प्रियप्रवास(priyapravas)
•”प्रियप्रवास” शब्द संस्कृत भाषा का है और इसका अर्थ होता है “प्रिय” (अर्थात् प्रिय या प्यारा) और “प्रवास” (अर्थात् यात्रा)। इस शब्द का अर्थ होता है “प्यारे या प्रिय के साथ यात्रा”।
•रचयिता :- अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध
• महाकाव्य
• हिंदी खड़ी बोली में लिखा गया हिंदी का प्रथम महाकाव्य
• शैली :- भिन्न तुकांत शैली में
• भाषा :- संस्कृत निष्ठ हिंदी
• पहले इस महाकाव्य का नाम :- बृजांगना विलाप
• लिखना प्रारंभ :- 15 अक्टूबर 1999 को
• लिखना समाप्त :- 24 फरवरी 1913 को
• प्रकाशन :- 1914 ई.(खड्ग विलास प्रेस, बाँकीपुर से प्रकाशित)
• कृष्ण काव्य परंपरा में नवीनता लाने वाला प्रथम महाकाव्य
• अतुकांत कविता में लिखा गया
• विषय :- श्री कृष्ण चंद्र की मथुरा यात्रा है। इसी में इसका नाम प्रिय प्रवास रखा गया।
• नायक :- श्री कृष्ण (लोक रक्षक )
* श्री कृष्ण को गांधी युग में एक उदात्त और कर्तव्यनिष्ठ नायक के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
• नायिका :- राधा (लोकरक्षक)
* राधा केवल विरहिणी ही नहीं,बल्कि वह लोक व समाज सेविका की भूमिका भी निभाती है।
• श्री कृष्ण :- महापुरुष,जननायक(भगवान न मानकर)
• राधा :- लोक सेविका, समाज सेविका
• इसमें आध्यात्मिक एवं लौकिक प्रेम को प्रस्तुत करते हुए लोक पक्ष एवं लोक कल्याण पर कवि ने का ध्यान केंद्रित कर रहा है।
• कुल सर्ग :- 17 सर्गों में विभक्त
• कुल छंद :- 1569
• अलंकार योजना :- सादृश्यमूलक अलंकारों का प्रयोग अधिक(उपमा सर्वोपरि)
• छंद विधान :- द्रुर्तविलंबित,मालिनी,मन्दाक्रान्ता, और वंंशस्थ छंदों का प्रयोग अधिक
• रस :- वियोग श्रृंगार रस(मूलतः)
• प्रियप्रवास पर हरिऔध को मंगला प्रसाद परितोषिक (पुरस्कार) दिया गया।
• कुल 17 सर्गों में विभक्त है । उन 17 सर्गों का वर्णन निम्न प्रकार से है:-
1. प्रथम सर्ग में :- संध्या समय का वर्णन। (कुल पद – 51)
2. द्वितीय सर्ग में :- रात्रि के समय गोकुल वासी कृष्ण के गुणों के चर्चा करते हैं। (कुल पद – 64)
3. तृतीय सर्ग में :- अर्धरात्रि के समय कृष्ण, बलराम के साथ नंद बाबा के प्रातः प्रस्थान के हेतु घर में होने वाली तैयारी एवं यशोदा की मनोदशा का अत्यंत मार्मिक चित्रण। (कुल पद – 89)
4. चतुर्थ सर्ग में:- वृषभानुदुलारी राधिका के सौंदर्य का चित्रण। (कुल पद – 53)
5. पांचवां सर्ग में:- श्री कृष्ण के मथुरा प्रस्थान का दृश्य चित्रित है, गोकुल के विरह का वर्णन है, राधा एवं यशोदा की व्यथा की मार्मिक अभिव्यक्ति । (कुल पद – 80)
6. छठावां सर्ग में :- कृष्ण यशोदा का का वर्णन । (कुल पद – 83)
7. सातवां सर्ग में :- कृष्ण और बलराम का मथुरा छोड़कर ब्रज लौटने और यशोधरा के दुःख का वर्णन। (कुल पद – 63)
8. आठवां सर्ग में :- गोकुलवासियों के कृष्ण के साथ बिताए पलों का वर्णन। (कुल पद – 70)
9. नवां सर्ग में :- श्री कृष्ण का गोकुल की यादों में खोए होना दिखाया गया है । (कुल पद – 135)
10. दसवां सर्ग में :- उद्धव प्रसंग। (कुल पद – 97)
11. ग्यारहवां सर्ग में :- उद्धव प्रसंग । (कुल पद – 49)
