🌺UGC NET EXAM में आये हुये स्थापना और तर्क🌺
◆ नई आलोचना का केन्द्र बिन्दु-तनाव की स्थिति की परख और सौंदर्य की खोज है। क्योंकि नई आलोचना कविता को शब्द प्रतिभा मानती है।
◆ आधुनिकतावाद वर्तमान की स्वीकृति और समीक्षा के नये सोपानों को स्थापित करता है।
◆ क्रोध विवेक का शत्रु है क्योंकि क्रोध विवेक को नष्ट करता है।
◆ प्रवासी साहित्य को दोयम दर्जे का मानना भारतीय आलोचकों के अहम् की तुष्टि है। क्योंकि प्रवासी साहित्य को समानांतर न रखने का अहम् आलोचकों की व्यक्तिगत समस्या है।
◆ वर्द्धमान विवेक एवं उन्नत इच्छा शक्ति, भावना शक्ति से संबद्ध है। क्योंकि भावना शक्ति का संबंध मनो व्यापार से है।
◆ रस अन्ततः साहित्य की आत्मा है।
◆ मनुष्य के शील या आचरण की स्थापना भाव प्रणाली की स्थापना के अनुसार होती है। क्योंकि भाव-कोश का विधान भावविधान से उच्चतर है।
◆ कल्पना और अनुभूति से उत्पन्न विचारों की अभिव्यक्ति ही कला है।
◆ विचार बिन्दुओं के क्रमानुसार वर्णन और मत-पुष्टि के लिए प्रसंगोचित उद्धरण जरूरी है। क्योंकि इससे मानसिक दृढ़ता और सत्त्यपरकता का बोध होता है।
◆ निर्गुण ब्रह्म ज्ञान का विषय है। क्योंकि भक्ति साकार, मूर्त और विशिष्ट के प्रति ही उन्मुख होती है।
◆ मन को अनुरंजित करना उसे सुख या आनन्द पहुँचाना ही कविता का अन्तिम लक्ष्य है।
◆ सुख-दुःख की भावावेशमयी अवस्था विशेष का गिने-चुने शब्दों में स्वर साधना का उपयुक्त चित्रण ‘गीत’ है। क्योंकि गीति काव्य में आत्माभिव्यंजना होती है।
◆ ‘कुरुक्षेत्र’ महाकाव्य में युद्ध की समस्या पर प्रकाश डाला गया है।
◆ छायावाद दो महायुद्धों के मध्य का काल है।
◆ कविता मनुष्य के व्यक्तित्व का प्रकाशन है।
◆ हिंदी की नई कविता अस्तित्ववाद से प्रभावित है। अस्तित्ववादी क्षणवादी जीवन-दर्शन और उन्मुक्त भोग में विश्वास करते हैं।
◆ भूषण रीतिकाल में वीररस की कविता करनेवाले सशक्त कवि हैं।
◆ भूषण ने काव्यांग का निरूपण किया है।
◆ छायावाद स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह है।
◆ छायावादी काव्य में द्विवेदीयुगीन इतिवृत्तात्मकता के स्थान पर सूक्ष्म भावाभिव्यक्तियों पर अधिक बल दिया गया ।
◆ व्याकरण का भाषा के मानकीकरण में विशेष महत्व होता है। पं. कामताप्रसाद गुरु द्वारा रचित ‘हिंदी व्याकरण’ इस दिशा में सहायक सिद्ध हुई।
◆ मार्क्सवाद का साहित्यिक संस्करण प्रगतिवाद है ।
◆ प्रगतिवाद काव्य में शोषण का विरोध एवं आध्यात्मिक मूल्यों का नकार शामिल है।
◆ मिथक मूलतः आदिम मानव के समष्टि की मन की सृष्टि है जिसमें चेतन की अपेक्षा अचेतन का प्राधान्य रहता है।
◆ मिथक मानवीय ज्ञानकोश के प्रतीकात्मक आलेख है। उसका रूप कथात्मक होता है।
◆ लक्षण ग्रंथों की रचना करनेवाले संस्कृत आचार्य कवियों का आचार्य पक्ष सबल है। काव्यशास्त्र के क्षेत्र में मौलिक उद्भावनाओं की दृष्टि से उनको योगदान सीमित है।
◆ कविता जीवन की संदेश वाहिनी न होकर भाषा- सौंदर्य में उलझ गई है। भाषा ही कविता की अभिव्यंजना शक्ति का सहज माध्यम है।
