आधे – अधूरे नाटक (Aadhe Adhure Natak)

            💐💐 आधे – अधूरे नाटक 💐💐

◆ नाटककार :- मोहन राकेश

◆ प्रकाशित :- 1969 ई.

◆ यह नाटक ‘धर्मयुग’ पत्रिका में प्रकाशित हुआ।

◆ मोहन राकेश का यह तीसरा एवं बहुचर्चित नाटक है ।

◆ आधे-आधूरे पारिवारिक जीवन के विघटन की गाथा है।

◆ आधे – अधूरे में एक भी अंक नहीं है। सभी घटनाएँ एक ही स्थान और एक ही दृश्य में दिखाई जाती है। घटनाओं को पूर्वार्ध और उत्तरार्ध में विभाजित किया गया है।

◆ नाटक में मानवीय संतोष के अधूरेपन का सुंदर चित्रण।

◆ नाटक के सभी पात्र आधुनिक मध्य-वर्गीय समाज के व्यक्तियों का प्रतिनिधित्व करते हैं।

◆ इस नाटक में पात्रों की मनः स्थिति और संवेदनाओं की टकराहट को आन्तरिक विस्फोट के रूप में चित्रित किया गया है।

◆  नाटक के सभी पात्र आधुनिक मनुष्य के समान ‘आधे-अधूरे’ हैं।

● सभी पात्र किसी न किसी अभाव के कारण पारिवारिक नातों से असंतुष्ट हैं। फिर भी साथ रहने के लिए विवश हैं।

◆ नाटक का नायक महेन्द्रनाथ जीविका के लिए पत्नी सावित्री पर निर्भर होने के कारण अपने घर में उपेक्षित है।

◆ बड़ी लड़की बिन्नी माँ के प्रेमी मनोज के साथ विवाह कर लेती है किंतु उसका वैवाहिक जीवन ठीक नहीं है।

◆ अशोक बेकारी के कारण कटु मनोवृत्ति को प्रकट करता है ।

◆ छोटी लड़की किन्नी एक जिद्दी और उदंड़ लड़की है उसकी वयःसंधि दशा है पर कोई नहीं समझता ।

◆  सावित्री बेकार बैठे पति या पुत्र की भाँति अधूरी नहीं किंतु पूर्णता वहाँ भी नहीं है।

◆ नाटक के  पात्र :-

★ पुरुष पात्र :-

1.  काले सूट वाला आदमी(का. सू. वा.) :-

  ◆  जो कि पुरुष एक, पुरुष दो, पुरुष तीन
       तथा पुरुष चार की भूमिकाओं में भी है।

  ◆  उम्र लगभग उनचास-पचास।

  ◆  चेहरे की शिष्टता में एक व्यंग्य

2 . पुरुष एक (महेन्द्रनाथ) :-

◆ पुरुष एक के रूप में वेशान्तर पतलून
     – कमीज़।
◆ आधुनिक व्यक्ति के खंड़ित व्यक्तित्व का प्रतीक
◆ नाटक का नायक और प्रमुख पात्र
◆ उम्र :- लगभग उनचास पचास की
◆  ज़िन्दगी से अपनी लड़ाई हार चुकने की
      छटपटाहट लिये।
◆ जुनेजा की सहायता
◆  बेकार और जीवन में असफल पति
◆  पत्नी सावित्री की कमाई खाने वाला(जीवन में असफल होने के कारण)
◆  परिस्थितियों के दबावों से घिर हुआ।
◆  बेरोजगारी के कारण घर में  इज्जत कम होना।
◆  पत्नी को पीटने वाला
◆  सावित्री को सांसारिक बंधनों के भय से छोड़  नहीं वाला
◆  महेन्द्रनाथ स्वयं परिवार को छोड़कर चला जाता है। लेकिन अन्त में वह बीमारी से पीड़ित होकर घर आता है।
◆ पत्नी की दृष्टि में निकम्मा
◆ जीवन से पराजित और कुण्ठाओं का शिकार
◆ वह सिर्फ एक रबड़ का टुकडा है।

3.  पुरुष दो (सिंघानिया) :- सावित्री का बॉस,   (चीफ कमिश्नर )

◆ पुरुष दो के रूप में :- पतलून और बन्द गले
     का कोट।
◆ आधुनिक काल में भ्रष्ट अधिकारी के रूप में चित्रण
◆अपने आपसे सन्तुष्ट, फिर भी आशंकित
◆ भुलक्कड़ स्वभाव
◆  इसके व्यक्तित्व में कुत्सित रूचि से ग्रस्त आत्मलीन मनोवृत्ति निहित
◆  अपने अधिकार के बल पर नारीकर्मचारियों को
झूठी सहानुभूति दिखाने वाला।
◆ सावित्री इसे अपने घर अशोक की नौकरी की बात के लिए बुलाती है, किन्तु उसकी दृष्टि उस बिन्दु से अलग हट कर उसकी बेटी बिन्नी पर यौन तृष्णा की दृष्टि से रहती है।
◆ व्यर्थ की अनेक बातों की चर्चा करके अपने ज्ञान की महत्ता दिखाने वाला
◆ महत्वाकांक्षी
◆ आर्थिक कमजोरी का लाभ उठाने वाला

4.  पुरुष तीन (जगमोहन):–  सावित्री का प्रेमी

◆ पुरुष तीन के रूप में :-  पतलून-टी शर्ट
◆ हाथ में सिगरेट का डब्बा लगातार सिगरेट
    पीता।
◆ अपनी सुविधा के लिए जीने का दर्शन पूरे
     हाव-भाव 

