? कोसी का घटवार कहानी?
【शेखर जोशी]
◆प्रकाशन :- 1957ई.
◆ कल्पना पत्रिका में प्रकाशित
◆ कोसी घटवार कहानी संग्रह से
◆ प्रमुख पात्र :-
● गुसाई (फौजी)
● नरसिंह(बुढ्ढा प्रधान)
● धरमसिंह(हवालदार)
● लछमा (गुसाईं की प्रेमिका)
● रमुआ/रामसिंह(लछमा का पति)
● किसन सिंह (गुसांई की यूनिट का सिपाही)
● लछमा का लड़का
● लछमा के जेठ – जेठानी
● लछमा के काका -काकी
◆ कहानी का उद्देश्य :- सामाजिक जड़ मनोविज्ञान के कारण अधुरे रहे अनाथ फौजी गुसाईं और लछमा के कालातीत प्रेम कहानी।
◆ खप्पर में एक-चौथाई से भी अधिक गेहूं शेष था।
◆ खंभे का सहारा लेकर वह बुदबुदाया, “जा, स्साला! सुबह से अब तक दस पंसेरी भी नहीं हुआ।
◆ जेठ बीत रहा है। आकाश में कहीं बादलों का नाम निशान ही नहीं। अन्य वर्षों अब तक लोगों की धान रोपाई पूरी हो जाती थी, पर इस साल नदी-नाले सब सूखे पडे हैं।
◆ खेतों की सिंचाई तो दरकिनार, बीज की क्यारियां सूखी जा रही हैं। छोटे नाले – गूलों के किनारे के घट महीनों से बंद हैं।
◆ कोसी नदी के किनारे :- गुसाईं का घट। पर इसकी भी चाल ऐसी कि लद्दू घोडे की चाल को मात देती हैं।
◆ एक आदमी सिर पर पिसान रखे उसकी ओर जा रहा था। गुसांईं ने उसकी सुविधा का ख्याल कर वहीं से आवाज दे दी, ‘”हैं हो! यहां लंबर (नंबर) देर में आएगा। दो दिन का पिसान अभी जमा है। ऊपर उमेदसिंह के घट में देख लो।”
◆चक्की के पाट किया आवाज़:- खस्सर खस्सर
◆ खप्पर से दाने गिरानेवाली चिडिया पाट पर टकराने की आवाज़:- किट किट किट किट रही थी।
◆ मथानी पानी को काट रही इसमें आवाज़ :–छिच्छर- छिच्छर
◆ सूखी नदी के किनारे बैठा गुसांईं सोचने लगा, क्यों उस व्यक्ति को लौटा दिया? लौट तो वह जाता ही, घट के अंदर टच्च पडे पिसान के थैलों को देखकर। दो-चार क्षण की बातचीत का आसरा ही होता ।
◆ कभी-कभी गुसांईं को यह अकेलापन काटने लगता है।
◆ सूखी नदी के किनारे गुसांईं का अकेलापन नहीं, जिंदगी-भर साथ के लिए जो अकेलापन उसके द्वार पर धरना देकर बैठ गया है।
◆ जिसे अपना कह सके, ऐसे किसी प्राणी का स्वर उसके लिए नहीं। पालतू कुत्ते-बिल्ली का स्वर भी नहीं।
◆ गुसांई की फौजी पैंट की बदौलत यह अकेलापन उसे मिला है.. नहीं, याद करने को मन नहीं करता। पुरानी बहुत पुरानी बातें वह भूल गया है, पर हवालदार साहब की पैंट की बात उसे नहीं भूलती।
◆ ऐसी ही फौजी पैंट पहनकर हवालदार धरमसिंह आया था, लॉन्ड्री की धुली, नोकदार, क्रीजवाली पैंट! वैसी ही पैंट पहनने की महत्वाकांक्षा लेकर गुसांईं फौज में गया था। पर फौज से लौटा, तो पैंट के साथ-साथ जिंदगी का अकेलापन भी उसके साथ आ गया।
◆ गुसांई फौज से पहली बार एनुअल लीव पर घर आये तब पहनकर रखा था :- सिर पर क्रास खुखरी के क्रेस्ट वाली, काली, किश्तीनुमा टोपी को तिरछा रखकर, फौजी वर्दी ।
◆ गुसांई फौज से पहली बार एनुअल लीव पर घर किस माह में आया? :- बैसाख महीने में
