मेरे राम का मुकुट भीग रहा है निबंध(mere ram ka mukut bheeg raha hai niband)

        💐 मेरे राम का मुकुट भीग रहा है 💐

ललित निबंधकार  :-  विद्यानिवास मिश्र

◆  प्रकाशन :- 1974 ई.

◆ ललित निबंध

◆ आकाश के नीचे भी खुलकर सांस लेने की जगह की कमी, जिस काम में लगकर मुक्ति पाना चाहता हूं।

◆ दिन ऐसे बीतते हैं, जैसे भूतों के सपनों की एक रील पर दूसरी रील चढ़ा दी गई हो और भूतों की आकृतियां और डरावनी हो गई हो।

◆ मेरे एक साथी संगीत का कार्यक्रम सुनने के लिए नौ बजे रात गए, साथ में जाने के लिए मेरे एक चिरंजीव ने और मेरी एक मेहमान, महानगरीय वातावरण में पली कन्या ने अनुमति मांगी।

◆ शहरों की आजकल की असुरक्षित स्थिति का ध्यान करके इन दोनों को जाने तो नहीं देना चाहता था, पर लड़कों का मन भी तो रखना होता है, कह दिया, एक-डेढ़ घंटे सुनकर चले आना ।

◆  मेरे घर से बाहर जाने पर विदेश में रहने पर वे(दादी-नानी) यही गीत विह्वल होकर गाती :-
“मोरे राम के भीजे मुकुटवा
लछिमन के पटुकवा
मोरी सीता के भीजै सेनुरवा
त राम घर लौटहिं ।”
(मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा, मेरे लखन का पटुका (दुपट् टा ) भीग रहा होगा, मेरी सीता की मांग का सिंदूर भीग रहा होगा, मेरे राम घर लौट आते।)

◆ आने वाली पीढ़ी पिछली पीढ़ी की ममता की पीड़ा नहीं समझ पाती और पिछली पीढ़ी अपनी संतान के सम्भावित संकट की कल्पना मात्र से उद्विग्न हो जाती है।

◆ यह प्रतीति ही नहीं होती कि अब संतान समर्थ है, बड़ा-से बड़ा संकट झेल लेगी।

◆  लड़की दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाती है।

◆ लड़का संकट-बोध की कविता लिखता है।

◆ लड़की का ख्याल आते ही दुश्चिता होती, गली में जाने कैसे तत्व रहते हैं! लौटते समय कहीं कुछ हो न गया हो और अपने भीतर अनायास अपराधी होने का भाव जाग जाता।

◆ पराई लड़की (और लड़की तो हर एक पराई होती है, धोबी की मुटरी की तरह घाट पर खुले आकाश में कितने दिन फहराएगी, अंत में उसे गृहिणी बनने जाना ही है) घर आई, कहीं कुछ हो न जाए !

◆ मन फिर घूम गया कौसल्या की ओर, लाखों-करोड़ों कौसल्याओं की ओर, और लाखों करोड़ों कौसल्याओं के द्वारा मुखरित एक अनाम अरूप कौसल्या की ओर, इन सबके राम चन में निर्वासित हैं, पर क्या बात है कि मुकुट अभी भी उनके माथे पर बंधा है और उसी के भीगने की इतनी चिंता है? क्या बात है कि

◆ आज भी काशी की रामलीला आरम्भ होने के पूर्व एक निश्चित मुहुर्त में मुकुट की ही पूजा सबसे पहले की जाती है?

◆ क्या बात है कि तुलसीदास ने ‘कानन’ को ‘संत अवध समाना’ कहा और चित्रकूट में ही पहुंचने पर उन्हें कलि की कुटिल कुचाल’ दीख पड़ी?