5. पुरुष चार (जुनेजा) :-

◆ पुरुष चार के रूप में पतलून के साथ पुरानी
     काट का लम्बा कोट।
◆  आधुनिक समाज युवकों का स्वभाव
◆ चेहरे पर बुजुर्ग होने का खासा अहसास,
    काइयाँपन
◆  महेन्द्रनाथ का प्रिय दोस्त
◆  व्यापार करने वाला
◆ महेन्द्रनाथ के परिवार को  यौन शोषण और अर्थ शोषण दोनों तरह से तबाह करने वाला
◆  महेन्द्रनाथ के साथ साझेदारी में काम करने वाला (दो बार साझेदारी में काम किया,दोनों ही बार अर्थ शोषण किया)
◆  सावित्री जुनेजा के पास पैसे देखकर उसकी ओर आकृष्ट होती है, लेकिन वह शोषण का शिकार बनती है।
◆  नाटक के प्रारंभ में एक मक्कार एवं विश्वास घातक के रूप में प्रत्यक्ष होता है। लेकिन बाद में आकर वह सावित्री के लिए एक निकट मित्र एवं शुभ इच्छुक के रूप में प्रत्यक्ष होता है ।
◆  एक भला आदमी
◆ सावित्री के कारनामों से आहत होकर महेन्द्रनाथ ब्लड प्रेशर का मरीज बनकर जुनेजा के यहाँ पहुँचता है।
◆  तब जुनेजा उसे अस्वस्थावस्था में छोड़कर दोनों के बीच का सम्बन्ध जोड़ने का प्रयत्न एक सच्चे मित्र की तरह भी करता है।
◆ वह उन दोनों के बीच मेल स्थापित करने के लिए उनके घर भी पहुँच जाता है।
◆ जुनेजा के आने से बिन्नी एवं किन्नी दोनों बहनों का झगड़ा समाप्त होता है ।
◆ अशोक भी जुनेजा के मुँह से पिताजी की अस्वस्था की बात सुनकर दुःखी होता है ।
◆  वह पहले सावित्री की हर बात सुनता है। और बाद में उसके सामने ही उसके जीवन की सारी बाते खोलकर रख देता है।
◆ घर के टूटने में दोनों समान रूप में जिम्मेदार है । (जुनेजा यह साबित करता है)

6.लड़का (अशोक)  :- 
                                            
◆ उम्र इक्कीस के आसपास पतलून के अन्दर दबी भड़कीली बुरशर्ट धुल-धुलकर घिसी हुई।
◆  आधुनिक काल की युवा पीढ़ी के लक्ष्यहीन और आवारा होकर घुमने वाले लड़के का  चित्रण
◆ चेहरे से, यहाँ तक कि हँसी से भी, झलकती खास तरह की कड़वाहट
◆ आधुनिक युग के बिखरे हुए परिवार और अनमेल माता-पिता की संतान का प्रतिनिधित्व करने वाला।
◆  युवा पीढ़ी की बेचैनी और आक्रोश व्यक्त 
◆  कम उम्र में भी अपने आप को बेकार और आवारा सिद्ध कर देता है ।
◆  पढ़ाई में कोई रुचि नहीं  रखने वाला।
◆ लड़कियों के पीछे घुमने वाला( वर्णा उद्योग सेन्टरवाली जैसी लड़कियों के पीछे )
◆  हमेशा मैगजीन से तस्वीरे काटने वाला
◆ अपनी छोटी बहन की चीजे वर्णा जैसी लड़कियों देता है।
◆ पिता के प्रति मन में प्रच्छन्न सहानुभूति का भाव रखता है और माता के प्रति वितृष्णा का और असहमति का।

7. मनोज :-
√ बड़ी लड़की का हमदर्द, जिसके साथ वह भाग जाती है ।

★ स्त्री पात्र  :-

1. सावित्री :- 
◆ प्रमुख नारी चरित्र एवं नायिका
◆ महेन्द्रनाथ की पत्नी
◆ आधुनिक काल की नारी के रूप में चित्रण
◆  उम्र चालीस को छूती चेहरे पर यौवन की
      चमक और चाह फिर भी शेष।
◆  ब्लाउज और साड़ी साधारण होते हुए भी
     सुरुचिपूर्ण।
◆ दूसरी साड़ी विशेष अवसर की।
◆ अपने जीवन में एक साथ सब कुछ पाने के लिए प्रयत्नशील
◆ प्राचीन काल की नारी के समान पति के लिए तपश्चर्या और दासी बन कर रहना चाहती नहीं है।
◆ अपने परिवार से मुक्त होकर अन्य पूर्ण पुरुष की खोज में निकल जाती है।
◆ दूसरा घर बसाने में हिचकिचाती नहीं है। जैसे सावित्री एक पूर्ण आदमी की तलाश में जुनेजा, शिवजीत, जगमोहन, मनोज आदि के पास सम्बन्ध रखती है किन्तु उसे उनसे संतुष्टी मिलती नहीं है।
◆  अन्ततः वह पारिवारिक उलझनों से छुटकारा पाना चाहती है लेकिन वापस घर में रहने को बाध्य हो जाती है।