◆ मूल्य की व्याख्या के लिए न तो नैतिक विचारों की आवश्यकता है और न तात्विक विचारों की। मूल्य में अपनी बहुविध अर्थवत्ता सन्निहित होती है।
◆ अभिव्यक्ति की क्षमता गद्य और पद्य में समान होती है। दोनों में अंतर मात्र छंद का होता है।पद्य-गद्य की अपेक्षा सरस और छंदोबद्ध होता है।
◆ रसोत्पत्ति हृदय की प्रकिया है।
◆ व्यंग्य विसंगतिबोध का उत्कृष्ट उदाहरण है।हरिशंकर परसाई के निबंध व्यंग्यात्मकता हैं।
◆ संसार में प्राणी के जीवन का उद्देश्य दुःख की निवृत्ति और सुख की प्राप्ति है। दुःख से मुक्ति के बिना सुख संभव नहीं है।
◆ फ्राइड़ मनोविश्लेषणवाद के प्रवर्तक हैं। जैनेंद्र के उपन्यास मनोविश्लेषणवाद के उदाहरण हैं।
◆ आचरण की सभ्यतामय भाषा सदा मौन रहती है। क्योंकि उसमें मृदु वचनों की मिठास होती है।
◆ साहित्य और जीवन में घनिष्ठ संबंध होने पर भी दोनों में अंतर रहेगा क्योंकि जीवनानुभूतियों से ही साहित्य निर्मित होती है।
◆ नागार्जुन प्रगतिवादी कवि थे।
◆ प्रेमचंद आदर्शोन्मुख यथार्थवादी साहित्यकार है। उनके साहित्य में आदर्शोन्मुख यथार्थवाद की अभिव्यक्ति हुई हैं।
◆ छायावादी कवियों की सौंदर्यभावना सूक्ष्म एवं उदात्त है। क्योंकि सौंदर्य की अभिव्यक्ति वे सांकेतिक और प्रतीकों के माध्यम से करते हैं।
◆’ एक गोबर से भरी टोकरी भी सुंदर कही जा सकती है यदि उसका कोई उपयोग हो।’- यह विचार प्लेटो का है। सौंदर्य की सत्ता आत्मगत होती है, वस्तुगत नहीं।
◆ टी. एस. इलियट के अनुसार साहित्य व्यक्तित्व की अभिव्यंजना न होकर उससे पलायन है।
◆ रस का मूल आधार स्थायी भाव है जो विभावादि से संयुक्त होकर ही रस बनता है।
◆ जो उपयोगिता घोड़े की सैनिक के लिए है, वही भाषा की कवि के लिए क्योंकि भाषा साहित्य की अभिव्यक्ति का माध्यम है।
◆ सबके लिए यह जगत् एक सा नहीं है। व्यक्ति, जाति, समय के साथ-साथ वह बदलता है। जैसे एक ही पर्वतीय दृश्य चित्रकार, भूगर्भशास्त्री और ग्वाले के लिए अलग -अलग होता है।
◆ क्लासिक के लिए व्यापक एवं विश्वसनीन होना आवश्यक है।
◆ सफल अभिव्यक्ति में ही सौन्दर्य निवास करता है।
यदि अभिव्यक्ति सफल नहीं है, तो वह अभिव्यक्ति ही नहीं है।
◆ कविता में कल्पना, अनुभूति, विचार और अभिव्यंजना कौशल का उल्लेख मिलता है।
◆ मध्यकालीन भक्ति-आंदोलन विशाल लोक जागरण का हिस्सा रहा है।
◆ काव्य की स्वतंत्र सत्ता, उसमें व्यक्ति चेतना का महत्व, कल्पनातत्व की प्रधानता मान्य है। प्रकृति के प्रति जिज्ञासा, विस्मय और प्रेम का भाव तथा आनंदवादी उद्देश्य मान्य है।
◆ काव्य की उत्कृष्टता की परख मौलिकता के स्तर पर ही संभव है। काव्य की उत्कृष्टता का प्रमाण नायक का लोकमंगल की साधना में प्रवृत्त होना है।
◆ इंद्रियों द्वारा होनेवाले वस्तुओं का बोध कल्पना द्वारा ही व्यवस्थित होता है। चूंकि कल्पना में अनुभूति को अभिव्यंजित करने की शक्ति अन्तर्निहित होती है।
◆ नाटक का प्राण तत्व है। क्रियाव्यापार और चरित्रों की विशेषताओं का उद्घाटन संभव है।