◆ गुसांई के फौज से छुट्टियों में घर आने की खबर किस तरह फैल गयी? :- चीड वन की आग की तरह
◆ नाला पार के अपने गांव से भैंस के कटया (बच्चा) को खोजने के बहाने दूसरे दिन लछमा आई थी। गुसांई उस दिन लछमा मिल न सका।
◆ बुढ्ढे नरसिंह प्रधान उन दिनों ठीक ही कहते थे, आजकल गुसांई को देखकर सोबनियां का लड़का भी अपनी फटी घेर की टोपी को तिरछी पहनने लग गया है।
◆ दिन- रात बिल्ली के बच्चों की तरह छोकरे सोबनियां का लड़का के पीछे क्यों लगे रहते थे ? :- सिगरेट-बीडी या गपशप के लोभ में।
◆ लछमा को पात- पतेल के लिए जंगल जाते देखकर वह छोकरों से कांकड के शिकार का बहाना बनाकर अकेले जंगल को चल दिया था।
◆ काफल के पेड के नीचे गुसांई के घुटने पर सिर रखकर लेटी लछमा काफल (छोटा लाल फल) खा रही थी।
◆ लछमा ने कहा था, “इसे यहीं रख जाना, मेरी पूरी बांह की कुर्ती इसमें से निकल आएगी। वह खिलखिलाकर अपनी बात पर स्वयं ही हंस दी थी।
◆ गुसांई के ने कहा तेरे लिए मखमल की कुर्ती ला दूंगा, मेरी सुवा !
* मेरी सुवा :- लछमा के लिए
◆ लछमा को मखमल की कुर्ती किसने पहनाई होगी – पहाडी पार के रमुवां ने
◆ पहाड़ी पार से रमुवां तुरी-निसाण लेकर लछमा ब्याह ने आया था।
* तुरी का अर्थ :- घोड़ी
◆ लछमा का पति का नाम :- रमुवां(रामसिंह)
◆ रामसिंह किसनसिंह के गाँव का था।
◆ “जिसके आगे-पीछे भाई-बहिन नहीं, माई-बाप नहीं, परदेश में बंदूक की नोक पर जान रखनेवाले को छोकरी कैसे दे दें हम?” ” लछमा के बाप ने कहा था।
* जिसके :- गुसांई के लिए
◆ गुसांई की यूनिट का सिपाही :– किसनसिंह
◆ गुसांई की प्रेमिका :-
◆ “हमारे गांव के रामसिंह ने जिद की, तभी छुट्टियां बढानी पडीं। लृस साल उसकी शादी थी। खूब अच्छी औरत मिली है, यार! शक्ल-सूरत भी खूब है, एकदम पटाखा! बडी हंसमुख है। तुमने तो देखा ही होगा, तुम्हारे गांव के नजदीक की ही है। लछमा – लछमा कुछ ऐसा ही नाम है।”(किसनसिंह ने गुसांई से कहा)
◆ गुसांई सोचने लगा, उस साल छुट्टियों में घर से बिदा होने से एक दिन पहले वह मौका निकालकर लछमा से मिला था।
◆ गंगनाथज्यू की कसम, जैसा तुम कहोगे, मैं वैसा ही करूंगी !” (आंखों में आंसूं भरकर लछमा गुसांई से कहा)
◆ देवी-देवताओं (गंगनाथ) की झूठी कसमें खाकर उन्हें नाराज करने से क्या लाभ?
( लछमा गंगनाथ देवा की झूठी खायी इस कारण गुसांई ने कहा)
◆ जितने दिन नौकरी रही, गुसांई पलटकर अपने गांव नहीं आया।
◆ एक स्टेशन से दूसरे स्टेशन का वालंटियरी ट्रांसफर लेनेवालों की लिस्ट में नायक गुसांईसिंह का नाम ऊपर आता रहा लगातार पंद्रह साल तक ।
◆ पिछले बैसाख में ही वह गांव लौटा, पंद्रह साल बाद रिजर्व में आने पर काले बालों को लेकर गया था, खिचडी बाल लेकर लौटा।
* काले बाल :- युवावस्था
* खिचडी बाल :- प्रौढावस्था
◆ अकेलेपन में कोई होता, जिसे गुसांई अपनी जिंदगी की किताब पढ़कर सुनाता!