2. बड़ी लड़की (बिन्नी) :-
◆ उम्र बीस से ऊपर नहीं।
◆ आधुनिक काल की लड़कियों का प्रतिनिधित्व
◆ भाव में परिस्थितियों से संघर्ष का अवसाद
     और उतावलापन।
◆ कभी-कभी उम्र से बढ़कर बड़प्पन ।
◆  साड़ी: माँ से साधारण ।
◆  पूरे व्यक्तित्व में एक बिखराव ।
◆  प्रेम संबंधों की वास्तविकता को जाने बिना बहकावे में आकर अपने जीवन को नष्ट करना।
◆ मनोज से विवाह करने के  बाद दोनों एक दूसरे से अलग हो जाना।
◆ इसके व्यक्तित्व में एक बिखराव और अनकहा बड़बोलापन
◆  अपने ही घर में परायापन महसूस करना।

3. छोटी लड़की (किन्नी) :-
◆ आधुनिक जीवन में जीने वाले राह भटके बच्चों का चित्रण
◆ उम्र बारह और तेरह के बीच
◆ भाव, स्वर, चाल – हर चीज़ में विद्रोह
◆ फ्रॉक चुस्त, पर एक मोज़े में सूराख ।
◆  उसका स्वभाव सबसे भिन्न प्रकार का
◆  ज्यादा जिद्दी (दोनों भाई – बहनों से )
◆ परिवार के अन्य सदस्यों के व्यक्तित्व की छाप
◆  विद्रोहपूर्ण व्यवहार करने वाली
◆ अकुलाहट एवं खीज 
◆ कम उम्र में यौन सम्बन्धों में रूचि रखने वाली
(स्वयं से अधिक उम्र की सुरेखा के साथ सम्बन्ध रखती है)
◆ माँ-बाप का प्यार, संस्कार न पाकर  मुँहफट एवं जिद्दी बन जाती है।
◆ बड़ों सम्मान न करने वाली

नाटक की विषय वस्तु :-

★  स्त्री-पुरुष सम्बन्धों की त्रासदी का चित्रण

★  मध्यमवर्गीय परिवार की आंतरिक कलह का
       चित्रण

★  समाजशास्त्रीय और मनोवैज्ञानिक अध्ययन

★  स्त्री-पुरुष के बीच लगाव तथा तनाव का
      दस्तावेज

★  आधुनिक कामकाजी स्त्री का चित्रण 

★ नारी मुक्ति की भावना

★  पुरुष का अधूरापन

★  कुंठित युवावर्ग की पीड़ा का चित्रण

★  परिवार विघटन की समस्या

◆  नाटक का मंचन :-

1. दिशांतर, नई दिल्ली【 निर्देशक – ओम शिवपुरी ,1969 ई. 】
★ आधे – अधूरे नाटक का प्रथम मंचन

2. थियेटर यूनिट, बम्बई【 निर्देशक –  सत्यदेव दुबे ,1969ई.】

3. अनामिका, कलकता【निर्देशक – श्यामानंद जालान, 1970 ई. 】

4. अनुपमा, वाराणसी【 निर्देशक –  अवध बिहारी लाल ,1971ई.】

5. युवा संगम जबलपुर【 निर्देशक – बलभद्र सिंह ,1972 ई.】

6. कला संगम घटना 【 निर्देशक  – सतीश आनंद ,1972 ई.】

7. जागृति, देहरादून, 【1972 ई.】 ।

8. वाराणसी【 निर्देशक  – अवध बिहारी लाल,  1972 ई.】

9. रूपायन, जमशेदपुर【 निर्देशक  – मदन मोहन श्रीवास्तव,1973ई.】

10. नाट्य भारती, कानपुर【 निर्देशक  –  राधेश्याम दीक्षित, 1973 ई.】

11. दर्पण सीतापुर【 निर्देशक –  विजय कपूर, 1976 ई.】

12. भारत भवन रंगमंडल, भोपाल【 निर्देशक –  अलकनंद 1983ई.】

13. अभिनेत चंडीगढ【 निर्देशक –  हरीश भाटिया 1984 ई.】

14. रंगयुग, जम्मु 【निर्देशक – संजीव, 1991 ई.】

15. शिल्पा ,शिमला 【निर्देशक – भूपेन्द्र वर्मा  1995 ई.】

नाटक का सारांश :-

★ नाटक का आरंभ अनामधारी एक पुरुष से होता है। वह सिमार के क्या खींचता हुआ अपने भीतर के अंतद्वन्द्व को प्रकट करता हुआ कहता “परन्तु मैं अपने सम्बन्ध में निश्चित रूप से कुछ भी नहीं कह सकता। उसी तरह जैसे इस नाटक के सम्बन्ध में नहीं कह सकता “

★ पुरुष एक महेन्द्रनाथ बेकार है। उसकी पत्नी सावित्री को ही घर का बोझ चलाना पड़ता है। वह जिस जिन्दगी को जीना चाहती है, वह उसे प्राप्त नहीं हो पाती। इसलिए पति और बच्चों से बूरा व्यवहार करती है।

★ सावित्री ऑफिस से घर पहुंचते ही उसका कलह आरम्भ हो जाता है।

★उसके अफ्सर सिंघानिया उसके घर आता है। सिंघानिया का आना महेन्द्रनाथ को अच्छा नहीं लगता ।

★ महेन्द्रनाथ की सहायता करनेवाला व्यक्ति जुनेजा है। परंतु सावित्री को यह घर को बर्बाद करने वाला लगता है।

★सावित्री और महेन्द्रनाथ का लड़का भी तीन तीन दिन बाहर रहता है।

★ बड़ी लड़की किसी के साथ भाग गई है। 

★ सावित्री सिंघानिया के घर आने का उद्देश्य बतलाती है कि मैं लड़के को नौकरी के सम्बन्ध में बुलाती हूँ।

