्वतः वाचन के लिए ही होती है
◆ भारतेन्दु युगीन गद्य की भाषा खड़ी बोली थी काव्य की भाषा ब्रजभाषा थी क्योंकि भारतेन्दु युग से पहले अर्थात् रीतिकाल में कवियों की प्रिय भाषा ब्रजभाषा थी, ब्रजभाषा में काव्य कर्म होता था इसलिए भारतेन्दु युग में भी कविताओं का सृजन ब्रजभाषा में होता था। खड़ी बोली में कविताओं का, सृजन पूर्णतः द्विवेदी युग से प्रारम्भ हो जाता है।
◆ शब्द को सुनते ही संकेत के बल पर जो अर्थ साक्षात् समझ में आता है, उसे वाच्यार्थ कहते हैं। इस अर्थ को सूचित करने वाली शब्दवृत्ति अभिधावृत्ति कहलाती है।
● भाषा में अर्थ-ग्रहण अभिधावृत्ति से नही होता है बल्कि ध्वनि से होता है।
◆ जिस जाति की सामाजिक अवस्था जैसी होती है, उसका साहित्य भी वैसा ही होता है।
◆ उत्तर आधुनिकता पूँजीवादी विकास की नई स्थिति और विश्व की नयी अर्थव्यवस्था का परिणाम है। क्योंकि नवपूँजीवाद की नाना विकृतियों और नाना रूपों से सामाजिक साक्षात्कार ही उत्तर आधुनिकता है।
◆ कामायनी को रूपक काव्य भी कहा जाता है।
● रूपकात्मक काव्य में पात्र के साथ -साथ अधिकांश घटनाएँ तथा वर्ण्य वस्तुएँ भी प्रतीकात्मक अथवा सांकेतिक होते हैं।
◆ प्रतिभा के विस्फोट के लिए रसावेश की आवश्यकता है किन्तु सारे रसिक कवि नहीं बनते।
● राजशेखर ने रचनात्मक प्रतिभा को कारयित्री प्रतिभा कहा है जो कुछ ही लोगों में होती है।
◆ गुण मुख्य रूप से रस के धर्म है पर इन्हें गौण रूप में शब्दार्थ के धर्म भी माना जाता है।
● गुण का निर्धारण केवल शब्दार्थ से नही होता बल्कि गुण शब्द और अर्थ के नित्य धर्म हैं।
◆ मानव द्वारा दो विरोधी मूल्यों के बीच सामंजस्य स्थापित करना आधुनिकता की पहचान है। इसीलिए आधुनिक नाटककार मोहन राकेश के नाटकों में व्यक्ति-स्वातन्त्र्य और चयन की आजादी को महत्व मिला दिया ही।
◆ आद्य बिंब आदिम मनुष्य की ऐंद्रिक कल्पना है।
इसीलिए आगे चलकर कथात्मक तत्त्वों के सम्मिलन से यही आद्य बिंब मिथक के रूप में विकसित हुआ।
◆ प्रसाद के अनुसार काव्य मन और आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है।
● काव्य आत्मा की मनन-शाक्ति है। की वह असाधारण अवस्था है जो श्रेय सत्य को उसके मूल चारुत्व में या सहसा ग्रहण कर युगों की समष्टि सा अनुभूतियों में अंतर्निहित शाश्वत का चेतनता का काव्यमय सृजन करती है। इसीलिए छायावादी काव्य की मूल चेतना रहस्यवादी है।
◆ प्रेम में शुद्ध वियोग का दुख केवल प्रिय के अलग हो जाने की भावना से उत्पन्न क्षोभ या विषाद है जिसमें प्रिय के दुख या कष्ट की भावना प्रबल होती है।
● जिस व्यक्ति से किसी की घनिष्ठता और प्रीति होती है वह उसके जीवन के बहुत से व्यापारों तथा मनोवृत्तियों का आधार होता है
◆ छायावाद केवल व्यक्ति के प्रेम, सौंदर्य और यौवन की कविता नहीं है। बल्कि छायावादी कविता अपनी बात को सीधे न कहकर प्रतीकों या अन्योक्ति के माध्यम से कहती है। इसलिए इसे आध्यात्म के सन्दर्भ ‘रहस्यवादी’ तथा प्रेम के सन्दर्भ में ‘स्वच्छन्दतावादी’ कहा जाता है।
◆ रसौ वै सः
● इसीलिए रस को ब्रह्मास्वाद सहोदर कहा गया है।
★ ‘रसौ वै सः का तात्पर्य है ‘ब्रह्मानन्द का समानार्थी जिसका उल्लेख सर्वप्रथम तैत्तिरीय उपनिषद में मिलता है।
★ भारतीय काव्यशास्त्रियों में सर्वप्रथम भट्टनायक ने रस को ब्रह्मानन्द (ब्रह्मस्वाद) सहोदर कहा।
★ रस सम्प्रदाय के प्रवर्तक आचार्य- भरत मुनि हैं।