?मुंशी प्रेमचंद का जीवन परिचय ?
◆ जन्म :- 31 जुलाई 1880 में वाराणसी जिले के लमही ग्राम में
◆ मृत्यु :- 8 अक्तूबर 1936, वाराणसी
◆ पिता का नाम :- अजायब लाल
◆ माता का नाम :- आनन्दी देवी
◆ प्रेमचंद के उपनाम :-
★ ‘धनपतराय’ (जन्म – पत्री का नाम)
★ ‘नवाबराय’ (चाचा ताऊ द्वारा दिया गया नाम)
★ ‘बम्बूक’ (मित्रों द्वारा दिया हुआ नाम)
★ कलम का सिपाही (अमृतराय के अनुसार)
★ कलम का मजदूर (मदन मोहन के अनुसार)
★ भाषा के जागर (जैनेंद्र के अनुसार)
★ कहानी सम्राट
◆ प्रारंभिक शिक्षा :- वाराणसी में
◆ असहयोग आंदोलन में भाग लेने के कारण उन्होंने सरकारी नौकरी से त्यागपत्र दे दिया था।
◆ उर्दू में वह नवाबराय के नाम से लेखन कार्य किया करते थे।
◆ उन्होंने मुंबई टॉकीज में भी कहानी लेखन का कार्य किया था , किंतु वहां उन्हें वातावरण अनुकूल नहीं लगा। इसलिए वह कार्य छोड़ कर वापस अपने घर लौट आए थे।
◆ मुख्य रचनाएं :–
★ कहानी संग्रह :–
● मानसरोवर( आठ भाग )
● गुप्त धन (दो भाग )
★ प्रमुख कहानियां है :-
1. सौत (1915)
2. पंचपरमेश्वर (1916)
3. बलिदान (1918)
4. आत्माराम (1920)
5. बूढ़ी काकी (1921)
6. विचित्र होली (1921)
7. गृहदाह (1922)
8.हार की जीत (1922)
9. परीक्षा (1923)
10. आपबीती (1923)
11. उद्धार (1924)
12.सवा सेर गेंहू (1924)
13.शतरंज के खिलाड़ी (1925)
14. माता का हृदय (1925)
15. कज़ाकी (1926)
16. सुजान भगत (1927)
17. इस्तीफा (1928)
18. अलग्योझा (1929)
19. पूस की रात (1930)
20. तावान (1931)
21.होली का उपहार (1931)
22. ठाकुर का कुआँ (1932)
23. बेटों वाली विधवा (1932)
24. ईदगाह (1933)
★ उपन्यास
1. प्रेमा अर्थात दो सखियों का विवाह(1907ई.)
● उर्दू शीर्षक :- हम खूर्मा व हम सबाब
● विशेष :- हिन्दुओं में विधवा- विवाह का चित्रण
2. सेवासदन (1918 ई.)
● उर्दू शीर्षक :-बाजार-ए- हुस्न
● विशेष :- वेश्या जीवन से सम्बद्ध समस्या का वर्णन
3. वरदान (1921ई.)
● उर्दू शीर्षक :- जलवा-ए- ईसार
● विशेष :- प्रेम एवं विवाह की समस्या का चित्रण
4. प्रेमाश्रय (1922 ई.)
● उर्दू शीर्षक :- गोशा ए आफिमत
● विशेष :- औपनिवेशिक शासन में जमींदार एवं किसानों के सम्बन्ध का चित्रण
5. रंगभूमि (1925 ई.)