★  सावित्री का जगमोहन के साथ नाजुक सम्बन्ध था। इस सम्बन्ध को भी महेन्द्रनाथ जानता है।

★ बड़ी लड़की मनोज के साथ शादी कर लेती हैं। लेकिन अच्छी तरह से नहीं रह सकती।

★ बड़ी लड़की यह अनुभव कर रही है कि माँ-बाप के चरित्र को छाया बच्चों पर भी पड़ती है।

★  परिवार को छोटी लड़की भी संतुष्ट नहीं है ।

★ सिंघानिया सावित्री के घर आता है तब वह उसको लड़की का परिचय देती है और लड़के के लिए नौकरी को बात करती है।

★ सिंघानिया अंतरराष्ट्रीय सम्बन्ध को बाते करता है।

★ अशोक  सिंघानिया की असलियत समझता है।

★  अशोक उद्योग सेन्टरवाली लड़की से प्रेम करता है।

★ माँ(सावित्री), बड़ी लड़की(बिन्नी), छोटी लड़की(किन्नी) और लड़का(अशोक) सभी अपनी प्रेमलीला में व्यस्त हैं।

★  बड़ी लड़की (बिन्नी) और छोटी लड़की (किन्नी) से आपसी झगड़े से होता है।

★ इसी झगड़े में ही अचानक जुनेजा घर में आता है।

★  महेन्द्र ने अपनी पत्नी सावित्री को मुँह पर पट्टी बाँधकर पीटा है  इसलिए जुनेजा  महेन्द्र और सावित्री को समझाने के लिए आता है।

★  महेन्द्रनाथ सावित्री के कारण ही निकम्मा हुआ है।

★ सावित्री ने शारीरिक भूख को मिटाने के लिए विभिन्न पुरुषों का सहारा लिया है।

★  इस शारीरिक भूख को शान्त करने के लिए वह शिवजीत, जुनेजा, जगमोहन, मनोज आदि के प्रति आकर्षित होती है।

★ जुनेजा सावित्री से  कहता है कि तुम किसी तरह उस आदमी को मुक्त नहीं कर सकती अर्थात् तलाक दे सकती।

★  इसी बीच बीमार स्थिति में महेन्द्रनाथ आता है।

★ नाटक का कथानक बिना किसी समाधान के समाप्त हो जाता है।

नाटक के महत्वपूर्ण कथन :-

★  “शायद अपने बारे में इतना कह देना ही काफी है कि सड़क के फुटपाथ पर चलते आप अचानक जिस आदमी से टकरा जाते हैं वह आदमी मैं हूं। आप सिर्फ घूरकर मुझे देख लेते हैं। इसके अलावा मुझसे कोई मतलब नहीं रखते कि मैं कहां रहता हूं, क्या करता हूं किस-किस से मिलता हूँ और किन-किन परिस्थितियों में जीता हूँ। आप मतलब नहीं रखते क्योंकि मैं भी आपसे मतलब नहीं रखता, और टकराने के क्षण में आप मेरे लिए वही होते हैं जो मैं आपके लिए होता हूँ।” (काला सूट वाला)

★ “मैंने कहा था यह नाटक भी मेरी ही तरह अनिश्चित है। उसका कारण भी यही है कि मैं इसमें हूँ और मेरे होने से ही सब कुछ इसमें निर्धारित या अनिर्धारित है। एक विशेष परिवार, उसकी विशेष परिस्थितियाँ ! परिवार दूसरा होने से परिस्थितियाँ बदल जातीं, मैं वही रहता । इसी तरह सब-कुछ निर्धारित करता। इस परिवार की स्त्री के स्थान पर कोई दूसरी स्त्री किसी दूसरी तरह से मुझे झेलती या वह स्त्री मेरी भूमिका ले लेती और मैं उसकी भूमिका लेकर उसे झेलता।” (काला सूट वाला)

★”आदमी जो जवाब दे, वह उसके चेहरे से भी तो झलकना चाहिए।” (महेन्द्रनाथ ने अपनी पुत्री बिन्नी से कहा)

★ “एक गुबार-सा है जो हर वक्त मेरे अंदर भरा रहता है और मैं इंतजार में रहती हूं जैसे कि कब कोई बहाना मिले जिससे उसे बाहर निकाल लूँ और आखिर?” (बिन्नी का कथन)

★ “कोई बहाना मिले जिससे उसे बाहर निकाल लूँ और आखिर?” (बिन्नी का कथन)

★  “दो आदमी जितना ज्यादा साथ रहें, एक हवा में सांस लें, उतना ही ज्यादा अपने को एक-दूसरे से अजनबी महसूस करें?” (बिन्नी का कथन)

” मैं इस घर से ही अपने अंदर कुछ ऐसी चीज लेकर गई हूं जो किसी भी स्थिति में मुझे स्वभाविक नहीं रहने देती।” (बिन्नी का कथन)

★ “मैं यहां थी, तो मुझे कई बार लगता था कि मैं एक घर में नहीं, चिड़ियाघर के एक पिंजरे में रहती हूं।” (बिन्नी का कथन)

★ “हाँ… बड़े गये हैं ! पता नहीं किस वक्त छोटे हो जाते हैं, किस वक्त बड़े हो जाते हैं।”(किन्नी का कथन)

★ “हर वक्त की दुत्कार, हर वक्त की कोंच, बस यही कमाई हैं यहाँ मेरी इतने सालों की?” (महेन्द्रनाथ ने अपने पुत्र अशोक से कहा)