◆ कविता में सादगी, ऐन्द्रियता और रागात्मकता पर बल दिया जाता है। कविता में कल्पना और भावना के माध्यम से जीवन की व्याख्या संभव है।
◆ प्रकृति ही सर्जनशक्ति का मूल है। चूंकि प्रकृति के सौदर्य का मूल कला है।
◆ आज के घोर व्यावसायिक यांत्रिक व्यवस्था में संवेदनशीलता और मानवीयता ही प्रतिरोधक शक्ति है।
◆ नई कहानी में आधुनिक नारी अपनी पूरी गरिमा तथा सम्मान के साथ उभरी है। इसलिए नई कहानी खलनायिकाओं से शून्य है।
◆ स्वच्छंद प्रवृत्ति का कवि अंतर्मुखी होता है।
◆ आज की कहानी आभिजात्य को तोड़कर लोकतत्व को स्थापित करती है। इसमें लोकतत्व और लोकमाध्यम सर्जनात्मक लेखन की कसौटी है।
◆ प्रेम और मस्ती के काव्य में जीवन की व्यापक परिकल्पना और सिद्धांत अभाव है। इस काव्य का लक्ष्य प्रणय में तल्लीन होने की कामना है।
◆ रचना के स्तर पर सचेतन कहानी परस्पर समान प्रवृत्तियों के लेखकों का जमावडा था। उनमें से एक वर्ग के लेखक किसी न किसी आंदोलन में शामिल थे।
◆ सिद्धों और नाथों के साहित्य की प्रेरणा काव्यशास्त्रीय नहीं है। उनका प्रेरक तत्व धर्म अध्यात्म एवं समाज है।
◆ विद्यापति तीन भाषाओं में कविता लिखते थे, संस्कृत में, अवहट्ठ या अपभ्रंश में और अपनी मातृभाषा मैथिली में। वह मैथिली के महाकवि है।
◆ तुलसीदास अवधी में कविता लिखते थे और ब्रजभाषा में भी, पर ब्रजभाषा के महाकवि वो नहीं हैं। तुलसीदास अवधी के महाकवि है।
◆ ब्रजभाषा के महाकवि सूरदास हैं।
◆ आलवार भक्तों की संख्या ग्यारह मानी गयी है।
दक्षिण भारत के वैष्णवों को आलवार और शैवों को नायनमार कहा जाता है।
◆ भारतेन्दुयुग आधुनिकता का प्रवेशद्वार है।
◆ नारीवाद का एक उद्देश्य पुरुष सत्ता का निषेध है।
◆ नयी कविता में छायावाद का प्रभाव एकदम नहीं है।
◆ नयी कविता पूर्णतः पश्चिमी प्रभाव में जन्मी है।
● नई कविता में पुरानी परम्पराओं को तोड़ा गया और यह पश्चिमी दर्शन अस्तित्ववाद व यथार्थवाद पर आधारित है।
◆ नाद सौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है।
◆ नाद का संबंध छन्द से होता है। इसलिए जो लोग छन्द की परवाह करते हैं उनकी कविता की आयु अधिक हो जाती है।
◆ भाषा एक सामाजिक सम्पत्ति है क्योंकि किसी भी भाषा का विकास समाज द्वारा ही होता है जिस भाषा का जितना परिमार्जित प्रारूपं समाज द्वारा प्रचलन एवं प्रयोग में लाया जाता है उस भाषा का उतना ही विकास होता है।
◆ भाषा ही मनुष्य को अन्य जीव- जन्तुओं से भिन्न बनाती है। अतः भाषा विहीन समाज की कल्पना सम्भव नहीं है।
◆ भक्तिकालीन हिन्दी कविता लोकमंगल के प्रति समर्पित है।
◆ लोकहित भक्ति काव्य का मुख्य उद्देश्य है।
◆ वियोगी होगा पहला कवि आह से उपजा होगा गान। निकलकर आँखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान । उपर्युक्त पंक्ति सुमित्रानंदन पंत की है।
● इस कविता की मूल प्रेरणा वेदना है।
◆ भारतेन्दुयुगीन हिन्दी कविता राष्ट्रीय चेतना से अनुप्राणित है।
● भारतेन्दु युग में हिन्दी कविता नाटक उपन्यास आदि सभी विधाएँ राष्ट्रीय चेतना से अनुप्रमाणित थी तथा सभी भारतेन्दु युगीन कवियों में देशभक्ति की भावना थी जो उनकी रचनाओं में परिलक्षित होती है।
