🌺UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क – 3🌺
◆ विरुद्धों का सामंजस्य कर्मक्षेत्र का सौंदर्य है जिसकी ओर आकर्षित हुए बिना मनुष्य का हृदय नहीं रह सकता।
● विरुद्धों का सामंजस्य चमत्कृत करता है और यही लोकधर्म का सौंदर्य है।
◆ काव्य के संदर्भ में ‘काव्यानुभूति’,’रसानुभूति’ और ‘सौंदर्यानुभूति’ का उल्लेख प्रायः समान अर्थ में किया जाता है।
◆ मिथक समाज में व्याप्त एक कल्पना है मिथक विगत का आलेख है जिसका संबंध केवल धर्म और इतिहास से नहीं होता है।
● मिथक का प्रयोजन केवल सामाजिक व्यवस्था के संरक्षण और संचालन से है, रचनात्मक स्वतंत्रता से नहीं।
◆ जहाँ व्यक्ति जीवन का लोका जीवन में लय हो जाता है, वही भाव की पवित्र भूमि है।
● कविता में विश्व हृदय का आभास यथार्थवादी अवस्था नहीं है बल्कि कविता में लोक का सत्य चित्रण ही यथार्थवादी अवस्था है। मात्र आभास नहीं।
◆ काव्य का आनन्द लोबाক और, अनिर्वचनीय होता है।
● रस को ब्रह्मानन्द का समानार्थ कहा गया है।
◆ रस को ज्ञान से नहीं बल्कि भाव एवं संवेदना से ग्रहण किया जाता है। जहाँ हृदय की वास्तविक अनुभूति होती है वहाँ बुद्धि की सत्ता नहीं होती। अनुभूति संवेदना आधारित और बौद्धिकता तर्क आधारित होती है।
◆ छायावादोत्तर कविता विचार- प्रधान काव्य है।
● उसमें कवि के निजी संवेदनानुभवों को अभिव्यक्त होने का अवसर नहीं मिला।
◆ कला माध्यम के द्वारा कलाकार सत्य को सुन्दर बनाकर निजत्व की नही कला की उपलब्धि करता है।
● सत्य कलाकार की संचित पूजी होती है, सौन्दर्य-सृजन उसका व्यापार और लोकमंगल का व्य प्रसार उसकी उपलब्धि।
◆ काव्य-सौन्दर्य भाव और कला की एकान्विति में है।
● काव्य में भाव पक्ष और कला पक्ष दोनों सम्बद्ध होते हैं।
◆ मिथक मनुष्य के आदिम मस्तिष्क की सृजनशील शक्तियों का मूल्यवान सांस्कृतिक उपहार है।
● आदिम मन और मस्तिष्क द्वारा प्रकृति के तत्त्वों और घटनाओं के मानवीकरण की अचेतन प्रक्रिया ही मिथक रचना का मूल बनी।
◆ छायावादी काव्य आत्मनिष्ठा के साथ सामाजिक जीवन से प्रतिबद्ध रहा और यह अहंवादी नहीं बल्कि रहस्यवादी बन गया।
● छायावादी कवियों ने सामाजिक नैतिकता की उपेक्षा नहीं की है।
◆ कविता अलौकिक और आध्यात्मिक नहीं बल्कि लौकिक प्रक्रिया भी है।
● कविता में जीवन का लौकिक पक्ष भी आ सकता है।
◆ कविता में श्रृंगार चित्रण अनिवार्य नहीं है बल्कि कविता में श्रृंगार चित्रण ऐच्छिक है।
● मात्र श्रृंगार ही पाठक को आनन्दित नहीं करता। अन्य रस (करुण, वीर, शांत) आदि भी पाठक को आनन्दित और द्रवित करते हैं। यह सभी कविता पर निर्भर करता है।
◆ रस कार्य (कारणजन्य) रूप वस्तु नहीं।