● उर्दू शीर्षक :- चौगाने हस्ती
● विशेष :- औद्योगिकरण के दोष, पूँजीवादियों की शोषण नीति भारतीय शिक्षितों की चरित्रहीनता
* सेवासदन(1918) विचार- परिपक्वता,वस्तु – योजना एवं चित्रण – कला की दृष्टि से इसे प्रेमचंद का प्रथम उपन्यास मानते हैं।
* प्रेमा उपन्यास (1907) का कथानक एक अच्छी कहानी के ही अधिक उपयुक्त है।
* प्रकाशन की दृष्टि से प्रेमा(1907) उपन्यास होगा।
◆ नाटक :–
★ कर्बला
★ संग्राम
★ प्रेम की वेदी
◆ संपादन कार्य :–
★ माधुरी
★ हंस
★ मर्यादा
★ जागरण
★ प्रेमचंद से संबंधित कृतियां :-
1. प्रेमचंद घर में – शिवरानी देवी
2. कलम का मजदूर – मदन गोपाल ( अंग्रेजी में)
3. कलम का सिपाही – अमृत राय
4. प्रेमचंद: सामंतों के मुंशी – धर्मवीर
5. प्रेमचंद: साहित्यिक विवेचना – नंददुलारे वाजपेयी
6. प्रेमचंद: एक विवेचना – इन्द्रनाथ मदान
7. प्रेमचंद: जीवन और कृतित्व – हंसराज रहबर
8. प्रेमचंद: चिंतन और कला – इंद्रनाथ मदान
9. प्रेमचंद: विश्व कोश :- कमलकिशोर गोयनका
10. प्रेमचंद और उनका साहित्य :- मन्मथ नाथ गुप्त
11. प्रेमचंद और गांधीवाद :- रामदीन गुप्त
12. प्रेमचंद अध्ययन की नई दिशांए :- कमलकिशोर गोयनका
13. प्रेमचंद के उपन्यसों का शिल्पविधान :-कमलकिशोर गोयनका
14. प्रेमचंद की कहानियों का कालक्रमानुसार अध्ययन :- कमलकिशोर गोयनका
15. प्रेमचंद की उपन्यास यात्रा: नव मुल्यांकन – शैलेश-जेदी
16. प्रेमचंद और उनका युग – रामविलास शर्मा
?मुंशी प्रेमचंद के अनमोल विचार व कथन?
1.अगर मूर्ख, लोभ और मोह के पंजे में फंस जाएं तो वे क्षम्य हैं, परंतु विद्या और सभ्यता के उपासकों की स्वार्थांधता अत्यंत लज्जाजनक है।
2. अच्छे कामों की सिद्धि में बड़ी देर लगती है, पर बुरे कामों की सिद्धि में यह बात नहीं।
3. अज्ञान की भांति ज्ञान भी सरल, निष्कपट और सुनहले स्वप्न देखने वाला होता है। मानवता में उनका विश्वास इतना दृढ़,इतना सजीव होता है कि वह इसके विरुद्ध व्यवहार को अमानुषीय समझने लगता है। यह वह भूल जाता है की भेड़ियों ने भेडो को निरीहता का जवाब सदैव पंजों और दांतो से दिया है। वह अपना एक आदर्श संसार बनाकर आदर्श मानवता से अवसाद करता है और उसी में मग्न रहता है।
3.अज्ञान में सफाई है और हिम्मत है, उसके दिल और जुबान में पर्दा नहीं होता, ना कथनी और करनी में। क्या यह अफसोस की बात नहीं, ज्ञान अज्ञान के आगे सिर झुकाए?
4. अतीत चाहे जैसे भी हो उनकी स्मृतियां प्राय: सुखद होती हैं।
5. अधिकार में स्वयं एक आनंद है, जो उपयोगिता की परवाह नहीं करता।
6. अनाथ बच्चों का हृदय उस चित्र की भांति होता है जिस पर एक बहुत ही साधारण परदा पड़ा हुआ हो। पवन का साधारण झकोरा भी उसे हटा देता है।
7. अनाथों का क्रोध पटाखे की आवाज है, जिससे बच्चे डर जाते हैं और असर कुछ नहीं होता।
8. अनुराग, यौवन, रूप या धन से उत्पन्न नहीं होता। अनुराग, अनुराग से उत्पन्न होता है।
9. अन्याय को बढ़ाने वाले कम अन्यायी नहीं।
10.अन्याय में सहयोग देना, अन्याय करने के ही समान है।
11. अपनी भूल अपने ही हाथ सुधर जाए तो,यह उससे कहीं अच्छा है कि दूसरा उसे सुधारे।
12.अपनी भूल अपने ही हाथों से सुधर जाए, तो यह उससे कहीं अच्छा है कि कोई दूसरा उसे सुधारे।
13. अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है।
14. अपमान का भय क़ानून के भय से किसी तरह कम क्रियाशील नहीं होता।
15. आकाश में उड़ने वाले पंछी को भी अपने घर की याद आती है।
16.आत्म सम्मान की रक्षा, हमारा सबसे पहला धर्म है।
17.आदमी का सबसे बड़ा दुश्मन गुरूर है।
18.आलस्य वह राजयोग है जिसका रोगी कभी संभल नहीं पाता।
19.आलोचना और दूसरों की बुराइयां करने में बहुत फर्क है। आलोचना क़रीब लाती है और बुराई दूर करती है।
20.आशा उत्साह की जननी है। आशा में तेज है, बल है, जीवन है। आशा ही संसार की संचालक शक्ति है।
21.इंसान का कोई मूल्य नहीं, केवल दहेज का मूल्य है।
22.इंसान सब हैं पर इंसानियत विरलों में मिलती है।
23. इतना पुराना मित्रता रुपी वृक्ष सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर खड़ा था।
24. उपहास और विरोध तो किसी भी सुधारक के लिए पुरस्कार जैसे हैं।
25.ऐश की भूख रोटियों से कभी नहीं मिटती। उसके लिए दुनिया के एक से एक उम्दा पदार्थ चाहिए।
26.कभी-कभी हमें उन लोगों से शिक्षा मिलती है, जिन्हें हम अभिमान वश अज्ञानी समझते हैं।
27. कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता, कर्तव्य पालन में ही चित्त की शांति है।
28. कर्तव्य कभी आग और पानी की परवाह नहीं करता। कर्तव्य~पालन में ही चित्त की शांति है।
29.कर्तव्य-पालन में ही चित्त की शांति है।
30.कायरता की तरह, बहादुरी भी संक्रामक है।
31.कायरता की भांति वीरता भी संक्रामक होती है।
32.कार्यकुशलता की व्यक्ति को हर जगह जरूरत पड़ती है।
33.किसी किश्ती पर अगर फर्ज का मल्लाह न हो तो फिर उसके लिए दरिया में डूब जाने के सिवाय और कोई चारा नहीं।
34.कुल की प्रतिष्ठा भी विनम्रता और सद्व्यवहार से होती है, हेकड़ी और रुआब दिखाने से नहीं।
35.केवल बुद्धि के द्वारा ही मानव का मनुष्यत्व प्रकट होता है।
36.कोई वाद जब विवाद का रूप धारण कर लेता है तो वह अपने लक्ष्य से दूर हो जाता है।
37.क्रांति बैठे-ठालों का खेल नहीं है। वह नई सभ्यता को जन्म देती है।
38.क्रोध और ग्लानि से सद्भावनाएं विकृत हो जाती हैं। जैसे कोई मैली वस्तु निर्मल वस्तु को दूषित कर देती है।
39.क्रोध में मनुष्य अपने मन की बात नहीं कहता, वह केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
39.क्रोध में व्यक्ति अपने मन की बात नहीं कहता, वह तो केवल दूसरों का दिल दुखाना चाहता है।
40.ख़तरा हमारी छिपी हुई हिम्मतों की कुंजी है। खतरे में पड़कर हम भय की सीमाओं से आगे बढ़ जाते हैं।
41.खाने और सोने का नाम जीवन नहीं है, जीवन नाम है, आगे बढ़ते रहने की लगन का।
42.ख्याति-प्रेम वह प्यास है जो कभी नहीं बुझती। वह अगस्त ऋषि की भांति सागर को पीकर भी शांत नहीं होती।
43.गरज वाले आदमी के साथ कठोरता करने में लाभ है लेकिन बेगरज वाले को दाव पर पाना जरा कठिन है।
44. गलती करना उतना ग़लत नहीं जितना उन्हें दोहराना है।
45. घर सेवा की सीढ़ी का पहला डंडा है। इसे छोड़कर तुम ऊपर नहीं जा सकते।
46. चापलूसी का ज़हरीला प्याला आपको तब तक नुकसान नहीं पहुंचा सकता, जब तक कि आपके कान उसे अमृत समझकर पी न जाएं।
47. चिंता एक काली दीवार की भांति चारों ओर से घेर लेती है, जिसमें से निकलने की फिर कोई गली नहीं सूझती।