◆  क्या बात है कि आज भी वनवासी धनुर्धर राम ही लोकमानस के राजा राम बने हुए हैं? कहीं-न-कहीं इन सबके बीच एक संगति होनी चाहिए।

◆ अभिषेक की बात चली, मन में अभिषेक हो गया और मन में राम के साथ राम का मुकुट प्रतिष्ठित हो गया। मन में प्रतिष्ठित हुआ, इसलिए राम ने राजकीय वेश में उतारा, राजकीय रथ से उतरे, राजकीय भोग का परिहार किया, पर मुकुट तो लोगों के मन में था।

◆ कौसल्या के मातृ-स्नेह में था, वह कैसे उतरता, वह मस्तक पर विराजमान रहा और राम भीगे तो भीगें, मुकुट न भीगने पाए, इसकी चिंता बनी रही।

◆  राजा राम के साथ उनके अंगरक्षक लक्ष्मण का कमर -बंद दुपट् टा भी (प्रहरी की जागरूकता का उपलक्षण) न भीगने पाए और अखंड सौभाग्यवती सीता की मांग का सिंदूर न भीगने पाए, सीता भले ही भीग जाएं।

◆  राम तो वन से लौट आए, सीता को लक्ष्मण फिर निर्वासित कर आए, पर लोकमानस में राम की वनयात्रा अभी नहीं रुकी।

◆  मुकुट, दुपट्टे और सिंदूर के भीगने की आशंका अभी भी साल रही है।

◆ कितनी अयोध्याएं बसी उजड़ीं, पर निर्वासित राम की असली राजधानी, जंगल का रास्ता अपने कांटों-कुश, ककड़ों पत्थरों की वैसी ही ताजा चुभन लिये हुए बरकरार है, क्योंकि जिनका आसरा साधारण गंवार आदमी भी लगा सकता है।

◆ वे राम तो सदा निर्वासित ही रहेंगे और उनके राजपाट को सम्भालने वाले भरत अयोध्या के समीप रहते हुए भी उनसे भी अधिक निर्वासित रहेंगे, निर्वासित ही नहीं, बल्कि एक कालकोठरी में बंद जिलावतनी की तरह दिन बिताएंगे।

◆  पूरे विश्व की एक कौसल्या है, जो हर बारिश में विसूर रही है ‘मोरे राम के – भीजे मुकुटवा (मेरे राम का मुकुट भीग रहा होगा)।

◆ मेरी संतान, एश्वर्य की अधिकारिणी संतान वन में घूम रही है, उसका मुकुट, उसका ऐश्वर्य भीग रहा है, मेरे राम कब घर लौटेंगे, मेरे राम के सेवक का दुपट्टा भीग रहा है, पहरुए का कमरबंद भीग रहा है, उसका जागरण भीग रहा है, मेरे राम की सहचारिणी सीता का सिंदूर भीग रहा है, उसका अखंड सौभाग्य भीग रहा है, मैं कैसे धीरज धरू?

◆ मनुष्य की इस सनातन नियति से एकदम आतंकित हो उठा ऐश्वर्य और निर्वासन दोनों साथ-साथ चलते हैं जिसे एश्वर्य सौंपा जाने को है, उसको निर्वासन पहले से बदा है।

◆  मनुष्य की ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है। इसीलिए जब कीमत अदा कर ही दी गई, तो उत्कर्ष कम-से- कम सुरक्षित रहे, यह चिंता स्वाभाविक हो जाती है।

◆  राम भीगें तो भीगें, राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे।

◆   नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन की व्यवस्था झेलें, पर नर रूप में उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे, पानी की बूंदों की झालर में उसकी दीप्ति छिपने न पाए।

◆  शक्ति का एकनिष्ठ प्रेमपाकर राम का मुकुट है, क्योंकि राम का निर्वासन वस्तुतः सीता का दुहरा निर्वासन है।

◆  राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं।

◆  राम के साथ लक्ष्मण हैं, सीता हैं, सीता वन्य पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती हैं प्रसव की पीड़ा हो रही है।