● वह तो विभावादि समूहालम्बनात्मक अनुभव है न कि विभावादि द्वारा उत्पन्न की गई वस्तु। कारण-ज्ञान और कार्य ज्ञान का एक समय में होना कदापि संभव नहीं।
★ भरत मुनि कहते हैं कि जिस प्रकार स्वस्थ चित्त वाला व्यक्ति ही भोज्य पदाथों का आस्वाद ले सकता है उसी प्रकार सहृदय ही रस का आस्वादन कर सकता है क्योंकि रस तो विभावादि समूहालम्बनात्मक अनुभव है, न कि विभावादि द्वारा उत्पन्न की गई वस्तु। कारण ज्ञान और कार्य ज्ञान का एक समय में होना कदापि सम्भव नहीं है।
◆ सामान्यतः ‘सहृदय’ का तात्पर्य नाटक में उस दर्शक
(सामाजिक) से लिया जाता है जो नाट्यशाला में बैठकर नाटक का अभिनय देखता है और उसका रसास्वादन करता है। काव्य के सन्दर्भ में ‘सहृदय’ का तात्पर्य उस श्रोता या पाठक से है जो काव्य को सुनकर या पढ़कर रसानुभूति करता है तथा कविता का आनन्द प्राप्त करता है।
● सहृदय की अवधारण रस निष्पत्ति और साधारणीकरण की रसानुभूति की प्रक्रिया में सहृदय का योगदान भी आवश्यक है।
◆ बिम्ब अतीन्द्रिय नही होते हैं। बल्कि ऐन्द्रिक होते है।
● उनमें ऐन्द्रिकता का होना अनिवार्य है
◆ आचार्य शुक्ल ने कहा “साहित्य किसी देश की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिम्ब होता है।” साहित्य सब कलाएँ वर्ग हितों का प्रतिबिम्बन कभी नहीं करती है।
● साहित्य की चेतना शासन और सत्ता प्रवृत्ति और निवृत्ति की बाहरी व्यवस्था तक होती है। यह किसी विचारधारा से प्रतिबद्ध नहीं होती है।
◆ रीतिकाल में बहुत से कवियों की श्रृंगार एवं वीर रस प्रधान रचनाएँ हैं। रीतिकाल में जन साधारण का जीवन सामन्ती विलास पूर्ण आकांक्षाओं और माँगपूर्ण जीवन से दूर था।
● नैतिकता की दृष्टि से जन-साधारण का आचरण और चरित्र दरबारी संस्कृति से अलग नहीं हो पाया था।
◆ जैसे वीरकर्म से पृथक वीरत्व कोई पदार्थ नहीं, वैसे ही सुन्दर वस्तु से पृथक् सौन्दर्य कोई पदार्थ नहीं ।
◆ हिन्दी अभिव्यक्ति की एक सम्पूर्ण और सशत्ता सर्वसमावेशी बहुलतावादी सांस्कृतिक इकाई है।
● भारत के एक बड़े भूभाग की बोलियों का समूह इसकी शक्ति को बढ़ाता है।
◆ मनुष्य की श्रेष्ठ साधनाएँ है संस्कृति है।
● इन्हीं साधनाओं के माध्यम से मनुष्य अविरोधी सत्य तक पहुँच सका है। संस्कृति इसी अविरोधी सत्य का पर्याय है।
◆ पश्चिम के नए ज्ञानोदय ने बहुस्तरीय वर्चस्ववाद का निषेध किया।
◆ सांस्कृतिक एकरूपता साहित्य के लोकतंत्र में अनिवार्य है।
◆ भूमंडलीकरण विश्व की पूँजीवाद सांस्कृतिक व्यवस्था है, ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ नहीं।
◆ जयशंकर प्रसाद के नाटकों में रस और द्वन्द्व का समन्वय है।