48. चिंता रोग का मूल है।
49. चोर केवल दंड से नहीं बचना चाहता, वह अपमान से भी बचना चाहता है। वह दंड से उतना नहीं डरता है, जितना कि अपमान से।
50.जब दूसरों के पांवों तले अपनी गर्दन दबी हुई हो, तो उन पांवों को सहलाने में ही कुशल है।
51. जब हम अपनी भूल पर लज्जित होते हैं, तो यथार्थ बात अपने आप ही मुंह से निकल पड़ती है।
52. जवानी जोश है, बल है, साहस है, दया है, आत्मविश्वास है, गौरव है और वह सब कुछ है जो जीवन को पवित्र, उज्ज्वल और पूर्ण बना देता है।
53. जिस तरह सुखी लकड़ी जल्दी से जल उठती है, उसी तरह भूख से बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर तिनक जाता है।
54. जिस प्रकार नेत्रहीन के लिए दर्पण बेकार है उसी प्रकार बुद्धिहीन के लिए विद्या बेकार है।
55. जिस बंदे को पेट भर रोटी नहीं मिलती, उसके लिए मर्यादा और इज्जत ढोंग है।
56.जिस साहित्य से हमारी सुरुचि न जागे, आध्यात्मिक और मानसिक तृप्ति न मिले, हममें गति और शक्ति न पैदा हो, हमारा सौंदर्य प्रेम न जागृत हो, जो हममें संकल्प और कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करने की सच्ची दृढ़ता न उत्पन्न करें, वह हमारे लिए बेकार है वह साहित्य कहलाने का अधिकारी नहीं है।
57. जिसके पास जितनी ही बड़ी डिग्री है, उसका स्वार्थ भी उतना ही बड़ा हुआ है मानो लोभ और स्वार्थ ही विद्वता के लक्षण हैं।
58. जीवन एक दीर्घ पश्चाताप के सिवा और क्या है?
59. जीवन का वास्तविक सुख, दूसरों को सुख देने में है, उनका सुख लूटने में नहीं।
60.जीवन का सुख दूसरों को सुखी करने में है, उनको लूटने में नहीं।
61.जीवन की दुर्घटनाओं में अक्सर बड़े महत्व के नैतिक पहलू छिपे हुए होते हैं।
62. जीवन में सफल होने के लिए आपको शिक्षा की ज़रूरत है न की साक्षरता और डिग्री की।
63.जो प्रेम असहिष्णु हो, जो दूसरों के मनोभावों का तनिक भी विचार न करे, जो मिथ्या कलंक आरोपण करने में संकोच न करे, वह उन्माद है, प्रेम नहीं।
64.जो शिक्षा हमें निर्बलों को सताने के लिए तैयार करे, जो हमें धरती और धन का ग़ुलाम बनाए, जो हमें भोग-विलास में डुबाए, जो हमें दूसरों का ख़ून पीकर मोटा होने का इच्छुक बनाए, वह शिक्षा नहीं भ्रष्टता है।
65. डरपोक प्राणियों में सत्य भी गूंगा हो जाता है।
66. दया मनुष्य का स्वाभाविक गुण है।।
67. दुखियारों को हमदर्दी के आँसू भी कम प्यारे नहीं होते।
68. दुनिया में विपत्ति से बढ़कर अनुभव सिखाने वाला कोई भी विद्यालय आज तक नहीं खुला है।
69. देश का उद्धार विलासियों द्वारा नहीं हो सकता। उसके लिए सच्चा त्यागी होना आवश्यक है।
70. दोस्ती के लिए कोई अपना ईमान नहीं बेचता।
71. दौलत से आदमी को जो सम्मान मिलता है, वह उसका नहीं, उसकी दौलत का सम्मान है।
72. द्वेष का मायाजाल बड़ी-बड़ी मछलियों को ही फसाता है। छोटी मछलियां या तो उसमें फंसती ही नहीं या तुरंत निकल जाती हैं। उनके लिए वह घातक जाल क्रीडा की वस्तु है, भय का नहीं।
73. धन खोकर अगर हम अपनी आत्मा को पा सकें तो यह कोई महंगा सौदा नहीं।
74. धर्म सेवा का नाम है, लूट और कत्ल का नहीं।
75. नमस्कार करने वाला व्यक्ति विनम्रता को ग्रहण करता है और समाज में सभी के प्रेम का पात्र बन जाता है।