◆ सीता जंगल की सूखी लकड़ी बीनती हैं, जलाकर अंजोर करती हैं और जुड़वां बच्चों का मुंह निहारती हैं।

◆ दूध की तरह अपमान की ज्वाला में चित कूद पड़ने के लिए उफनता है और बच्चों की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर पानी के छीटे पड़ जाते हैं, उफान दब जाता है।

◆ निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है, वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है, मुकुटधारी राम को निर्वासन से भी बड़ी व्यथा देता है।

◆ राम का मुकुट इतना भारी हो उठता है कि राम उस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर और दमक उठता है, सीता का वर्चस्व और प्रखर हो उठता है।

◆ चिरंजीवी निचली मंजिल से ऊपर नहीं चढ़े, सहमी हुई कृष्णा (मेरी मेहमान लड़की) बोली- दरवाजा खोलिए । आंखों में इतनी कातरता कि कुछ कहते नहीं बना, सिर्फ इतना कहा कि तुम लोगों को इसका क्या अंदाज होगा कि हम कितने

◆ एक दूसरे को देखने से डर लगता है। घर मसान हो गया है, अपने ही लोग भूत-प्रेत बन गए हैं, पेड़ सूख गए हैं, लताएं कुम्हला गई हैं। नदियों और सरोवरों को देखना भी दुस्सह हो गया है। केवल इसलिए कि जिसका ऐश्वर्य से अभिषेक हो रहा था, वह निर्वासित हो गया।

◆ उत्कर्ष की ओर उन्मुख समष्टि का चैतन्य अपने ही घर से बाहर कर दिया गया, उत्कर्ष की, मनुष्य की ऊर्ध्वोन्मुख चेतना की यही कीमत सनातन काल से अदा की जाती रही है। इसीलिए जब कीमत अदा कर ही दी गई, तो उत्कर्ष कम-से- कम सुरक्षित रहे, यह चिंता स्वाभाविक हो जाती है।

◆ राम भीगें तो भीगें, राम के उत्कर्ष की कल्पना न भीगे, वह हर बारिश में हर दुर्दिन में सुरक्षित रहे।

◆  नर के रूप में लीला करने वाले नारायण निर्वासन की व्यवस्था झेलें, पर नर रूप में उनकी ईश्वरता का बोध दमकता रहे, पानी की बूंदों की झालर में उसकी दीप्ति छिपने न पाए।

◆  राम का निर्वासन वस्तुतः सीता का दुहरा निर्वासन है। राम तो लौटकर राजा होते हैं, पर रानी होते ही सीता राजा राम द्वारा वन में निर्वासित कर दी जाती हैं।

◆  राम के साथ लक्ष्मण हैं, सीता हैं, सीता वन्य पशुओं से घिरी हुई विजन में सोचती हैं प्रसव की पीड़ा हो रही है, कौन इस वेला में सहारा देगा, कौन प्रसव के समय प्रकाश दिखलाएगा, कौन मुझे संभालेगा, कौन जन्म के गीत गाएगा?

◆ कोई गीत नहीं गाता सीता जंगल की सूखी लकड़ी बीनती हैं, जलाकर अंजोर करती हैं और जुड़वां बच्चों का मुंह निहारती हैं।

◆ दूध की तरह अपमान की ज्वाला में चित कूद पड़ने के लिए उफनता है और बच्चों की प्यारी और मासूम सूरत देखते ही उस पर पानी के छीटे पड़ जाते हैं, उफान दब जाता है। पर इस निर्वासन में भी सीता का सौभाग्य अखण्डित है, वह राम के मुकुट को तब भी प्रमाणित करता है, मुकुटधारी राम को निर्वासन से भी बड़ी व्यथा देता है।

◆  सीता के लिए फिर से  अयोध्या जंगल बन जाती हैं, स्नेह की रसधार रेत बन जाती है, सब कुछ उलट-पलट जाता है, भवभूति के शब्दों में पहचान की बस एक निशानी बच रहती है।

