प्रयोगवाद का परिचय[prayogavad ka parichay]

प्रयोगवाद का परिचय

◆ ‘प्रयोग’ का सामान्य अर्थ :- इस्तेमाल करना है, जैसे ‘खाने में सरसों के तेल का प्रयोग लाभप्रद होता है।’

◆ साहित्य में प्रयोगवाद तार सप्तक’ (1943) में विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त हुआ।

छायावादी काव्यान्दोलन और प्रगतिवादी काव्यान्दोलन की तरह प्रयोगवादी आन्दोलन भी मुख्यतः काव्य तक ही सीमित रहा।

‘तार सप्तक’ में अज्ञेय ने इस काव्यधारा की कविताओं के लिए ‘प्रयोगवाद’ शब्द का प्रयोग नहीं करके ‘प्रयोगशील’ और ‘प्रयोग’ दोनों शब्दों का इस्तेमाल किया है।

अज्ञेय के अनुसारनयी परिस्थितियों में जीवन के वैषम्य के कारण संप्रेषण की समस्या कवि की सबसे बड़ी समस्या हो गयी है।’

◆ प्रयोग क्रिया है तो प्रयोगशीलता कवि-कर्म। इसका अभिप्राय है शब्दों में नया अर्थ भरना, युगानुरूप नये बिम्बों, रूपकों, प्रतीकों, छन्दों आदि का विधान।

◆ ‘प्रयोगशीलता’ शब्द के बार-बार प्रयोग से प्रतीत होता है कि यह शब्द प्रगतिशीलता के वजन पर गढ़ा गया है- एक हद तक प्रगतिवाद की फार्मूलाबद्ध कर्कशता के खिलाफ।

◆ ‘तार सप्तक’ में ‘प्रयोगवाद’ शब्द नहीं प्रयुक्त हुआ है।’

तार सप्तक’ की आलोचना करते हुए नन्ददुलारे वाजपेयी ने एक लेख लिखा‘प्रयोगवादी रचनाएँ’, जो ‘तार सप्तक’ के प्रकाशन के बाद छपा और मूलत: वह ‘तार सप्तक’ की समीक्षा है। इस लेख में ही पहली बार ‘प्रयोगवाद’ शब्द का प्रयोग किया गया।

◆ ‘दूसरा सप्तक’ 1951 में छपा। इसमें अज्ञेय ने वाजपेयी जी का उत्तर देते हुए इस काव्यान्दोलन को वादी कहने से इनकार कर दिया है। उनका कहना है’ प्रयोग कोई वाद नहीं है, हम वादी नहीं रहे, न ही हैं; न प्रयोग अपने-आप में कोई इष्ट अथवा साध्य है, ठीक इसी तरह कविता का कोई वाद नहीं है, अतः हमें प्रयोगवादी कहना उतना ही सार्थक अथवा निरर्थक है जितना कवितावादी कहना।’ इस इन्कार के बाद भी 1943-51 तक का काव्यान्दोलन प्रयोगवाद के नाम से अभिहित हुआ।

अज्ञेय ने प्रयोग को साधन माना तो प्रपद्यवादियों ने साध्य।

◆ सन् 1959 में अज्ञेय के ही सम्पादकत्व में ‘तीसरा सप्तक’ प्रकाशित हुआ। इस संग्रह की कविताओं को अज्ञेय नेनयी कविता’ कहा है, क्योंकि ‘नयी कविता’ पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हो चुका था।

◆ ‘तीसरा सप्तक’ में ‘नयी कविता’ की शुरुआत ‘दूसरा सप्तक’ काल से ही हो चुकी थी।

सन् 1954 में ‘नयी कविता’ पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हो चुका था। ‘तीसरा सप्तक’ में नयी कविता की ताजगी भी है और प्रयोगवाद का असल चेहरा भी।

◆ प्रयोगवाद शिल्प में रूपवाद और भाव में व्यक्तिसत्य या सत्यान्वेषण (आन्तरिक सत्य तथा कलात्मक अनुभव-क्षण) का पक्षधर रहा है।

प्रयोग या केवल प्रयोग एकांगी है। श्रेष्ठ साहित्य का सृजन दोनों के सहभाव में ही संभव है।

डॉ. जगदीश गुप्त एवं लक्ष्मीकान्त वर्मा ने इसे अधिक व्यापक क्षेत्र प्रदान करते हुए ‘नयी कविता’ नाम से प्रचारित किया।

लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार “प्रयोगवाद ज्ञान से अज्ञान की ओर बढ़ने की बौद्धिक जागरुकता है।”

डॉ. बच्चन सिंह के अनुसार “प्रयोगवाद का मूलाधार वैयक्तिक्ता’ या ‘व्यक्तिवाद’ (प्राइवेसी) है।”

डॉ. गणपतिचंद्र गुप्त ने ‘प्रयोगवाद एवं नयी कविता’ दोनों काव्य आन्दोलनों को संयुक्त रूप से
“अतियथार्थवादी काव्य परम्परा” नाम प्रदान किया है।

‘प्रयोगवाद’ को ‘प्रगतिवाद की प्रतिक्रिया’ भी कहा जाता है।

◆ हिन्दी का प्रयोगवादी आन्दोलन मूलतः पश्चिम (अंग्रेजी) के ‘न्यू सिगनेचर’ आन्दोलन से प्रभावित नजर आता है। न्यू सिगनेचर सन् 1932 ई. में ‘न्यू सिगनेचर’ शीर्षक से एक काव्य संग्रह ‘ब्रिटेन’ में प्रकाशित हुआ था। इसमें स्टेफेन स्फेंडर, आडेन, लेहमान, एम्पसन आदि की रचनाएँ संगृहीत थीं।

◆ अज्ञेय ने इस काव्यधारा के लिए ‘प्रयोगवाद’ नाम को स्वीकार नहीं किया था। इन्होंने ‘दूसरा सप्तक’ (1951 ई.) की भूमिका में इस नाम का घोर विरोध किया था तथा ‘प्रतीक’ पत्रिका के जून-1951 के अंक में इस काव्य के लिए ‘नयी कविता’ संज्ञा का प्रयोग किया था।

◆ प्रयोगवाद को प्रतीकवाद भी कहा जाता है, क्योंकि ‘प्रयोगवादी कविता’ नवीन प्रतीक विधान से युक्त है।

अस्तित्ववाद ने प्रयोगवाद को सर्वाधिक प्रभावित किया है।

◆ प्रयोगवादी कविताओं में मध्यमवर्गीय व्यक्ति की जीवन की पीड़ा के अनेक स्वर उभरे हैं, परन्तु इसमें दमित कामवासना की प्रधानता देखने को मिलती है।

प्रयोगवाद का सबसे बड़ा दोष :- लोक कल्याण की उपेक्षा

प्रयोगवादी कवि यथार्थवादी हैं। वे भावुकता के स्थान पर ठोस बौ‌द्धिकता को स्वीकार करते हैं।

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