◆ पहाड़ी के बीच की पगडंड़ी से सिर पर बोझा लिए एक नारी आकृति उसी ओर चली आ रही थी। वह आकृति पगडंडी छोड़कर नदी के मार्ग में आ पहुंची थी।
* एक नारी आकृति :- लछमा के लिए
◆ घरघराहट का हल्का-धीमा संगीत से भी मधुर एक नारी का कंठस्वर, कब बारी आएगी, जी? रात की रोटी के लिए भी घर में आटा नहीं है।
◆ काठ की चिडियां किट-किट बोल रही थीं और उसी गति के साथ गुसांई को अपने हृदय की धडकन का आभास हो रहा था।
◆ गुसांईं के पूरे शरीर पर चूर्ण छा गया था। इस कृत्रिम सफेदी के कारण वह वृद्ध-सा दिखाई दे रहा था। स्त्री ने उसे नहीं पहचाना।
* कृत्रिम सफेदी :- आटा के लिए
◆ दूसरी बार के प्रश्न को गुसांई न टाल पाया, उत्तर देना ही पड़ा, “यहां पहले ही टीला लगा है, देर तो होगी ही। उसने – स्वर में कह दिया।
◆ स्त्री ने किसी प्रकार की अनुनय-विनय नहीं की। शाम के आटे का प्रबंध करने के लिए वह दूसरी चक्की का सहारा लेने को लौट पडी।
◆ किसी अज्ञात शक्ति ने जैसे उसे वापस जाती हुई उस स्त्री को बुलाने को बाध्य कर दिया।
◆ आवेग इतना तीव्र था कि वह स्वयं को नहीं रोक पाया, लडखडाती आवाज में उसने पुकारा, “लछमा!”
◆ गुसाईं ने संयत स्वर में कहा, “हां, ले आ, हो जाएगा।”
◆ मिहल के पेड़ की छाया में :- गुसाईं बैठा हुआ था।
◆ दाडिम के पेड़ की छाया में :- लछमा
◆ गुसांई की उदारता के कारण ऋणी-सी होकर ही जैसे उसने निकट आते-आते कहा, “तुम्हारे बाल-बच्चे जीते रहें, घटवारजी! बड़ा उपकार का काम कर दिया तुमने ! ऊपर के घट में भी जाने कितनी देर में लंबर मिलता । “
* घटवारजी :- लछमा के लिए
◆ गुसाई ने लछमा से कहा “जीते रहे तेरे बाल-बच्चे लछमा ! मायके कब आई?”
◆ कोसी की सूखी धार अचानक जल-प्लावित होकर बहने लगती, तो भी लछमा को इतना आश्चर्य न होता, जितना अपने स्थान से केवल चार कदम की दूरी पर गुसांईं को इस रूप में देखने पर हुआ ।
◆ विस्मय से आंखें फाडक़र वह गुसांई को देखे जा रही थी, जैसे अब भी लछमा को विश्वास न हो रहा हो कि जो व्यक्ति उसके सम्मुख बैठा है, वह उसका पूर्व-परिचित गुसांईं ही है।
◆ जमीन पर गिरे एक दाडिम के फूल को हाथों में लेकर लछमा उसकी पंखुडियों को एक-एक कर निरूद्देश्य तोडने लगी और गुसांई पतली सींक लेकर आग को कुरेदता रहा।
◆ गुसांई ने पूछा, “तू अभी और कितने दिन मायके ठहरनेवाली है?”