◆ राम का मुकुट इतना भारी हो उठता है कि राम उस बोझ से कराह उठते हैं और इस वेदना के चीत्कार में सीता के माथे का सिंदूर और दमक उठता है, सीता का वर्चस्व और प्रखर हो उठता है।

◆ चिरंजीवी निचली मंजिल से ऊपर नहीं चढ़े, सहमी हुई कृष्णा (मेरी मेहमान लड़की) बोली- दरवाजा खोलिए । आंखों में इतनी कातरता कि कुछ कहते नहीं बना, सिर्फ इतना कहा कि तुम लोगों को इसका क्या अंदाज होगा कि हम कितने परेशान रहे हैं।

◆ अपने लड़के घर लौट आए, बारिश से नहीं संगीत से भीगकर, मेरी दादी-नानी के गीतों के राम लखन और सीता अभी भी वन-वन भीग रहे हैं। तेज बारिश में पेड़ की छाया और दुखद हो जाती है, पेड़ की हर पती से टप टप बूंदें पड़ने लगती हैं, तने पर टिके, तो उसकी हर नस-नस से आप्लावित होकर बारिश पीठ गलाने लगती है।

◆   इतने में मन में एक चोर धीरे से फुसफुसाता है, राम तुम्हारे कब से हुए, तुम, जिसकी बुनाहट पहचान में नहीं आती, जिसके व्यक्तित्व के ताने-बाने तार-तार होकर अलग हो गए हैं, तुम्हारे कहे जानेवाले कोई भी हो सकते हैं कि वह तुम कह रहे हो, मेरे राम! और चोर की बात सच लगती है।

◆ शायद सामने उपस्थित अपने ही मनोराज्य के युवराज, अपने बचे-खुचे स्नेह के पात्र, अपने भविष्यत् के संकट की चिंता में राम के निर्वासन का जो ध्यान आ जाता है, उनसे भी अधिक एक बिजली से जगमगाते शहर में एक पढ़ी-लिखी चंद दिनों की मेहमान लड़की के एक रात कुछ देर से लौटने पर अकारण चिंता हो जाती है, उसमें सीता का ख्याल आ जाता है, वह राम के मुकुट या सीता के सिंदूर के भीगने की आशंका से जोड़े न जोड़े, आज की दरिद्र अर्थहीन, उदासी को कुछ ऐसा अर्थ नहीं दे देता, जिससे जिंदगी ऊब से कुछ उबर सके?

* सीता :- कृष्णा (मेहमान लड़की) के लिए

◆  इतनी असंख्य कौसल्याओं के कण्ठ में बसी हुई जो एक अरूप ध्वनिमयी कौसल्या है, अपनी सृष्टि के संकट में उसके सतत उत्कर्ष के लिए आकुल, उस कौसल्या की ओर, उस मानवीय संवेदना की ओर ही कहीं राह है, घास के नीचे दबी हुई। पर उस घास की महिमा अपरम्पार है, उसे तो आज वन्य पशुओं का राजकीय संरक्षित क्षेत्र बनाया जा रहा है, नीचे ढंकी हुई राह तो सैलानियों के घूमने के लिए, वन्य पशुओं के प्रदर्शन के लिए, फोटो खींचनेवालों की चमकती छवि यात्राओं के लिए बहुत ही रमणीक स्थली बनाई जा रही है।

◆  उस राह पर तुलसी और उनके मानस के नाम पर बड़े-बड़े तमाशे होंगे, फुलझड़िया दर्गेगी, सैर-सपाटे होंगे, पर वह राह ढंकी ही रह जाएगी, केवल चक्की का स्वर, श्रम का स्वर ढलती रात मैं, भीगती रात में अनसोए वात्सल्य का स्वर राह तलाशता रहेगा किस और राम मुड़े होंगे, बारिश से बचने के लिए? किस ओर? किस ओर? बता दो सखी।

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