★ “मैं इस घर में एक रबड़ स्टैंप भी नहीं, सिर्फ एक रबड़ का टुकड़ा हूं बार-बार घिसा जानेवाला रबड़ का टुकड़ा।” (महेन्द्रनाथ ने अपनी पत्नी सावित्री से कहा )

★ “मुझे पता है मैं एक कीड़ा हूं जिसने अंदर ही अंदर इस घर को खा लिया है पर अब पेट भर गया है मेरा। हमेशा के लिए भर गया है।” (महेन्द्रनाथ ने सावित्री से कहा)

★ “यहां पर सब लोग समझते क्या है मुझे? एक मशीन, जोकि सबके लिए आटा पीसकर रात को दिन और दिन को रात करती रहती है ? मगर किसी के मन में ज़रा-सा भी ख्याल नहीं है कि इस चीज के लिए कि कैसे में”(सावित्री का कथन)

★ “मैं वहां पहुंच गई हूं जहां पहुंचने से डरती रही हूं जिंदगी भर।” (सावित्री का कथन)

★ “मुझे याद है तुम कहा करते थे,सोचने से कुछ होना हो, तब तो सोचे भी आदमी।” (सावित्री का कथन )

★ “मेरे पास अब बहुत साल नहीं है जीने को। पर जितने हैं, उन्हें मैं इसी तरह और निभाते हुए नहीं काटूंगी। मेरे करने से जो कुछ हो सकता था इस घर का, हो चुका आज तक । मेरी तरफ से यह अंत है उसका – निश्चित अंत!”(सावित्री का कथन)

★ “आदमी किस हालत में सचमुच एक आदमी होता है?”(सावित्री का कथन )

★ “यूं तो जो कोई भी एक आदमी की तरह चलता, फिरता, बात करता है, वह आदमी ही होता है…..। पर असल में आदमी होने के लिए क्या जरूरी नहीं है कि उसमें अपना एक माद्दा, अपनी एक शख्सियत हो?”अपने आप पर उसे कभी किसी चीज़ के लिए भरोसा नहीं रहा।”
(सावित्री का कथन )

★ “एक औरत को इस तरह चलना चाहिए, इस तरह बात करनी चहिए, इस तरह मुसकराना चाहिए।” (सावित्री का कथन )

★ “जैसा कि आदमी न होकर बिना हाड़-मांस का पुतला हो वह एक – बेचारा महेन्द्र !”
(सावित्री  ने जुनेजा से कहा )

★ “बिना हाड़-मांस का पुतला, या जो भी कह लो तुम उसे – पर मेरी नज़र में वह हर आदमी जैसा एक आदमी है।” (जुनेजा ने सावित्री से कहा)

★ “आज महेन्द्र एक कुढ़ने वाला आदमी है। पर एक वक्त था जब वह सचमुच हँसता था— अन्दर से हँसता था। पर यह तभी था जब कोई उस पर यह साबित करने वाला नहीं था कि कैसे हर लिहाज से वह हीन और छोटा।”(जुनेजा ने सावित्री से कहा)

★”जब से मैंने उसे जाना है, मैंने हमेशा हर चीज़ के लिए उसे किसी-न-किसी का सहारा ढूंढ़ते पाया है… खास तौर से आपका।”
(सावित्री  ने जुनेजा से कहा )

★ “अपने आप पर उसे कभी किसी चीज़ के लिए भरोसा नहीं रहा।”(सावित्री का कथन )

★ सब-के-सब… सब-के-सब ! एक-से! बिल्कुल एक-से हैं आपलोग!अलग-अलग मुखौटे,पर चेहरा? – चेहरा सबका एक ही!” (सावित्री  ने जुनेजा से कहा )

★ “मुझे भी अपने पास उस मोहरे की बिल्कुल बिल्कुल जरूरत नहीं है जो न खुद चलता है, किसी और को चलने देता है।” (सावित्री का
कथन)

★” वह मुझे खुश रखने के लिए ही यह लोहा-लकड़ी जल्दी-से-जल्दी घर में भरकर हर बार अपनी बरबादी की नींव खोद लेता था।”
(सावित्री का कथन)

★ “अपने अन्दर के किसी उसको… एक अधूरा पन कह लीजिये उसे… उसको भर सकने की। इस तरह उसे अपने लिए… अपने में… पूरा होना होता है। किन्हीं दूसरों को पूरा करते रहने में ही ज़िन्दगी नहीं काटनी होती।”(सावित्री का
कथन)

★”मेरे अकेली के ऊपर बहुत बोझ है इस घर का जिसे कोई और भी मेरे साथ ढोने वाला हो सके। अगर मैं कुछ खास लोगों के साथ सम्बन्ध बनाकर रखना चाहती हूँ, तो अपने लिए नहीं, तुम लोगों के लिए। पर तुम लोग इससे छोटे होते हो, तो मैं छोड़ दूंगी कोशिश।”(सावित्री का
कथन)

★ “मैं अकेले दम इस घर की ज़िम्मेदारियाँ नहीं उठाती रह सकती और एक आदमी है जो घर का सारा पैसा डुबोकर सालों से हाथ पर हाथ धरे बैठा है। दूसरा अपनी कोशिश से कुछ करना तो दूर, मेरे सिर फोड़ने से भी किसी ठिकाने लगना अपना अपमान समझता है।” (सावित्री का कथन)

★ “जब और किसी को यहाँ दर्द नहीं किसी चीज़ का, तो अकेली मैं ही क्यों अपने को चीथती रहूँ रात-दिन।”(सावित्री का कथन)