● उनके नाटकों की संरचना पश्चिमी और आत्मा भारतीय है।
◆ कलाकार सत्य को सुन्दर बनाकर शिवत्व की उपलब्धि करता है।
◆ लोक आख्यान की निर्मित सामूहिक अचेतन की प्रक्रिया है।
● लोक में इसके निर्माण की प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है।
◆ काव्य हृदय का परम उत्थान है और विज्ञान मस्तिष्क का चरम उत्कर्ष है।
◆ कविता को कवि की आत्मा का आलोक माना गया जो समस्त लोक को प्रकाशित करता है।
◆ रहस्यभावना के लिए द्वैत की स्थिति भी आवश्यक है और अद्वैत का आभास भी।
● एक के अभाव में विरह की अनुभूति असम्भव हो जाती है और दूसरे के बिना मिलन की इच्छा आधार खो देती है।
◆ मिथक सार्वकालिक या सार्वदेशिक नही होते हैं।
● सभी देशों की जातीय अस्मित और विश्वास अलग – अलग होते हैं।
◆ “साहित्य समाज के सामूहिक हृदय का विकास है।”(बालकृष्ण भट्ट के अनुसार)
● समाज में रहने वाले विभिन्न धर्मावलम्बियों की चित्तवृत्ति का इसमें अलग-अलग विकास नहीं होता है।
◆ भारतेन्दु युग आधुनिकता का प्रवेश द्वार है।
● भारतेन्दु युगीन साहित्य में पश्चिमी संस्कृति के संघात से शुद्ध भारतीयता का उदय नहीं होता है।
◆ आधुनिकता कोई शाश्वत मूल्य नहीं, वह मूल्यों के परिवर्तन का पर्याय है। क्योंकि बदलाव की प्रक्रिया में युग आधुनिक होता है।
◆ देश भक्ति, संस्कृति-राग, चरित्रों की उदात्तता, भाषिक गरिमा और लम्बी कालावधि के विस्तृत कथानक के कारण जयशंकर प्रसाद का ‘चन्द्रगुप्त महाकाव्योचित औदात्य से परिपूर्ण नाटक है।
● चन्द्रगुप्त नाटक में यह विशेषता नही है – ब्रेख्त के महानाटय (एपिक थियेटर) की सम्पूर्ण विशेषताएँ भी मिलती हैं।
◆ अद्वैतवाद आत्मतत्व का विस्तार है।
● वह जीव और जगत की पृथक् सत्ता को स्वीकार करता है।
◆ स्वच्छन्दतावाद और रहस्यवाद का पर्याय छायावाद है।
● यह द्विवेदी युगीन शास्त्रीयता की प्रतिक्रिया स्वरूप वैयक्तिक कल्पनातिरेक और निजी रहस्यानुभूति का प्रतिफलन है।
◆मानव और प्रकृति के बीच समानता, पूर्व सम्पर्क, पूरकता या विरोध भाव में मिथक सूजन के सूत्र विद्यमान होते हैं।
● प्रकृति में अलौकिकता और दिव्यशक्ति है और मानव कल्पना तथा प्रकृति के मध्य सीधा और अनिवार्य संबंध है।
◆ छायावाद शुद्ध लौकिक प्रेम और सौन्दर्य का काव्य नहीं है बल्कि वैयक्तिकता, प्रकृति प्रेम, करुणा की भावना, राष्ट्रीयता, नारी-चित्रण, मानवता तथा रूढ़ियों से मुक्ति का काव्य है।
● उसमें राष्ट्रबोध और आध्यात्मिक चेतना विद्यमान है।
◆ भक्ति को ‘सा परानुरक्तिरीश्वरे’ कहा जाता है। 【शाण्डिल्य सूत्र में कहा गया अर्थात् भक्ति ईश्वर में सर्वश्रेष्ठ अनुरक्ति हैं।
● भक्ति को साध्यस्वरूपा माना गया है।