12. बारहवां सर्ग में :- श्री कृष्ण का जननायक के रूप में वर्णन। कृष्ण द्वारा गोवर्धन पर्वत धारण कर ब्रजवासियों को सुरक्षित रखने का वर्णन । (कुल पद – 101)
13. तेहरवां सर्ग में :- गोपों ने कृष्ण की लोकोपकारी वृत्ति का का वर्णन करते हुए कहा है कि वे राजपुत्र होते हुए भी हमारे साथ गोचारण के लिए आते थे। (कुल पद – 119)
14. चौदहवां सर्ग :- गोपी – उद्धव संवाद । (कुल पद – 147)
15. पन्द्रहवां सर्ग में :- कृष्ण विरह में गोपियों की व्यथा का वर्णन। (कुल पद – 128)
16. सोलहवां सर्ग में :- राधा उद्धव संवाद। (कुल पद – 136)
17. सत्रहवां सर्ग में :- विश्व प्रेम व्यक्तिगत प्रेम से ऊपर है हरिऔध द्वारा वर्णन। राधा का आजीवन लोकसेवा व्रत निभाना बताया गया है। (कुल पद – 54)
• कृष्ण का प्रत्यक्ष दर्शन तो संपूर्ण प्रियप्रवास में तीन-चार स्थानों पर ही किया गया है :-
√ संध्या के समय में कृष्ण वन से ब्रज की ओर लौटते है।
√ मथुरा जाते समय रथ पर बैठते हेतु तत्पर।
√ उद्धव को ब्रज भेजते समय एवं उद्धव के वापस आने पर उसके समक्ष अपने अंतरतम की व्यथा को व्यक्त करते हैं ।
• प्रियप्रवास की प्रमुख पंक्तियाँ:-
1. दिवस का अवसान समीप था।
गगन था कुछ लोहित हो चला।
तरु – शिखा पर थी अब राजती ।
कमलिनी – कुल वल्लभ की प्रभा।।
(प्रथम सर्ग से,प्रथम पद, द्रुतविलम्बित छन्द,
संध्या के समय का वर्णन )
2. अतिस – पुष्प अलंकृतकारिणी।
शरद- नील – सरोरुह रंजिनी।
नवल सुंदर श्याम शरीर की।
सजल नीरज सी कल कांति थी।।
(प्रथम सर्ग से,16वां पद , द्रुतविलम्बित छन्द,
कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन )
3. अति समुत्तम अंग समूह था।
मुकुर,मंजुल और मन भावना।
सतत थी जिसमें सुकुमारता।
सरसता प्रतिबिंब ही रही।।
(प्रथम सर्ग से, 17वां पद, द्रुतविलम्बित छन्द,
कृष्ण के सौंदर्य का वर्णन )
4. हरि न जाग उठे इस शोच से,
सिसकती तक भी वह थी नहीं ।
इसलिए उनका दुख वेग से,
हृदय का शतधा अब हो रहा ।।
(तृतीय सर्ग से,33 वां पद, द्रुतविलम्बित छन्द,
यशोदा का दर्शन सर्वप्रथम हमें तृतीय सर्ग के 33वे पद से होता है। इसमें वे कृष्ण के मथुरागमन के समाचार से दुखी कृष्ण की शैय्या के पास बैठी आंसू बहा रही है। लेकिन उन्हें भय भी है कि कही कृष्ण की नींद में बाधा न पड़ जाए।)
5.
रूपोद्यान प्रफुल्ल प्राय कलिका राकेन्दु बिम्बानना। तन्वेगी कलहासिनी सुरसिका क्रीड़ा कला पुतली। शोभा वारिधि की अमूल्य मणि सी लावण्य लीलामयी,
श्री राधा मृदु भाषिणी मृदु द्वगी, माधुर्य सम्मूर्ति थी।।
(चतुर्थ सर्ग से, 4वां पद , शार्दुलविक्रीडि़त छन्द,
राधा की रूप माधुरी का अत्यंत मनोहारी चित्रण।)
6. आज्ञा पाके निज जनक की, मान अक्रूर बातें।
जेठे भ्राता सहित जननी पास गोपाल आए।
छू माता के कमल – पग को धीरता साथ बोले।
जो आज्ञा हो जननी।अब तो यान पर बैठे जाऊं।।
( पाचवाँ सर्ग से,43वां पद,द्रुतविलम्बित छन्द,
कृष्ण मथुरा प्रस्थान करते हुए तब रथ पर बैठते हुए
अपनी धीरता धारण किए हुए यशोदा से कहते हैं।)
7. सच्चा प्यार सकल ब्रज का वंश का है उजाला।
दीनों का है परम धन,और वृद्ध का नेत्र तारा ।।
बालाओं का प्रिय स्वजन और बंधु है बालकों का
ले जाते हैं सुर- तरू कहां आप ऐसा हमारा ।।
(पाचवाँ सर्ग से ,28वां पद,मन्दाक्रान्ता छन्द,