◆ हिन्दी के सभी नए कवि अस्तित्ववादी है।
◆ हिन्दी की नई कविता में एक ही भावधारा उपलब्ध है।
◆ नारी चेतना की प्रमाणिक अभिव्यक्ति केवल नारी ही करें ऐसा जरूरी नहीं है, अनेक पुरुष लेखकों ने भी नारी चेतना को अभिव्यक्त किया है।
◆ स्त्री सम्बन्धी सर्जनात्मक लेखन और स्त्री- विमर्श दोनों अलग हैं।
◆ साहित्य की साधना अखिल विश्व के साथ एकत्व अनुभव करने की साधना है।
◆ साहित्य विश्वबन्धुत्व की भावना को पुष्ट करता है।
◆ संत न छाड़े संतई, कोटिक मिलै असंत, चन्दन विष व्यापत नहीं लपटे रहत भुजंग।
● व्याख्या- जिस प्रकार चन्दन के वृक्ष पर अनेको विषैले सांप लिपटे रहते फिर भी वृक्ष पर कोई असर नहीं पड़ता उसी प्रकार चाहे करोड़ो दुष्ट आत्माएँ मिल जाए फिर भी साधु (सज्जन) के गुणों को अवगुण में नहीं बदल सकते। दुष्टो की संगत में रहने पर भी सन्त अपने स्वभाव को नहीं छोड़ते हैं।
◆ अंग्रेजी पढ़ि के जदपि सब गुन होत प्रवीन
पै निज भाषा ज्ञान बिन रहत हीन के हीन
● कवि भारतेंदु हरिश्चंद्र की इन पंक्तियों का भावार्थ यह है कि हम चाहे कितनी भी अंग्रेजी पढ़ लें। कितनी ही तरह के गुणों में प्रवीण हो जाएं, लेकिन जब तक हमें अपनी मातृभाषा का ज्ञान नहीं होगा हम छोटे के छोटे ही रहेंगे। हम कभी उन्नति नहीं कर सकते।
◆ भाषा संस्कृति की संवाहक होती है।
◆ भाषा के बिना संस्कृति की कल्पना संभव नहीं है।
◆ दलित की पीड़ा को दलित लेखक ही अभिव्यक्त कर सकता है। सहानुभूति, स्वानुभूति के स्तर तक नहीं पहुँच सकती है।
◆ पश्चिम के नए ज्ञानोदय ने बहुस्तरीय वर्चस्ववाद को बढ़ावा दिया। उसी कारण साहित्य में विकेन्द्रीकरण की प्रवृत्ति बढ़ी।
◆ साधारणीकरण की अवस्था में सामाजिक या दर्शक भाव मुक्त होकर एकाग्र चित्त से रस का अनुभव करता है। इसीलिए पश्चिमी नाट्य चिंतक ब्रेक्त ने भी इस बात का समर्थन किया है।
◆ कला सौंदर्य का विधान करती है।
◆ श्लेष का अर्थ है- चिपकना, मिलना अथवा संयोग। जहाँ एक शब्द के अनेक अर्थ चिपके रहते हैं, वहाँ अनेकार्थवाची शब्दों विताओं में के द्वारा अनेक अर्थों का अभिज्ञान होता है। क्योंकि इसमें सार्थक अथवा निरर्थक शब्दों की आवृत्ति होती है।
◆ मिथक सामूहिक जीवनका संचित अनुभव है।
क्योंकि इसे सामाजिक स्तर पर विश्वास का व्यापक आधार प्राप्त होता है।
◆ उत्तर आधुनिकता के अनुसार तकनीक मनुष्यता की शत्रु है। क्योंकि इससे मानव की नैसर्गिकता समाप्त हो गई और उसका अपनी प्रकृति से अलगाव हो गया।
◆ संसार में मनुष्य जाति के बीच कविता हृदय के भावों को लेकर ही उठी है। क्योंकि कविता का सम्बन्ध कल्पना और यथार्थ दोनों से है।
◆ काव्य की आत्मा रस है और गुण रस के धर्म हैं। क्योंकि गुण रस के उपकारक हैं।
◆ खण्ड काव्य में जीवन का खण्ड-चित्र प्रस्तुत किया जाता है। इसीलिए यह चरित काव्य का एक विशेष भेद है।
◆ जिस नायिका के शरीर में नव यौवन का प्रवेश हो रहा हो, उसे मुग्धा नायिका कहते हैं और उसमें लज्जा भाव बड़ा प्रबल होता है। इसे परकीया नायिका की कोटि में नही गिना जायेगा ।