76. नाटक उस वक्त पसंद होता है, जब रसिक समाज उसे पसंद कर लेता है। बारात का नाटक उस वक्त पास होता है, जब राह चलते आदमी उसे पसंद कर लेते हैं।
77. नारी और सब कुछ बर्दाश्त कर लेगी, पर अपने मायके की बुराई कभी नहीं।
78. निराशा सम्भव को असम्भव बना देती है।
79. नीति चतुर प्राणी अवसर के अनुकूल काम करता है, जहाँ दबना चाहिए वहां दब जाता है, जहाँ गरम होना चाहिए वहां गरम होता है, उसे मान अपमान का, हर्ष या दुःख नहीं होता उसकी दृष्टि निरंतर अपने लक्ष्य पर रहती है।
80. नीतिज्ञ के लिए अपना लक्ष्य ही सब कुछ है। आत्मा का उसके सामने कुछ मूल्य नहीं। गौरव सम्पन्न प्राणियों के लिए चरित्र बल ही सर्वप्रधान है।
81. नौकरी में ओहदे की ओर ध्यान मत दो, यह तो पीर का मजार है। निगाह चढ़ावे और चादर पर रखनी चाहिए।
82. न्याय और नीति लक्ष्मी के खिलौने हैं, वह जैसे चाहती है नचाती है।
83. पंच के दिल में खुदा बसता है।
84. पहाड़ों की कंदराओं में बैठकर तप कर लेना सहज है, किन्तु परिवार में रहकर धीरज बनाये रखना सबके वश की बात नहीं।
85. प्रेम एक बीज है, जो एक बार जमकर फिर बड़ी मुश्किल से उखड़ता है।
86. बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
87. बल की शिकायतें सब सुनते हैं, निर्बल की फरियाद कोई नहीं सुनता।
88. बालकों पर प्रेम की भांति द्वेष का असर भी अधिक होता है।
89. बुढ़ापा तृष्णा रोग का अंतिम समय है, जब संपूर्ण इच्छाएं एक ही केंद्र पर आ लगती हैं।
90. बूढो के लिए अतीत में सूखो और वर्तमान के दु:खो और भविष्य के सर्वनाश से ज्यादा मनोरंजक और कोई प्रसंग नहीं होता।
91.भरोसा प्यार करने के लिए पहला कदम है।
92. भाग्य पर वह भरोसा करता है जिसमें पौरुष नहीं होता।
93. मन एक भीरु शत्रु है जो सदैव पीठ के पीछे से वार करता है।
94. मनुष्य का उद्धार पुत्र से नहीं, अपने कर्मों से होता है। यश और कीर्ति भी कर्मों से प्राप्त होती है। संतान वह सबसे कठिन परीक्षा है, जो ईश्वर ने मनुष्य को परखने के लिए दी है। बड़ी- बड़ी आत्माएं, जो सभी परीक्षाओं में सफल हो जाती हैं, यहाँ ठोकर खाकर गिर पड़ती हैं।
95. मनुष्य का मन और मस्तिष्क पर भय का जितना प्रभाव होता है, उतना और किसी शक्ति का नहीं। प्रेम, चिंता, हानि यह सब मन को अवश्य दुखित करते हैं, पर यह हवा के हल्के झोंके हैं और भय प्रचंड आधी है।
96. मनुष्य कितना ही हृदयहीन हो, उसके ह्रदय के किसी न किसी कोने में पराग की भांति रस छिपा रहता है। जिस तरह पत्थर में आग छिपी रहती है, उसी तरह मनुष्य के ह्रदय में भी चाहे वह कितना ही क्रूर क्यों न हो, उत्कृष्ट और कोमल भाव छिपे रहते हैं।
97. मनुष्य को देखो, उसकी आवश्यकता को देखो तथा अवसर को देखो उसके उपरांत जो उचित समझा, करो।
98. मनुष्य बराबर वालों की हंसी नहीं सह सकता, क्योंकि उनकी हंसी में ईर्ष्या, व्यंग्य और जलन होती है।
99. मनुष्य बिगड़ता है या तो परिस्थितियों से अथवा पूर्व संस्कारों से। परिस्थितियों से गिरने वाला मनुष्य उन परिस्थितियों का त्याग करने से ही बच सकता है।
100.महान व्यक्ति महत्वाकांक्षा के प्रेम से बहुत अधिक आकर्षित होते हैं।
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