कृष्ण ब्रज लोगों के लिए अत्यधिक प्यारा है
इसलिए एक वृद्ध अपनी भावना व्यक्त करता है ।)
8. पैन्है प्यार – वसन कितने दिव्य – आभूषणों को।
प्यारी – वाणी विहस कहते पूर्ण – प्रत्फुलल होते।
शोभा – शाली- सुअन जब था खेलता मंदिरों में ।
तो पा जाती अमरपुर की सर्व संपत्ति मैं थी। ।
(दसवां सर्ग से ,45 वां पद,मन्दाक्रान्ता छन्द)
( यशोदा के वचन में कृष्ण की वीरता एवं
अलौकिकता को बताया।)
9. जैसे-जैसे कुंवर वर ने किये हैं कार्य न्यारे।
वैसे ऊधों न कर सकते हैं महाविक्रमी भी।
जैसी मैंने गहन उनमें बुद्धि – मत्ता विलोकी।
वैसी वृद्धों प्रथित – विवुधों मंत्रदों में न देखी।।
(दसवां सर्ग से,93वां पद,मन्दाक्रान्ता छन्द)
(नंद बाबा के कथन में कृष्ण की वीरता एवं
अलौकिकता को बताया।)
10. मैं ही होता चकित न रहा देखा कार्य्यावली को।
जो प्यार के चरित लखता,मुग्ध होता वही था।
मैं जैसा ही अति सुखित था लाल पा दिव्य ऐसा।
वैसा ही हूँ दुःखित अब में काल कौतूहलों से।।
(दसवां सर्ग से,94वां पद ,मन्दाक्रान्ता छन्द, नंदबाबा कृष्ण के विरह में दुःखी थे। इसमें नंद बाबा ने कृष्ण को एक दिव्य दिव्य बालक कहा और अपनी वेदना को प्रकट किया है।)
11. स्वाजाति की देख अतीव दुर्दशा।
विर्गहणा देख मनुष्य मात्र की।
विचार के प्राणि समूह कष्ट को।
हुए समुत्तेजित वीर- केशरी ।।
(ग्यारहवाँ सर्ग से,22 वां पद ,वंशस्थ छन्द,
कृष्ण को त्याग व कष्ट सहन करने हेतु भी सदैव
तत्पर बताया है।)
12. विपत्ति से रक्षण सर्वभूत का।
सहाय होना असहाय जीव का ।
उबारना संकट से स्वजाति का ।
मनुष्य का सर्वप्रधान धर्म का है।।
(ग्यारहवाँ सर्ग से, 85वां पद ,वंशस्थ छन्द,
कृष्ण ने स्वजाति बंधुओं एवं दुखियों से उबारना
ही प्रत्येक मनुष्य का सर्व प्रधान धर्म माना है।)
13. फूली संध्या परम प्रिय की क्रांति सी है दिखाती।
मैं पाती हूं रजनी – तम में श्याम का रंग छाया ।
उषा आती प्रति – दिवस है प्रीति से रंजिता हो।
पाया जाता वर – वदन सा ओप आदित्य में है।।
(सोलहवां सर्ग से,84वां पद,मन्दाक्रान्ता छन्द,
यहां कृष्ण ने प्रेम में रंगी राधा श्याम वर्ण को भी
श्याम रूप में दिखती है।)
14. ज्ञाताओं ने विशद इसका मर्म्म यों है बताया,
सारे प्राणी अखिल जग की मूर्तियाँ है उसी की।
होती आंखे प्रभृति उनकी भूरि – संख्यावती है।
सो विश्वात्मा अमित – नयनों आदि वाला अतः है।
(सोलहवां सर्ग से,108वां पद , मन्दाक्रान्ता छन्द,
इस पद में विश्व को कृष्ण की ही सृष्टि मानती है।
https://hindibestnotes.com priyapravas कुल सर्ग 17 सर्गों में विभक्त खड्ग विलास प्रेस छठावां सर्ग में :- कृष्ण यशोदा का का वर्णन दिवस का अवसान समीप था। गगन था कुछ लोहित हो चला। तरु - शिखा पर थी अब राजती । कमलिनी - कुल वल्लभ की प्रभा प्रकाशन 1914 ई. प्रथम सर्ग में संध्या समय का वर्णन प्रियप्रवास प्रियप्रवास ke रचयिता अयोध्या सिंह उपाध्याय हरिऔध बाँकीपुर से प्रकाशित लिखना प्रारंभ 15 अक्टूबर 1999 को लिखना समाप्त 24 फरवरी 1913 को हिंदी खड़ी बोली में लिखा गया हिंदी का प्रथम महाकाव्य 2021-01-28
error: Content is protected !!
Good job sir
thank you ji
rajniarya284@gmail.com