◆ रूपक में कार्यावस्था एवं अर्थप्रकृति को मिलाने वाला तत्व संधि है। क्योंकि कथांशो का सम्बन्ध एक ओर अर्थप्रकृति से होता है तो दूसरी ओर कार्यावस्था से।
◆ कविता मनुष्य के हृदय की स्वार्थ सगुण सम्बन्धों के संकुचित दायरे से ऊपर उठकर लोक-और सामान्य-भाव भूमि पर प्रतिष्ठिा करती है। क्योंकि कविता में स्वार्थ संकुचित होता है न कि आत्म।
◆ काव्यभाषा को सहज होना चाहिए और उसे वैचित्र्य वक्रता, अलंकार आदि के आडम्बर से मुक्त होना चाहिए। अलंकार, उक्ति वैचित्र्य का प्रयोग कोई भी कवि कर सकते हैं।
◆ मिथक जातीय स्मृति पर आधारित होते हैं इसीलिए मिथक को विकासशील माना गया है।
◆ प्रयोगवाद केवल शिल्प का चमत्कार नहीं है।
◆ प्रयोगवादी कविता में कई नये सिद्धान्तों नयी भाषा, नये विषय, छन्द मुक्ति. इत्यादि का शिल्पगत प्रयोग किया गया है।
◆ अनुभव की प्रामाणिकता दलित और स्त्री-लेखन की मूल शर्त है। क्योंकि साहित्यकार वर्ग चेतना से प्रतिबद्ध होता है।
◆ जैसे विश्व में विश्वात्मा की अभिव्यक्ति होती है वैसे ही नाटक में रस की। क्योंकि प्रेक्षक नाटक में आद्यन्त रस का अनुभव करता है।
◆ नये काव्य में नये जीवन मूल्यों की प्रतिष्ठा और स्वतंत्र प्रयोग की प्रवृत्ति मिलती है। क्योंकि इसमें जीवन मूल्यों का बिखराव मिलता है।
◆ कामायनी का नायक शास्त्रीय महाकाव्यों के नायकों से भिन्न है। कामायनी के नायक का अजनबीपन जीवन के प्रति तुच्छता नहीं बरतता। उसका जीवन मनुष्यत्व की खोज करता है।
◆ बैर क्रोध का अचार या मुरब्बा है। अर्थात् बैर से क्रोध में स्थिरता आती है और वह किसी भी स्तर तक जा सकता है। बैर में दोस्ती घटती है। बैर और दोस्ती एक-दूसरे के विरोधी हैं।
◆ काव्य की पूर्ण अनुभूति के लिए कल्पना का व्यापार कवि और श्रोता दोनों के लिए अनिवार्य है। क्योंकि काव्यानुभूति में वस्तु के साथ वक्ता की मूर्त्त भावना होती है।
◆ मनोविज्ञान के आधार पर व्यक्ति के भाषागत ग्रहण और सम्प्रेषण सामर्थ्य में अन्तर स्वाभाविक है।
◆ नाटक का अपनी समग्रता में परिचय देना ही नट-कर्म के आगे पीछे जो मूल प्रयोजन है वहाँ तक जाना पड़ेगा।
◆ भारतेन्दु हरिश्चन्द्र की रचनाओं का मूल स्वर देश भक्ति कहा या राष्ट्रीयता है। देशप्रेम की भावना तत्कालीन समाज में प्रमुख रूप से पायी जाती है
◆ भक्ति धर्म की रसात्मक अनुभूति है। क्योंकि उसमें अपने मंगल और लोकमंगल का संगम दिखाई पड़ता है।
◆ निराला की कल्पनायें उनके भावों की सहचरी है।
क्योंकि उनकी कल्पनायें सुशील स्त्रियों की भाँति पति के पीछे-पीछे चलती है।
◆ नाद सौंदर्य से कविता की आयु बढ़ती है।
◆ व्यक्तिवाद का एक रूप अहंवाद है। अहंवादी व्यक्ति समाज का तिरस्कार करता है।
◆ सिद्धान्ततः प्रजातंत्र को सर्वोत्तम शासन व्यवस्था कहा जा सकता है। शासन प्रायः प्रजा के हित में समर्पित होता है।
◆ ध्वनि काव्य चित्रकाव्य से श्रेष्ठ है। क्योंकि चित्रकाव्य रस की सृष्टि नहीं कर पाता है।