★ “पहले पाँच सैकेंड आदमी की आँखों में देखता रहेगा। फिर होंठों के दाहिने कोने से जरा-सा मुसकरायेगा । फिर एक-एक लफ़्ज़ को चबाता हुआ पूछेगा.. ‘आप क्या सोचते हैं आजकल युवा लोगों में इतनी अराजकता क्यों है ?” (अशोक ने सावित्री से कहा)

★ “गाड़ी का इंजन तो फिर से भी धक्के से चल जाता है, पर जहां तक (माथे की ओर इशारा करके) इस इंजन का सवाल है…।”(अशोक का कथन)

★ “जिनके आने से हम जितने छोटे हैं, उससे और छोटे हो जाते हैं अपनी नजर में।” (अशोक का कथन)

★ “जो चीज बरसों से एक जगह रुकी है, वह रुकी ही नहीं रहनी चाहिए।” (अशोक का कथन)

★ “सचमुच चाहता हूं कि बात किसी भी एक नतीजे तक पहुंच जाए।” (अशोक का कथन)

★ “महसूस करना ही महसूस नहीं होता था। और कुछ- कुछ महसूस होना शुरू हुआ जब, तो पहला मौका मिलते ही घर से चली गई।” ( अशोक का कथन)

★ “जीवन की विचित्रताओं की ओर ध्यान देने लगें, तो कई बार तो लगता है कि… भूल तो नहीं आया घर पर?”( सिंघानिया का कथन)

★ ” वह अमरीकन भी यही बात कह रहा था कि जितनी विविधता इस देश के खान-पान और पहनावे में है… और वही क्या, सभी विदेशी लोग इस बात को स्वीकार करते हैं। क्या रूसी क्या जर्मन ! मैं कहता हूँ संसार में शीत युद्ध को कम करने में हमारी कुछ वास्तविक देन है, तो यही कि तुम अपनी इस गाड़ी को ही लो। कितनी साधारण है, फिर भी… यह हड़तालों अड़तालों का चक्कर न चलता अपने यहाँ, तो हमारा वस्त्र उद्योग अब तक… अच्छा, तुमने वह नोटिस देखा है जो यूनियन ने मैनेजमेंट को दिया है ?” (सिंघानिया सावित्री से कह रहा है)

★ “देश का जलवायु ही ऐसा है, क्या किया जाय ? जलवायु की दृष्टि से जो देश मुझे सबसे पसन्द है, वह है इटली।”(सिंघानिया का कथन)

★ “बिना वजह लगाम खींचे जाना मेरे लिए भी नई चीज नहीं है।” ( जगमोहन’ का कथन)

★ ” और जानकर ही कहता हूं कि तुमने इस तरह शिकंजे में कस रखा है उसे कि वह अब अपने दो पैरों पर चल सकने लायक भी नहीं रहा।” ( जुनेजा का कथन)

★ क्योंकि तुम्हारे लिए जीने का मतलब रहा है कितना-कुछ एक साथ होकर, कितना-कुछ एक साथ पाकर और कितना-कुछ एक साथ ओढ़कर जीना। वह उतना कुछ कभी तुम्हें किसी एक जगह न मिल पाता। (जुनेजा का कथन)

★ देखा है कि जिस मुट्ठी में तुम कितना कुछ एक साथ भर लेना चाहती थी, उसमें जो था वह भी धीरे-धीरे बाहर फिसलता गया है कि तुम्हारे मन में लगातार एक डर समाता गया जिसके मारे कभी तुम घर का दामन थामती रही हो, कभी बाहर का और कि वह डर एक दहशत में बदल गया।- (जुनेजा का कथन)

★ जाते हुए सामने थी एक पूरी जिंदगी-पर लौटने तक का कुल हासिल ?- उनके हाथों का गिजगिजा पसीना और… (जुनेजा का कथन)

महत्वपूर्ण बिन्दु :-

★ इस नाटक में  मध्यवर्गीय जीवन की सामान्य घटनाओं के माध्यम आधुनिक संवेदना की अभिव्यक्ति की है।

★  इस नाटक में मोहन राकेश की समसामयिक संवेदना की समसामयिक परिवेश में अत्यंत प्रभावशाली अभिव्यक्ति है।

★ इस नाटक में मोहन राकेश ने एक मध्यवर्गीय परिवार के माध्यम से समकालीन जीवन को प्रस्तुत किया है।

★ यह हिंदी का पहला प्रमुख नाटक है जो विवाह संस्था को एक स्थिर- स्थायी व्यवस्था और घर को एक सुखी परिवार के रूप में स्थापित करनेवाले सदियों पुराने मिथक को तोड़ते का प्रयास करता है।

★ नाटक नाट्य-लेखन और रचना-प्रक्रिया के दौरान राकेश की मानसिक चेतना सतर्कता और इस विधा की मौलिकता के प्रति गहरे लगाव का प्रत्यक्ष उदाहरण है।

★  इस नाटक को सामाजिक परिवेश और आज के कटु यथार्थ को नाटक का आधार बनाया गया है।

★ परिवार टूटने की स्थिति में है, सिर्फ आर्थिक समस्या के कारण ही नहीं, शायद अन्य आन्तरिक कारणों से भी। यद्यपि आर्थिक प्रश्न भी बहुत बड़ा है।

