परमाल रासो (आल्हा खण्ड) का परिचय[paramal raso (aalha khand) ka parichay]

Trick :- पर जग

• रचनाकार – जगनिक

• समय – 13वीं शताब्दी

• जगनिक महोबा नरेश परमाल के दरबारी कवि उनका उपस्थित काल :- 1173 ई.

• विषय :- महोबा नरेश परमाल तथा उनके सामंत आल्हा और उदल के वैयक्तिक शौर्य का वर्णन।

गेय काव्य परम्परा का प्रबन्धकाव्य

• प्रमुख रस – वीर रस (दूसरी रचना वीर गीत मे लिखी गयी थी।इससे पहले वीर गीत बीसलदेवरासो लिखा गया था।)

• रचना:- उत्तर भारत में बड़ी लोकप्रिय रही

पृथ्वीराज की मृत्यु के 11 वर्ष बाद महोबा का पतन।

• परमाल रासो को आ. हजारी प्रसाद द्विवेदी ने नोटिस मात्र ग्रंथ माना है

• इसको लेखबद्ध करने का सबसे प्रथम :- चार्ल्स इलियट(1864 ईस्वी में अनेक भाटों की सहायता से फर्रुखाबाद में लिखवाया)

 

• मि. वाटर फील्ड ने आल्हखंड को पृथ्वीराज रासो का एक भाग मात्र माना है।

• आल्हा खंड में पुनरुक्ति की भरमार है [यह दोष है] (रामकुमार वर्मा के अनुसार)

• पृथ्वीराज रासो का पैटर्न महाकाव्यात्मक है तो आल्हाखंड गेयात्मक

• आल्हखंड में 52 छोटी – बड़ी लड़ाई का वर्णन है।

• युद्ध के मुख्य कारण तीन:- विवाह,प्रतिशोध की भावना,लूट ।

• पृथ्वीराज रासो के विवाह में अनुराग का भी रंग है किंतु आल्हा खंड में विवाह युद्ध का निर्मित है।

जगनिक ने परमाल पक्ष के लोगों को पांडवों का अवतार कहा, तो पृथ्वीराज पक्ष के लोगों को कौरवों का।

जार्ज ग्रियर्सन ने बिहार में और विसेट स्मिथ ने बुंदेलखंड में आल्हखंड के कुछ भागों का संग्रह किया है ।

• इस रचना को अंग्रेज चार्ल्स इलियाट ने आल्हा लोग(भाटों) गायकों से संग्रहित करके 1865 मे प्रकाशित करवाया गया था। इसमे आल्ह एवं उदल के युद्धो एवं वीरता का वर्णन है। इस रचना का दूसरा नाम आल्ह खण्ड है।

• डॉ.श्याम सुन्दरदास की मान्यता है कि जिन प्रतियों के आधार पर यह संस्करण सम्पादित हुआ है उनमे यह नाम नही है।उनमे इसको चन्द्रकृत पृथ्वीराज रासो का महोवा खण्ड लिया गया है। किन्तु वास्तव मे यह पृथ्वीराज रासो का महोवा खण्ड नही है।

• मिस्टर इलियट के अनुरोध से मि.डब्ल्यू वाटर फील्ड ने उनके द्वारा संग्रहीत आल्हा खंड का अंग्रेजी अनुवाद किया।जिसका संपादन जार्ज ग्रियर्सन ने 1923ई. में किया। मि.वाल्टर फील्ड का अनुवाद कलकत्ता रिव्यू में सन् 1874-1876 में ‘लाइन लाख चेन’ या ‘दि मेरो फ्यूड’  के नाम से प्रकाशित हुआ था।

• जार्ज ग्रियर्सन के मतानुसार “आल्हा खंड रचना रासो से बिल्कुल भिन्न है।आल्हा खंड रासो के महोबा खंड कथा से साम्य रखता है, पर उसकी रचना बिल्कुल स्वतंत्र है।”

“आल्हा उत्तर प्रदेश के बैसवाड़ा,पूर्वांचल तथा मध्य प्रदेश के बुंदेलखंड के निरंतर पीढ़ी – दर – पीढ़ी गाया जाता रहा है। लोक कंठ में बसे इस लोकप्रिय युद्ध काव्य (बैलेड) को 1865ई. में फर्रुखाबाद के तत्कालीन जिलाधीश चार्ल्स इलियट ने अनेक भाटों की सहायता से लिपिबद्ध कराया था।” (डॉ.बच्चन सिंह के अनुसार)

युद्ध में विशेष स्थानों की बनी तलवारों,भालों और बर्छियों यो का प्रयोग नहीं होता,जाइ से भी काम लिया जाता है, जाई के काम में स्त्रियां माहिर है। नैनागढ़ के सोनारानी, पथरीगढ़ की श्यामा,भक्तिन, नरवरगढ़ की हिरिया मालिन,भाड़ो की विजया जाइ की अचूक मार करती है। वे पूरी सेना को तन्द्रहास या पत्थर बना सकती थी।(डॉ.बच्चन सिंह के अनुसार)

• पंक्तियां :-
1. आधे मड़ए भावरि घूमै, आधे झमि चलै तरवारि।
2. सदा तैरैया न बनफूले, यारों सदा न सावन होय। स्वर्ण मडैया सब काहू को, यारों सदा न जीवै कोय।।
3. अररर गोला छूटन लागे, सर सर तीर रहे सन्नाय।गोला लागै जेहि हाथी के, मानो चोर सेंध ह्वै जाय।।
4. दस दस रूपया के नौकर है,नाहक डरिहौ मुड़ कटाय।
हम तुम खेलै समर भूमि में दुह में एक आँकु रहि
जाय।।

 

👉 पढ़ना जारी रखने के लिए यहाँ क्लिक करे।

👉 Pdf नोट्स लेने के लिए टेलीग्राम ज्वांइन कीजिए।

👉 प्रतिदिन Quiz के लिए Facebook ज्वांइन कीजिए।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

*

error: Content is protected !!