◆ गुसांई का ध्यान लछमा के शरीर की ओर गया। लछमा के गले में चरेऊ (सुहाग- चिह्न) नहीं था।
◆ गुसांई की सहानुभूतिपूर्ण दृष्टि पाकर लछमा आंसू पोंछती हुई अपना दुखडा रोने लगी, “जिसका भगवान नहीं होता, उसका कोई नहीं होता। जेठ-जेठानी से किसी तरह पिंड छुडाकर यहां मां की बीमारी में आई थी, वह भी मुझे छोड़कर चली गई। एक अभागा रोने को रह गया है, उसी के लिए जीना पड़ रहा है। नहीं तो पेट पर पत्थर बांधकर कहीं डूब मरती, जंजाल कटता ।”
◆ “मुश्किल पड़ने पर कोई किसी का नहीं होता, जी ! बाबा (लछमा के पिता) की जायदाद पर लछमा के काका – काकी आंखें लगी हैं, सोचते हैं, कहीं मैं न जमा लूं। मैंने साफ-साफ कह दिया, मुझे किसी का कुछ लेना-देना नहीं। जंगलात का लीसा ढो ढोकर अपनी गुजर कर लूंगी, किसी की आंख का कांटा बनकर नहीं रहूंगी।” (गुसांई से लछमा ने कहा )
◆ दाडिम के वृक्ष से पीठ टिकाकर लछमा घुटने मोड़कर बैठी थी।
◆ गुसांईं सोचने लगा, पंद्रह-सोलह साल किसी की जिंदगी में अंतर लाने के लिए कम नहीं होते। उस छाप के नीचे वह आज भी पंद्रह वर्ष पहले की लछमा को देख रहा है।
◆ सूरज की एक पतली किरन न जाने कब से लछमा के माथे पर गिरी हुई एक लट को सुनहरी रंगीनी में डूबा रही थी।
◆ सडक़ किनारे की दुकान से दूध लेकर लौटते-लौटते गुसांई को काफी समय लग गया था। वापस आने पर उसने देखा, एक छः-सात वर्ष का बच्चा लछमा की देह से सटकर बैठा हुआ है।
◆ बच्चे का परिचय देने की इच्छा से जैसे लछमा ने कहा, “इस छोकरे को घडी-भर के लिए भी चैन नहीं मिलता। जाने कैसे पूछता – खोजता मेरी जान खाने को यहां भी पहुंच गया है।”
◆ गुसांई ने लक्ष्य किया कि बच्चा बार- बार उसकी दृष्टि बचाकर मां से किसी चीज के लिए जिद कर रहा है।
◆ चाय के पानी में दूध डालकर गुसांईं फिर उसी बंजर घट में गया। एक थाली में आटा लेकर वह गूल के किनारे बैठा- बैठा उसे गूंथने लगा। मिहल के पेड की ओर आते समय उसने साथ में दो-एक बर्तन और ले लिए।
◆ हाथ का चाय का गिलास जमीन पर टिकाकर लछमा उठी। आटे की थाली अपनी ओर खिसकाकर उसने स्वयं रोटी पका देने की इच्छा ऐसे स्वर में प्रकट की कि गुसांईं ना न कह सका।
◆ वह खडा खडा उसे रोटी पकाते हुए देखता रहा।गोल-गोल डिबिया सरीखी रोटियां चूल्हे में खिलने लगीं। वर्षों बाद गुसांई ने ऐसी रोटियां देखी थीं।
◆ बच्चा दोनों हाथों में चाय का मग थामे टकटकी लगाकर गुसांई को देखे जा रहा था। लछमा ने आग्रह के स्वर में कहा, “चाय के साथ खानी हों, तो खा लो। फिर ठंडी हो जाएंगी।”
◆ बच्चा तो अभी घर से खाकर ही आ रहा है। मैं रोटियां बनाकर रख आई थी।(लछमा ने कहा)
◆ गुसांई ने कहा, “लोग ठीक ही कहते हैं, औरत के हाथ की बनी रोटियों में स्वाद ही दूसरा होता है।”
◆ ”ऐसी ही खाने-पीनेवाले की तकदीर लेकर पैदा हुआ होता तो मेरे भाग क्यों पडता? दो दिन से घर में तेल-नमक नहीं है। आज थोडे पैसे मिले हैं, आज ले जाऊंगी कुछ सौदा।”( लछमा ने कहा)
◆ रूखी आवाज में गुसाईं बोला, “दुःख-तकलीफ के वक्त ही आदमी आदमी के काम नहीं आया, तो बेकार है! स्साला! कितना कमाया, कितना फूंका हमने इस जिंदगी में है कोई हिसाब! पर क्या फायदा! किसी के काम नहीं आया। इसमें अहसान की क्या बात है? पैसा तो मिट्टी है स्साला! किसी के काम नहीं आया तो मिट्टी, एकदम मिट्टी!”
◆ लछमा ने दार्शनिक गंभीरता से कहा “गंगनाथ दाहिने रहें, तो भले-बुरे दिन निभ ही जाते हैं, जी! पेट का क्या है, घट के खप्पर की तरह जितना डालो, कम हो जाय। अपने-पराये प्रेम से हंस-बोल दें, तो वह बहुत है दिन काटने के लिए।”
* पेट :- घट के खप्पर की तरह (लछमा के अनुसार)
◆ गुसांई ने झिझकते हुए केवल इतना ही कहा, “कभी चार पैसे जुड़ जाएं, तो गंगनाथ का जागर लगाकर भूल-चूक की माफी मांग लेना। पूत-परिवारवालों को देवी-देवता के कोप से बचा रहना चाहिए।’
चन्द्रदेव से मेरी बाते
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