★  पुरुष और स्त्री दोनों अपने-अपने स्वभाव से भी विवश हैं और बहुत सी परिस्थितियों ने भी उनका स्वभाव ऐसा बना दिया है, कि दोनों ही एक-दूसरे को सह नहीं पाते बल्कि एक तरह से दोनों परस्पर नफरत करते हैं और एक साथ रहने के लिए विवश हैं।

★ नाटक स्त्री की हताशा और पुरुष की आश्रय या आधार की खोज की कामना पर समाप्त होता है।

★  इस नाटक को ‘जीवन्त सार्थक मुहावरा’ की संज्ञा देते हुए निर्देशक के रूप में ओम शिवपुरी ने कहा है ‘एक दिग्दर्शक की दृष्टि से आधे-अधूरे मुझे सम कालीन जिंदगी का पहला सार्थक हिन्दी नाटक लगता है।

★ यह आम हिन्दी नाटक से अलग है, आज के जीवन, मानवीय स्थितियों का ‘प्रासंगिक नाटकीय अनुभव है, समकालीन सच्चाई की पहली बार नयी तलाश है।

★  ‘आधे-अधूरे’ हिन्दी नाटक को बहुत सर्जनात्मक स्तर तक या किसी बहुत गहरे अनुभव तक नहीं ले जा सका, यही इसकी कमजोरी है।

★  आधुनिक समय में स्त्री-पुरुष के बदलते सम्बन्धों को, नितान्त बदली हुई जटिल मनःस्थिति को द्वन्द्व को, उनकी समस्याओं प्रश्नों को, निरंतर बढ़ते अभाव को अधिक गहराई से अधिक यथार्थ दृष्टि से उठाने के पूरे अवसर नाटक में मौजूद थे।

★ नाटक के द्वारा एक ओर आज की तरुण और किशोर पीढ़ी की स्थिति दिखायी गयी है, और साथ ही आज के माता-पिता की स्थिति भी कि वे अपने ही बच्चों के सामने कितने उघड़े हुए हैं, और किस तरह बच्चों की प्रतिक्रियाओं का विरोध आक्रोश का बराबर सामना करते हैं, और कुछ भी कर पाने या समझा पाने में असमर्थ हैं।

★ ‘आधे-अधूरे’ नाट्य कृति हमारी अपने से पहचान तो कराती है, इस पहचान को बढ़ाने में सहायक नहीं होती, वह जीवन की वास्तविकता से परिचित तो कराती है, लेकिन उससे झुंझलाहट पैदा नहीं करती, भविष्य के प्रति सचेत नहीं करती, बल्कि आर्थिक स्थिति में
विशिष्ट मनुष्यों का वर्णन करने वाली रचना मानी जाती है।

★ इस नाटक के ठोस जानदार संवाद, सही नाट्य भाषा की खोज और एक तेवर, आक्रोश नाटक में बुना हुआ- आज की जिन्दगी को आज के ही मुहावरे में पेश करने की सफल कोशिश।

★ नाटक का केन्द्रीय पात्र सावित्री है, जो अपने जीवन में, घर में, दूसरे सब में संपूर्णता’ देखना चाहती है।

★ महेन्द्रनाथ अनिश्चित व्यक्तित्वहीन आदमी है। बाकी सबके व्यक्तित्व तो निश्चित है

★ जुनेजा एक व्यावसायिक दृष्टि वाला, स्वार्थी मनोवृत्ति का दुष्ट व्यक्ति है। लेकिन नाटक के अन्त में सावित्री और बिन्नी से बातचीत के दौरान वह बड़ा समझदार, महेन्द्र का सच्चा दोस्त और उसकी भलाई के लिए प्रयत्न करता हुआ एक भला आदमी लगता है।

★  सिंघानिया में यद्यपि उस वर्ग की बनावट, अहिंसा, मूल्यों, देशहित और आदर्श की बड़ी-बड़ी बातें, बड़े इरादे, अज्ञानता को ऊपरी बातों से छिपाने की कोशिश, यह सब दिखाया गया है।

★ संवादों से तौर-तरीके से लेकिन सचमुच उस समय की स्थिति में, नाटकीय वातावरण में उसे कुछ अतिरिक्त समय और उसके व्यक्तित्व को अधिक महत्व दिया गया लगता है और वह नाटक से, पात्रों से अलग अपने में एक पूरा अभिनय हो जाता है। इसीलिए समीक्षकों ने उसे ‘कैरीकेचर’ की संज्ञा दी है।

★ नाटककार मोहन राकेश के नाटकों पर प्रकृतिवाद, अस्तित्ववाद और यथार्थवाद का प्रभाव है।

★ मोहन राकेश की अनुभूति में बौद्धिकता की प्रधानता है तथा वैयक्तिक स्वतन्त्रता, औद्योगीकरण, नगरीकरण, कुण्ठा, तनाव, विद्रोह, अजनबीपन, अमानवीयता,
घोर नैराश्य, क्रूरता, विसंगति, अनिश्चय आदि आधुनिक भाव बोधों से युक्त है।

★  ‘आधे-अधूरे’ नाटक का सम्पूर्ण परिवेश आधुनिक है। इस नाटक में मध्यवर्गीय पारिवारिक विघटन की गाथा और स्त्री-पुरुष संघर्ष, तनाव का चित्रण चरम सीमा तक हुआ है।

★  ओम शिवपुरी ने आधे-अधूरे नाटक को “समकालीन जिन्दगी का पहला सार्थक नाटक” माना है।