◆ श्रद्धा के कारण अनिर्दिष्ट और आलम्बन ज्ञात होता है चाहे वह ईष्ट हो या प्रेमी हो या कोई अन्य हो।
● श्रद्धा में दृष्टि व्यक्ति के कर्मों से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती हैं।
◆ साहित्य का इतिहास वस्तुतः मनुष्य-जीवन के अखंड प्रवाह का इतिहास है।
● मनुष्य ही साहित्य का अन्तिम लक्ष्य है।
◆ जिस प्रकार हमारी आँखों के सामने आए हुए कुछ रूप व्यापार हमें रसात्मक भावों में मग्न करते हैं उसी प्रकार भूतकाल में प्रत्यक्ष की हुई कुछ परोक्ष वस्तुओं का वास्तविक स्मरण भी कभी-कभी रसात्मक होता है। क्योंकि तब हमारी मनोवृत्ति स्वार्थ या शरीर यात्रा के रूखे विधानों से हटकर शुद्ध भावक्षेत्र में स्थित हो जाती है।
◆ भूमंडलीकरण विश्व की पूँजीवादी व्यवस्था है। क्योंकि इसमें पूरा विश्व एक बाज़ार है और व्यक्ति उपभोक्ता।
◆ दलित साहित्य का वैचारिक आधार दलित उत्थान और यथार्थवाद है।
◆ सामाजिक कल्याण अस्तित्ववाद का दर्शन नहीं है बल्कि व्यक्ति के स्वयं के कल्याण का दर्शन है।अस्तित्ववाद का प्रभाव प्रयोगवाद में पूर्णतः दिखा।
● यह व्यक्ति की स्वतंत्रता और चयन की आजादी का पक्षधर है।
◆ वस्तु सौन्दर्य एक ऐसी शक्ति संबंधा या ऐसा धर्म है जो द्रष्टा को आन्दोलित और हिल्लोलित कर सकता है और द्रष्टा में भी ऐसी शक्ति है, एक ऐसा संवेदन हैं है, जो द्रष्टव्य के सौन्दर्य से चलित और हिल्लोलित होने की योग्यता देता है।
● द्रष्टा और द्रष्टव्य में एक ही समानधर्मी तत्व अन्तर्निहित है।
◆ चेतना अनुभूति की सघनता और चिन्तन की पराकाष्ठा है।
● अनुभूति का संबंध इन्द्रियों से और चिन्तन का सम्बन्ध विचारधारा से है।
◆ कविता में चित्रित प्रेम निजी के साथ-साथ सामाजिक तथा सहृदय का भी होता है क्योंकि प्रेम सामाजिक भाव भी है।
◆ नाटक जड़ या रूढ़ नहीं, एक गतिशील पाठ है। क्योंकि यह लिखा कभी जाए, खेला वर्तमान में जाता है।
◆ नारीवाद पितृसत्तात्मक समाज में संघर्ष का विमर्श है।
● पुरुष अस्तित्व की विसंगतियों में नारी मनोस्थिति तथा सामाजिक दशा को दर्शाता है।
◆ प्रगतिवादी कवियों ने अधिकांशतः प्रकृति के उन्हीं रूपों का चित्रण किया है जिनमें उन्हें मनुष्य के सामाजिक जीवन की कोई गहरी अर्धच्छाया दिखाई पड़ी।
◆ कहानी छोटे मुँह बड़ी बात करती है।लेकिन लघु आकार के कारण कहानी सम्पूर्ण जीवनबोध और सामाजिक सत्य को प्रकाशित कर सकती।
◆ क्लासिक नाटक देशकालातीत होता। क्योंकि क्लासिक नाट्य-रचना एक गतिशील पाठ है।
◆ सौन्दर्यकारक धर्मों को अलंकार कहते हैं। लेकिन इनका कल्पना से सम्बन्ध होता।