◆ बड़े-बड़े राज्य उत्पाद की बिक्री के लिए सौदागर हो गये हैं। क्योंकि व्यापारनीति राजनीति का प्रधान अंग हो गयी है।
◆ कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक की सामान्य भावभूमि पर ले जाती है। क्योंकि इस भूमि पर पहुँचे हुए मनुष्य को कुछ काल के लिए अपना पता नहीं रहता।
◆ सही शब्द वे ही हैं, जो उनके बीच के अंतराल का सबसे अधिक उपयोग करें। अन्तराल के उस मौन द्वारा भी अर्थवत्ता का पूरा ऐश्वर्य सम्प्रेषित कर सके।
◆ रस सिद्धान्त के प्रतिपादक आचार्य भरतमुनि हैं। भरतमुनि ने अदभुत रस को दिव्य एवं आनन्द को उत्पन्न करने वाला बताया है। भरत मुनि ने सिर्फ चार अलंकारों का वर्णन किया है। अतः भरतमुनि का अलंकार पर आंशिक प्रभाव है।
◆ गुण मुख्य रूप से रस के धर्म हैं।इन्हें गौण रूप से शब्दार्थ के भी धर्म माना जाता है।
◆ काव्य का सत्य असाधारण होता है। क्योंकि वह सामान्य सत्य से मिलता है।
◆ प्रेम जब व्यष्टि सौंदर्य से ऊपर उठता है तब वह आध्यात्मिक बनता है।
◆ कवियों और दार्शनिकों की दृष्टि में विश्व भावमय है।
◆ चेतना अनुभूति की सघनता तथा चिन्तन से समन्वित आधार पर स्वरूप ग्रहण करती है। क्योंकि अनुभूति का सम्बन्ध हृदय की संवेदनाशीलता से है और चिन्तन का सम्बन्ध बुद्धि से है।
◆ समाज का आत्यंतिक कल्याण शुभ बुद्धि द्वारा चालित दृढ़ संकल्प में है। क्योंकि यह संकल्प शक्ति मनुष्य से असाध्य साधन भी कराती है।
◆ वीरता की कभी नकल नहीं हो सकतक जैसे मन की प्रसन्नता कभी कोई उधार नहीं ले सकता क्योंकि वीरता का सम्बन्ध मनोबल से है
◆ श्रद्धा का कारण निर्दिष्ट और ज्ञात होता है। क्योंकि श्रद्धा में दृष्टि पहले कर्मों पर से होती हुई श्रद्धेय तक पहुँचती है।
◆ आन्तरिक संवेद्य-भावों की रसाग्रही अभिव्यक्ति कविता है। क्योंकि कविता लोकरंजन और लोकमंगल इत्यादि भावनाओं से जुड़ी हुई है।
◆ सबसे मधुर या रसमयी वाग्धारा वही है जो करुण प्रसंग लेकर चले। कविता में करुण प्रसंग अनिवार्य है।
◆ दण्ड कोष का ही एक विधान है। क्योंकि दण्ड से कोप शमन होता है।
◆ श्रद्धा का मूलतत्त्व है दूसरे का महत्व स्वीकारना। क्योंकि स्वार्थियों और अभिमानियों के हृदय में श्रद्धा का निवास स्थान नही हो सकता है।
◆ कबीर क्रांतिकारी कवि हैं। 【आ. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा】 कबीर की कविता का मुख्य स्वर, अद्भुत, शान्त, प्रतीक योजना, रूपक विधान, यथार्थबोधता इत्यादि है।
◆ चिन्तन की अपेक्षा कर्म सत्य के अधिक समीप होता है। क्योंकि कर्म में सक्रियता और व्यावहारिकता होती है।
◆ कविता ही मनुष्य के हृदय को स्वार्थ-सम्बन्धों के संकुचित मंडल से ऊपर उठाकर लोक-सामान्य भावभूमि पर ले जाती है।
◆ मनुष्य तथा पशु में अन्तर के कई कारण हैं, मात्र भाषा ही एक मात्र साधन नहीं है जो मनुष्य को पशुओं को पृथक करती है। भाषा मनुष्य की अर्जित एवं सर्वोत्तम सम्पत्ति है।
◆ जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। क्योंकि कविता में कवि हृदय लोक सामान्य की भूमि पर पहुँच जाता है।