★ “इस नाटक में लेखक ने एक परिवार के माध्यम से विभिन्न पात्रों के व्यक्तित्व उनके टूटन तथा बिखराव को व्यक्त किया हैं न कोई कोरा आदर्शवादी है, न स्वप्नजीवी सजीव हैं, हजारों संवेदना को स्पर्श करने में पर्याप्त सक्षम है ।”( डॉ.रमेश कुमार जाधव का कथन)

★ “आधुनिक हिन्दी नाटक की एक महत्वपूर्ण उपलब्धि और समकालीन हिन्दी रंगमंच के लिए मील का पत्थर माना जानेवाला मोहन राकेश का तीसरा नाटक आधे अधूरे ।”
(डॉ. जयदेव तनेजा की पुस्तक “मोहन राकेश: रंगशिल्प और प्रर्दशन” से)

★”मोहन राकेश ने यथार्थवादी नाटकों की रचना की है उनके नाटकों का परिवेश चाहे कोई भी हो, परन्तु उसमें संघर्षरत छटपटाता हुआ आदमी’ आज का ही है।”(डॉ. जयदेव तनेजा का कथन)

★ “राकेश के तीसरे नाटक में आधुनिक संवेदना जिस प्रखरता के साथ आयी, वह पहले के नाटकों में नहीं मिली थी। “(सिद्धनाथ कुमार  का कथन)

★ “आधे-अधूरे’ अपनी आधुनिक संवेदना के कारण जितना महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ, उतना ही अपने शिल्प के कारण।”(सिद्धनाथ कुमार  का कथन)

★ “मैं इसे ‘आडम्बरहीन नाटक’ की संज्ञा देना ही अधिक उचित समझगी क्योंकि इसमें आडम्बर न कथानक और घटनाओं का है, न भाषा और अभिव्यक्ति का, न शैली और शिल्प का न पात्र बहुत हैं, न स्थितियाँ ही बहुत हैं। और रंगमंच भी साधारण सुविधाजनक दृश्य-बन्ध की माँग करता है।”( गिरीश रस्तोगी का कथन)

★ “यह नाटक केवल दो व्यक्तियों के बीच ग़लतफहमी और झगड़े को, या अधिक से अधिक उनकी टकराहट की अनिवार्यता को ही पेश कर पाता है, उसे किसी बुनियादी इन्सानी संकट, पारस्परिक संप्रेषण के असंभव होने की स्थिति, अथवा किसी अन्य व्यापक कारण के साथ नहीं जोड़ पाता, दो इन्सानों या स्त्री-पुरुष मात्र के बीच उठने वाले सवालों की तह तक नहीं पहुँचता। उसमें न सम्बन्धों की स्वभाविकता स्थापित होती है, न किसी मानवीय स्थिति की अनिवार्यता ही उभरती है। नाटक का पूरा अनुभव क्षेत्र बहुत ही छोटा, संकुचित और विशेष व्यक्तियों में सीमित है।”
(नेमीचंद जैन का कथन)

★ ‘आधे-अधूरे’ के चरित्रों को पूर्ण नहीं बनने देते और नाटक की समग्र अन्विति में बाधक होते हैं।”(नेमिचन्द्र जैन का कथन)

★ ” यह मौजूदा जीवन की विडम्बना के कुछ सघन बिन्दुओं को रेखांकित करता है। इसके पात्र, स्थितियाँ एवं मनः स्थितियाँ यथार्थपरक तथा विश्वसनीय हैं। आधे-अधूरे आज के जीवन के एक गहन अनुभव खंड को मूर्त करता है ।”
(निर्देशक ओम शिवपुरी के अनुसार)

★ “इस नाटक की भाषा को ही वह मुख्य कारण मानते हैं, जिसके कारण यह नाट्य-रचना बंद और खुले, दोनों प्रकार के मंचों पर अपना सम्मोहन बनाये रख सकी।” ( निर्देशक ओम शिवपुरी के अनुसार)

★ इस नाटक की रिहर्सल के दौरान का एक संकेत सुधा शिवपुरी ने दिया है कि ‘वह (राकेशजी) उस औरत को भावुक बिल्कुल नहीं बनाना चाहते थे। कहते थे— बहुत भोगा है उस औरत ने। उसकी घुटन और कड्डुवाहट उसकी जिंदगी से उभरकर आनी चाहिए ।”

★ इस नाटक में प्रमुख अभिनेता को पाँच भूमिकाएँ करनी थीं।
  इसके लिए वह केवल एक ऊपरी वस्त्र बदलता था –

√  सबसे पहले काला सूट (काले सूट वाला आदमी)

√ फिर कोट उतारकर केवल कमीज़ (महेन्द्रनाथ)

√ फिर बन्द गले का कोट व टोपी (सिंघानिया)

√ हाइनेक की कमीज़ ( जगमोहन )

√  फिर लम्बा कोट ( जुनेजा)

® बिन्नी, किन्नी और अशोक की पोशाकों में कोई परिवर्तन नहीं था।

® केवल सावित्री  दूसरे अंक के लिए साड़ी बदलती थी, क्योंकि वह स्थिति की माँग थी।

© नायिका (सावित्री) केवल वही मेक-अप किये हुए थी, जो उस जैसी स्त्री वास्तविक जीवन में करती है। इसके अलावा किसी कलाकार ने पाउडर इत्यादि छुआ भी नहीं था ।

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7 comments

  1. Hrithik Sangroulla

    Hhhhhuuuyy

  2. एक मध्यवर्गीय परिवार की विसंगतियों को उजागर करता है मोहन राकेश का नाटक ‘आधे-अधूरे’।

  3. Ritesh Ahirwar

    Very nice subject

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