◆ उपभोक्तावादी सभ्यता असंतोष भाववादी बुद्धिजीवियों के लिए स्वाभाविक है। क्योंकि उनके अनुसार इस सभ्यता में मानव-मूल्यों में गिरावट आई है।
◆ जयशंकर प्रसाद का ‘चन्द्रगुप्त नाटक स्वतंत्रता और गणतंत्र का यूटोपिया है।
◆ मैथिलीशरण गुप्त भारतीय संस्कृति के आख्याता हैं। इसीलिए उन के काव्यों में आधुनिक दृष्टिबोध मिलता।
◆ भ्रम, कल्पना और प्रातिभज्ञन के विरुद्ध प्रत्यक्ष और ठोस अनुभव को महत्व देना आधुनिक का प्रमुख लक्षण माना जा सकता है।
● इस अनुभववादी दृष्टिकोण का प्रभाव काव्य की रचना-प्रक्रिया और रसास्वादन की प्रणाली पर भी पड़ता है।
◆ यूरोपीय साहित्य मीमांसा में कल्पना को बहुत प्रधानता दी गई है।
● कल्पना काव्य का अनिवार्य साधन है।
◆ उन्नीसवीं शताब्दी का नवजागरण भक्तिकालीन लोकजागरण से भिन्न इस बात में है कि वह उपनिवेशवादी दौर की उपज है।
● उनकी ऐतिहासिक अन्तर्वस्तु एक समान नहीं है।
◆ कला का आस्वाद युग-निरपेक्ष होता।
● शाश्वतता कि गुण कालजयी कलाकृतियों में सहज अन्तर्भूत होता।
◆ कविता का अंतिम लक्ष्य जगत् के मार्मिक पक्षों का प्रत्यक्षीकरण करके उनके साथ मनुष्य हृदय का सामंजस्य स्थापन है।
● केवल मनोरंजन करना कविता का उद्देश्य नहीं है।
◆ बिम्बवाद में शब्दों की कमखर्ची, भाषा के समासगुण कम-से-कम शब्दों के प्रयोग से अधिकाधिक अर्थ-व्यंजना को महत्त्व दिया गया है।
◆ कविता केवल वस्तुओं के ही रंग रूप में सौन्दर्य की छटा नहीं दिखाती, प्रत्युत कर्म औ मनोवृत्ति के सौन्दर्य के भी अत्यन्त मार्मिक दृश्य सामने लाती है।
◆ भारतेन्दु युग में मध्यकालीनता और आधुनिकता का द्वंद्व है। क्योंकि उस समय का भारतीय समाज संक्रमण के दौर से गुजर रहा था। इस युग में श्रृंगार प्रधान, भक्ति प्रधान, सामाजिक समस्या प्रधान तथा राष्ट्रप्रेम प्रधान कृतियाँ मिलती है।
◆ शास्त्रीय विधानों में लोकात्मकता का स्पष्ट झुकाव है। इसीलिए अभिनय के धर्मीगत स्वभाव के अनुकूल लोकधर्मी और नाट्यधर्मी भेदों का शास्त्रीय अ विधान हुआ है।
◆ समर्पण सगुण भक्ति का मूल है।
● भक्ति आन्दोलन एकमात्र अद्वैतवाद से ही प्रभावित नहीं रहा बल्कि भक्ति आन्दोलन और कई वादों से प्रभावित रहा जैसे- इस्लाम का एकेश्वरवाद, शंकराचार्य का अद्वैतवाद, रामानुजाचार्य का विशिष्ट हुई द्वैतवाद तथा बल्लभाचार्य का शुद्धाद्वैतवाद से प्रभावित रहा।
◆ संचारी भावों के उन्मेष द्वारा सहृदय सामाजिक में रस निष्पन्न होता है।
◆ दलित लेखन स्थापित सांस्कृतिक व्यवस्था का विरोध कर सामाजिक समता का प्रस्ताव करता है।
◆ कृष्ण भक्ति काव्य वृत्ति के उत्कर्ष का दर्शन है। इसीलिए उसका पूर्णास्वाद उज्ज्वल रस में होता है।
◆ साहित्य में लोक ही प्रमाण है।